तहजीब और सभ्यता के चेहरे पर झन्नाटेदार तमाचा
कोरोना संकट से जूझ रहे झारखंड की राजधानी रांची में रविवार को एक ऐसा वाकया हुआ, जिसने यहां की इंसानियत, तहजीब और सभ्यता के चेहरे पर झन्नाटेदार तमाचा जड़ दिया। कोरोना संक्रमित एक बुजुर्ग, जो रांची में पैदा हुआ, पला-बढ़ा, को उसके अपने ही शहर में दो गज जमीन के लिए भटकना पड़ा।
एक शव के साथ रांची के जीवित लोगों ने जो सलूक किया, वह न केवल मानसिक पतन की पराकाष्ठा है, बल्कि रांची के तेजी से विभाजित होते समाज का संकेत भी है। पहले बरियातू, फिर रातू रोड और उसके बाद जुमार नदी के पास लोगों ने शव को दफनाने का जिस कदर विरोध किया, उससे एक नये किस्म के विवाद ने जन्म ले लिया है। यह विवाद रांची के लोगों को कितना नीचे ले जायेगा, इसकी कल्पना भी मुश्किल है। क्या कोरोना से संक्रमित होना कोई अपराध है या फिर किसी का इस संक्रमण से मर जाने में उसकी कोई गलती है। तो फिर ऐसी नफरत क्यों। झारखंड में ही बोकारो में इस संक्रमण से मरनेवाले को दफनाने को लेकर कोई विवाद नहीं हुआ, तो फिर रांची में यह विवाद क्यों हुआ, इस पर विचार करने की जरूरत है। यदि आज इस मुद्दे को यहीं सुलझाया नहीं गया, तो आनेवाले दिनों में यह बहुत गंभीर रूप अख्तियार कर लेगा। इसलिए इसे अभी ही हमेशा के लिए समाप्त करना उचित है। रांची में कोरोना संक्रमित के शव को दफनाने को लेकर हुए विवाद पर आजाद सिपाही ब्यूरो का खास विश्लेषण।
समाधान नहीं निकला, तो झारखंड के लिए नासूर बन जायेगा
रविवार 12 अप्रैल को झारखंड के सबसे बड़े अस्पताल रिम्स में बनाये गये कोविड 19 वार्ड के बाहर का माहौल गमजदा था। डॉक्टर इस बात को लेकर अफसोस कर रहे थे कि तमाम कोशिशों के बाद भी वे उस बुजुर्ग को बचा नहीं सके, जो कोरोना से संक्रमित होकर चार दिन पहले यहां भर्ती हुआ था। हिंदपीढ़ी के रहनेवाले उस बुजुर्ग के परिवार के चार और सदस्य कोरोना से संक्रमित होकर इसी अस्पताल में हैं। वे सभी रो रहे थे, लेकिन शव के नजदीक जाने की उन्हें भी इजाजत नहीं दी गयी। शव को एंबुलेंस में रखा गया। उसके बाद करीब 17 घंटे तक उस बुजुर्ग के शव को उस शहर में, जहां उसने आंखें खोलीं और तमाम उतार-चढ़ाव देखे, अपनी पहचान बनायी, दो गज जमीन के लिए भटकना पड़ा। यह मंजर बेहद अफसोसजनक तो था ही, सभ्य समाज के चेहरे पर एक काला धब्बा था।
पहले बरियातू के जोड़ा तालाब स्थित कब्रिस्तान में उस शव को दफनाने की कोशिश की गयी, तो वहां के लोग सड़कों पर उतर आये। इसके बाद रातू रोड कब्रिस्तान में उस शव को दफनाने का प्रयास हुआ, तो हजारों लोग लॉकडाउन तोड़ कर सड़कों पर उतर आये। वे उस जगह के गेट पर धरना देने लगे, जहां आने के बाद धर्म से लेकर राजनीति तक और धन-संपत्ति से लेकर ताकत-वैभव तक खत्म हो जाता है। प्रशासन की ओर से लोगों को आश्वासन दिया गया कि शव को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर तय मानकों के अनुरूप ही दफनाया जायेगा, लेकिन लोग मानने के लिए तैयार नहीं हुए। जुमार पुल और डोरंडा में भी यही स्थिति रही। तब जाकर हिंदपीढ़ी के उस बुजुर्ग को अपने ही मोहल्ले के बाहर बच्चा कब्रिस्तान में दो गज जमीन नसीब हुई।
