विशेष
-भाजपा-झामुमो के तीन-तीन विधायक हैं इस बार मैदान में
-कांग्रेस और भाकपा माले के भी एक-एक विधायक रेस में
-बड़ा सवाल : पार्टियों के पास सांसद बनने लायक प्रत्याशियों की कमी क्यों हो गयी

दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र के राजनीतिक नक्शे पर 15 नवंबर, 2000 को 28वें राज्य के रूप में उभरे झारखंड को कई अवसरों पर ‘राजनीति की प्रयोगशाला’ कहा जाता है। ऐसा इसलिए, क्योंकि झारखंड में अभिनव राजनीतिक प्रयोग होते रहते हैं। अभी, जब झारखंड समेत पूरा देश लोकसभा चुनावों की गहमा-गहमी में व्यस्त है, तो भी खनिज संपदाओं से भरपूर इस प्रदेश में एक नये किस्म का राजनीतिक प्रयोग किया जा रहा है। यह प्रयोग है विधायकों को संसदीय चुनाव के अखाड़े में उतारने का। वैसे तो यह प्रयोग भारत के चुनावी इतिहास में पहले भी हो चुके हैं, लेकिन इतने बड़े पैमाने पर विधायकों को संसदीय चुनावों में उतारने की शायद यह पहली घटना है। झारखंड की 14 संसदीय सीटों में से दो ऐसी हैं, जहां इस बार विधायकों के बीच मुकाबला होगा। इनमें संथाल परगना का मुख्यालय और राज्य की उप राजधानी दुमका और उत्तरी छोटानागपुर प्रमंडल का मुख्यालय हजारीबाग शामिल है। इसके अलावा चाइबासा, कोडरमा, धनबाद और गिरिडीह में भी राजनीतिक दलों ने विधायकों को संसदीय चुनाव में उतारा है। इनमें अभी धनबाद के अलावा रांची, जमशेदपुर, गोड्डा, पलामू और चतरा में इंडी गठबंधन की तरफ से प्रत्याशियों की घोषणा नहीं की गयी है। झारखंड में इतनी बड़ी संख्या में विधायकों के संसदीय चुनाव में प्रत्याशी बनाये जाने का कारण क्या है, यह गंभीर विवेचना का विषय है, लेकिन एक बात तय है कि यहां के राजनीतिक दलों में अब नेता बनाने की क्षमता नहीं रही, बल्कि यह काम सत्ता ने संभाल लिया है। क्या है विधायकों को लोकसभा चुनाव में टिकट दिये जाने के मतलब और इसका क्या हो सकता है असर, बता रहे हैं आजाद सिपाही के विशेष संवाददाता राकेश सिंह।

पूरे देश के साथ झारखंड में भी संसदीय चुनाव का संग्राम उफान की ओर बढ़ रहा है। चाहे भाजपा हो या कांग्रेस-झामुमो, देश की संसद के निचले सदन, यानी लोकसभा में अपना संख्या बल बढ़ाने और दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र की सत्ता पर अधिकार जमाने के लिए जोर-आजमाइश कर रहे हैं। राजनीतिक दल बहुत सोच-समझ कर उम्मीदवारों का चयन कर रहे हैं। जहां तक झारखंड की बात है, तो यहां के संदर्भ में एक बात गौर करने लायक है और वह है राजनीतिक दलों द्वारा बड़ी संख्या में विधायकों को लोकसभा चुनाव के अखाड़े में उतारने का फैसला करना।

झारखंड की आठ सीटों पर तस्वीर साफ
झारखंड में लोकसभा की 14 सीटें हैं। इन सीटों पर जीत हासिल करने के लिए भाजपा और इंडी गठबंधन के घटक दलों, झामुमो-कांग्रेस-राजद-भाकपा माले के बीच मुकाबला होना तय है। राज्य की आठ सीटों पर मुकाबले की तस्वीर साफ हो गयी है, यानी चुनावी मुकाबले में उतरने वाले प्रत्याशियों के नामों का एलान हो गया है। राज्य की छह सीटें ऐसी हैं, जहां इंडी अलायंस की तरफ से उम्मीदवारों के नाम का एलान नहीं किया गया है। झारखंड की जिन सीटों पर मुकाबले की तस्वीर साफ हो गयी है, उनमें हजारीबाग, दुमका, राजमहल, कोडरमा, खूंटी, लोहरदगा, सिंहभूम और गिरिडीह शामिल हैं। अभी रांची, धनबाद, गोड्डा, जमशेदपुर, चतरा और पलामू में मुकाबले की तस्वीर साफ होनी बाकी है। अभी यहां पर इंडी अलायंस की तरफ से उम्मीदवार की घाषणा नहीं की गयी है।

अब तक आठ विधायकों को टिकट
झारखंड में लोकसभा चुनाव के मुकाबले में उतरनेवाले उम्मीदवारों में से आठ राज्य की वर्तमान विधानसभा के सदस्य हैं। इनमें भाजपा और झामुमो ने तीन-तीन विधायकों को मैदान में उतारा है, जबकि कांग्रेस और भाकपा माले ने एक-एक विधायक को टिकट दिया है।

