- केंद्र की उपेक्षा से आहत हैं झारखंड के सीएम
- दो बार वीडियो कांफ्रेंसिंग में पीएम ने नहीं की बात
कोरोना महामारी के संक्रमण को फैलने से रोकने के लिए पूरे देश में पिछले 10 दिन से लॉकडाउन है और सरकार-प्रशासन की तमाम गतिविधियां कोरोना को फैलने से रोकने की कोशिश में जुटी हैं। केंद्र से लेकर राज्य सरकारें इसे लेकर क्षमता से कहीं आगे जाकर काम कर रही हैं। प्रधानमंत्री ने पिछले 16 दिन में तीन बार देशवासियों को संबोधित किया और दो बार राज्यों के मुख्यमंत्रियों से वीडियो कांफ्रेंसिंग से बात की। लेकिन दोनों ही अवसरों पर झारखंड के मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन को अपनी बात रखने का मौका नहीं दिया, जिससे वह बेहद आहत हैं। हेमंत ने अपनी पीड़ा सोशल मीडिया पर व्यक्त की है। उनकी यह पीड़ा आज की परिस्थिति में एकदम जायज है। जो मुख्यमंत्री अपने राज्य में कोरोना के संक्रमण को रोकने और अब इसके फैलाव को रोकने के लिए इतनी मजबूती और कुशलता से काम कर रहा है, उसकी बात जरूर सुनी जानी चाहिए। यह तो पूरे देश को जानना चाहिए कि आखिर झारखंड सरकार ने किस रणनीति के साथ इतना काम किया। इतना ही नहीं, झारखंड की जरूरतें क्या हैं और उसकी आगे की क्या योजना है, इसका पता भी केंद्र सरकार को होना चाहिए। स्वाभाविक तौर पर यदि कोई मुख्यमंत्री अपनी बात सीधे प्रधानमंत्री से कहता है, तो यह न केवल उसके लिए, बल्कि पूरे राज्य के लिए आत्मसंतोष की बात होती है। झारखंड की उपेक्षा के बारे में हेमंत सोरेन की पीड़ा की पृष्ठभूमि में आजाद सिपाही का खास विश्लेषण।
दो दिन पहले जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कोरोना संकट और देशव्यापी लॉकडाउन के मुद्दे पर देश के विभिन्न राज्यों के मुख्यमंत्रियों से वीडियो कांफ्रेंसिंग के जरिये बात की, तो झारखंड मंत्रालय के बाहर माहौल थोड़ा तनाव भरा था। कारण साफ था कि इस बार भी मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन से न कुछ पूछा गया और न ही उनकी बात सुनी गयी। मुख्यमंत्री ने बाहर निकल कर मीडिया से बात की और कहा कि उन्हें अपनी बात रखने का मौका नहीं मिला। जब मौका मिलेगा, वह अपनी बात रखेंगे। इसके बाद हेमंत अपने आवास लौट गये। लेकिन केंद्र की उपेक्षा से वह बेहद आहत थे। इस पीड़ा को उन्होंने किसी के सामने व्यक्त नहीं किया। वह चाहते तो इसे एक बड़ा मुद्दा बना सकते थे, लेकिन संकट के इस दौर में, जब पूरा देश एक होकर कोरोना महामारी का मुकाबला कर रहा है, हेमंत ने मौन रहना ही उचित समझा। हेमंत के करीबियों का कहना है कि देर रात तक हेमंत बेचैन रहे और अपने में खोये रहे। लेकिन वह अधिक देर तक अपनी पीड़ा छिपा नहीं सके और देर रात अपने फेसबुक पेज पर उन्होंने अपनी पीड़ा व्यक्त कर ही दी। यह हेमंत सोरेन का संस्कार और उनकी शालीनता ही थी, जिसने उन्हें केंद्र पर आरोप लगाने से रोक दिया, क्योंकि वह न इस तरह की राजनीति करते हैं और न करना चाहते हैं।