यह पूरा वाकया इसलिए बेहद खतरनाक है, क्योंकि रांची में किसी शव के अंतिम संस्कार के सवाल पर इतना बवाल आज से पहले कभी नहीं हुआ था। इस वाकये ने साबित कर दिया कि कोरोना संक्रमण के प्रति रांची का शिक्षित समाज कितनी कम जानकारी रखता है। विश्व स्वास्थ्य संगठन ने कोरोना संक्रमित के शव के अंतिम संस्कार के लिए जो मानक तय किये हैं, उनके बारे में लोगों को जानकारी ही नहीं है। इस बुजुर्ग को दफनाने का विरोध करनेवाले लोगों ने यह नहीं सोचा कि आखिर यूरोपीय देशों में, जहां शवों को दफनाने की परंपरा है, कोरोना संक्रमितों के शवों को कैसे दफनाया जाता है। चीन से लेकर इटली, स्पेन और अमेरिका में इतनी बड़ी संख्या में इस महामारी से मौत हुई है, लेकिन कभी कोई विवाद नहीं हुआ। लेकिन रांची के लोगों ने बिना वजह के अपने सिर पर यह कलंक भी उठा लिया।
इस विवाद को यहीं खत्म करना बेहद जरूरी है और समय की मांग भी। कोरोना का संक्रमण अभी फैल रहा है और झारखंड जैसे गरीब राज्य में, जहां स्वास्थ्य संसाधन बेहद सीमित हैं, इस बात का अधिक खतरा है कि यहां कोरोना संक्रमितों की मौत अधिक हो। हर मौत के बाद यदि इस तरह का विवाद उठता रहा, तो झारखंड एक अलग तरह की परेशानी में फंस जायेगा।
इसलिए प्रशासन को तत्काल इस दिशा में ठोस कदम उठाना होगा। इसके साथ ही उन सामाजिक संगठनों और संवेदनशील लोगों को भी आगे आना होगा, जो सामान्य दिनों में प्रशासन के साथ मिल कर काम करते हैं। उदाहरण के लिए थाना स्तर पर बनी शांति समितियों को यह जिम्मा सौंपा जा सकता है कि वे लोगों को जागरूक करें। रांची के लोगों को यह भी समझना होगा कि कोरोना से संक्रमित होना कोई अपराध नहीं है। यह संक्रमण किसी को भी हो सकता है। कोरोना का वायरस जाति, धर्म या वर्ग और संप्रदाय देख कर नहीं आता है।
ऐसे में किसी शव के साथ ऐसा सलूक कतई उचित नहीं है। प्रशासन के पास एक और विकल्प है। वह अभी से ही कोई ऐसा स्थान निर्धारित कर दे, जहां कोरोना संक्रमित की मौत पर उसके शव का अंतिम संस्कार किया जा सके, चाहे वह किसी भी धर्म या संप्रदाय का हो।
रांची के लोगों ने एक नये किस्म के विवाद को जन्म दिया है और यह विवाद अनावश्यक रूप से तूल पकड़ेगा, क्योंकि शव अपनी मौत का कारण नहीं बताता। हर शव के साथ यह विवाद चस्पां किया जाता रहेगा और इसका सीधा असर सामाजिक सौहार्द पर पड़ेगा।
इसलिए प्रशासन को, सामाजिक संगठनों को और बुद्धिजीवियों को इस संकट के दौर में यह महती जिम्मेवारी स्वीकार करनी ही होगी कि वे लोगों को समझायें, जागरूक करें और किसी शव के अंतिम संस्कार में अड़ंगा डालने के लिए हतोत्साहित करें। यदि ऐसा होता है, तो इस संकट से जूझ रहे झारखंड द्वारा एक और बड़ी मिसाल होगी, जिसकी तारीफ पूरी दुनिया में होगी।