किन विधायकों को मिला है टिकट
भाजपा ने जिन तीन विधायकों को टिकट दिया है, उनमें हजारीबाग से मनीष जायसवाल, धनबाद से ढुल्लू महतो और दुमका से सीता सोरेन शामिल हैं। झामुमो के जिन तीन विधायकों को टिकट मिला है, उनमें दुमका से नलिन सोरेन, सिंहभूम से जोबा मांझी और गिरिडीह से मथुरा महतो शामिल हैं। कांग्रेस ने मांडू के विधायक जयप्रकाश भाई पटेल को हजारीबाग से टिकट दिया है, जबकि भाकपा माले ने अपने एकमात्र विधायक विनोद सिंह को कोडरमा से मैदान में उतारा है। इन विधायकों में सीता सोरेन दुमका संसदीय क्षेत्र के तहत जामा से झामुमो की विधायक थीं और हाल ही में भाजपा में शामिल हुई हैं। इसी तरह जयप्रकाश भाई पटेल भाजपा के टिकट पर मांडू से चुने गये थे, लेकिन कांग्रेस में शामिल होने के बाद उन्हें लोकसभा चुनाव का टिकट मिल गया।

दुमका-हजारीबाग में दो विधायकों में संसद के लिए जंग
इस तरह झारखंड में दो लोकसभा सीटें ऐसी हैं, जहां विधायकों में संसद के लिए जंग होगी। ये सीटें हैं हजारीबाग और दुमका। इन दोनों सीटों पर मुकाबला इसलिए रोचक है, क्योंकि यहां लोकसभा चुनाव के प्रतिद्वंद्वी विधानसभा में एक ही पार्टी का प्रतिनिधित्व करते थे। ऐसे में चर्चा यह हो रही है कि क्या झारखंड के राजनीतिक दलों के पास जन नेताओं की कमी हो गयी है, जिसके कारण पुराने चेहरों पर दांव खेला जा रहा है।

राजनीति में महत्वाकांक्षी होना गलत नहीं
इतनी बड़ी संख्या में विधायकों को लोकसभा चुनाव के मैदान में उतरने के बारे में जानकार कहते हैं कि राजनीति में अगर विधायक, सांसद बनने की तमन्ना रखते हैं, तो उसमें कोई गलत नहीं है, लेकिन यह भी तय है कि सभी की इच्छाएं पूरी नहीं होंगी। इसलिए नैतिकता का तकाजा है कि लोकसभा चुनाव के मैदान में उतरने से पहले विधायकों को विधानसभा की सदस्यता से इस्तीफा देना चाहिए।

झारखंड के दलों में नेताओं का टोटा
इतनी बड़ी संख्या में विधायकों को लोकसभा चुनाव का प्रत्याशी बनाये जाने के पीछे एक और कारण यह है कि झारखंड की राजनीति पिछले 23 साल में सत्ता केंद्रित हो गयी है। यानी यहां अब पार्टी संगठन नेपथ्य में चला गया है। दूसरे शब्दों में कहा जाये, तो झारखंड की पार्टियों में नेता बनाने की क्षमता खत्म हो गयी है। झारखंड बनने से पहले देखा जाता था कि पार्टी संगठन ही प्रत्याशियों, मंत्रियों और यहां तक कि मुख्यमंत्री का नाम भी तय करता था। लेकिन झारखंड बनने के बाद से यह परिपाटी खत्म हो गयी। यहां की राजनीति सत्ता के इर्द-गिर्द सिमट कर रह गयी। मंत्री और चुनावों में प्रत्याशियों के चयन में संगठन की कोई भूमिका नहीं रह गयी। पार्टी का हर फैसला सत्ता पर बैठा नेता ही करने लगा। इसका परिणाम यह हुआ कि नेताओं को केवल सत्ता से मतलब रहने लगा। कोई भी नेता संगठन के काम को दोयम दर्जे का समझने लगा।
पार्टी संगठन के सत्ता केंद्रित होने का खामियाजा 2019 में भाजपा को भुगतना भी पड़ा, जब विधानसभा चुनाव में उसे झारखंड की सत्ता से हटना पड़ा। इसका एक प्रमुख कारण पार्टी संगठन पर सत्ता की लगाम कसना था। इसके बाद कांग्रेस और झामुमो समेत दूसरे दल भी इसी बीमारी का शिकार होते गये।

झारखंड के लिए अच्छा संकेत नहीं
लोकसभा चुनावों में विधायकों को उतारने का फैसला भले ही राजनीतिक दलों के लिए फायदेमंद साबित हो, लेकिन यह झारखंड की सियासी सेहत के लिए अच्छा संकेत नहीं है। राजनीतिक नेतृत्व को हमेशा बदलाव की धार से गुजरते रहना चाहिए, अन्यथा यह ठहर कर बदबूदार हो सकता है। यही खतरा इस समय भी मंडरा रहा है।

मनीष जयसवाल (हजारीबाग-भाजपा)
ढुल्लू महतो (धनबाद-भाजपा)
सीता सोरेन (दुमका-भाजपा)
मथुरा महतो (गिरिडीह-झामुमो)
नलिन सोरेन (दुमका-झामुमो)
जोबा मांझी (सिंहभूम-झामुमो)
जयप्रकाश भाई पटेल (हजारीबाग-कांग्रेस)
विनोद कुमार सिंह (कोडरमा-भाकपा माले)

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