हेमंत सोरेन ने लिखा कि लगातार दूसरी बार उन्हें अपनी बात कहने का मौका नहीं दिया गया। यह झारखंड के साढ़े तीन करोड़ लोगों की बातों को नजरअंदाज करना है। फेसबुक पोस्ट की भाषा भी बेहद शालीन है और इसमें उम्मीद की किरण भी है। हेमंत सोरेन के इस कदम की न केवल राजनीतिक हलकों में, बल्कि आम लोगों में भी बेहद तारीफ हो रही है। लोग तो यहां तक कह रहे हैं कि यदि हेमंत की जगह ममता बनर्जी या उद्धव ठाकरे होते, तो आज नजारा कुछ और होता। लेकिन हेमंत ने जिस तरह अपनी पीड़ा व्यक्त की, वह वाकई तारीफ के काबिल है।
यह पहला मौका नहीं था, जब प्रधानमंत्री की वीडियो कांफ्रेंसिंग में झारखंड को अपनी बात कहने का अवसर नहीं मिला। इससे पहले 20 मार्च को भी प्रधानमंत्री ने कोरोना संकट को लेकर सभी राज्यों के मुख्यमंत्रियों से वीडियो कांफ्रेंसिंग से बात की थी। उस दिन भी हेमंत सोरेन को अपनी बात कहने का मौका नहीं मिला था, हालांकि उस दिन हेमंत ने इस बारे में कोई प्रतिक्रिया जाहिर नहीं की थी। प्रधानमंत्री की पहली वीडियो कांफ्रेंसिंग में उन राज्यों को मौका दिया गया था, जहां संक्रमण खतरनाक रूप से फैल रहा था। उस दिन तक झारखंड इससे अछूता था, इसलिए हेमंत सोरेन ने संतोष कर लिया। लेकिन जिस मुख्यमंत्री ने लगातार 10 दिन तक अपने राज्य को कोरोना के संक्रमण से मुक्त रखा और लोगों की उम्मीदों को पूरा करने में अपनी पूरी ताकत झोंक दी, उसे दूसरी बार भी अवसर नहीं दिया जाना उसे अंदर तक भेद गया।
अब झारखंड में सवाल यह उठाया जा रहा है कि आखिर हेमंत को अपनी बात कहने का मौका क्यों नहीं दिया गया। क्या इसके पीछे कोई राजनीति है या फिर केंद्र की तरफ से झारखंड को उपेक्षित किया जा रहा है। ये ऐसे सवाल हैं, जिनके जवाब झारखंड की जनता देर-सबेर मांगेगी ही। वैसे हेमंत सोरेन पिछले साल लोकसभा चुनाव के समय कह चुके हैं कि दिल्ली की सत्ता में आदिवासियों की आवाज प्राय: अनसुनी कर दी जाती है और गैर-आदिवासियों को अधिक तरजीह दी जाती है। हेमंत ने कहा था कि लुटियन जोन में आदिवासी मुख्यमंत्रियों और नेताओं को वह हक नहीं मिलता, जो गैर आदिवासी मुख्यमंत्रियों और नेताओं को मिलता है। रांची की आवाज दिल्ली पहुंचते-पहुंचते मद्धिम कर दी जाती है। इस कारण आजादी के इतने साल बाद भी वंचित समुदायों के लोग अपने अधिकार की लड़ाई लड़ रहे हैं।
कोरोना के खिलाफ जारी जंग में झारखंड ने बहुत अच्छा काम किया है। मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन की कोशिशों का ही परिणाम है कि यहां अब तक कोरोना का संक्रमण पूरी तरह नियंत्रित है। इतने सीमित संसाधनों में भी ऐसा कर दिखाना सचमुच प्रशंसनीय है। किसी राज्य में संक्रमण को फैलने से ही रोक दिया जाता है, तो यह बहुत बड़ी उपलब्धि है। यदि हेमंत सोरेन को बोलने का मौका दिया जाता, तो पूरा देश उनकी रणनीति और कार्य योजना के बारे में जान सकता था और उसका लाभ पूरे देश को मिलता। इतना ही नहीं, झारखंड की जरूरतों के बारे में भी देश को पता चलता। केंद्र सरकार को भी इसमें उदारता दिखानी चाहिए थी, क्योंकि मजबूत राज्यों से ही मजबूत संघ बन सकता है। किसी राज्य की उपेक्षा न केवल केंद्र के लिए विपरीत परिस्थिति पैदा करेगी, बल्कि इससे संघवाद कमजोर होगा। अभी समय खत्म नहींं हुआ है। उम्मीद की जानी चाहिए कि अगली बार हेमंत सोरेन की पीड़ा केंद्र सरकार समझेगी और उन्हें अपनी बात रखने का अवसर देगी।