विशेष
तीन महीने में चुनावी राज्य की तीसरी यात्रा से लालू-तेजस्वी भी भौंचक
कांग्रेस की संगठनात्मक स्थिति को सुधारने में ही निकल जायेगा समय
प्रदेश अध्यक्ष को बदल देने भर से पार्टी की स्थिति में सुधार संभव नहीं

नमस्कार। आजाद सिपाही विशेष में आपका स्वागत है। मैं हूं राकेश सिंह।
कांग्रेस नेता राहुल गांधी का एक और बिहार दौरा खत्म हो गया है। पिछले तीन महीने में उनका यह तीसरा बिहार दौरा था। इस बार वह बेगूसराय भी गये, जहां उन्होंने करीब एक किलोमीटर की पदयात्रा में बिहार की सियासी जमीन को नापने की कोशिश की। तीसरी बार बिहार आये राहुल गांधी इस बार फिर बहस का एक मुद्दा दे गये। उन्होंने राजद के साथ मिल कर चुनाव लड़ने की बात तो की, लेकिन दलितों, पिछड़ों और अल्पसंख्यकों के साथ ओबीसी-इबीसी की बात कर राजद को बता गये कि कांग्रेस को पिछलग्गू समझने की भूल न करें। राहुल ने कहा कि दलित, ओबीसी और इबीसी के लोग अब तक हाशिये पर रहे हैं। प्रदेश को सवर्ण ही लीड करते रहे हैं। वह कांग्रेस का चेहरा अब हाशिये के लोगों को ऊपर लाकर बदलेंगे। राजेश कुमार को प्रदेश अध्यक्ष बना कर इसकी शुरूआत भी हो चुकी है। वैसे यह पहली बार नहीं है, जब राहुल ने लालू-तेजस्वी के सियासी आधार में सेंधमारी की कोशिश की है। राहुल गांधी ने कांग्रेस के लिए जो सियासी जमीन तैयार करने की कोशिश शुरू की है, उसके परिणाम चाहे कुछ भी हों, लालू-तेजस्वी के लिए यह टेंशन पैदा करनेवाला तो है ही। दूसरी तरफ राहुल गांधी के सामने दूसरी चुनौती पहले बेगूसराय और फिर पटना में कांग्रेसियों के बीच जिस तरह की धींगामुश्ती हुई, उसे दूर कर पार्टी को एकजुट करने की है। बिहार कांग्रेस की अंदरूनी स्थिति ठीक नहीं है और खुद राहुल गांधी को भी यह बात पता ही होगी। आखिर राहुल गांधी की ताबड़तोड़ बिहार यात्रा के क्या हैं सियासी मायने और क्या हो सकता है इसका असर, बता रहे हैं आजाद सिपाही के विशेष संवाददाता राकेश सिंह।

लोकसभा में नेता प्रतिपक्ष और कांग्रेस नेता राहुल गांधी सोमवार को बिहार में थे। उनके तीन कार्यक्रम निर्धारित थे। उन्हें एनएसयूआइ के बैनर तले कन्हैया कुमार की नौकरी दो, पलायन रोको यात्रा में शामिल होना था। इसलिए पटना एयरपोर्ट से सीधे वह बेगूसराय के लिए निकल गये। कन्हैया की यात्रा बेगूसराय पहुंची थी। पटना लौट कर राहुल गांधी संविधान बचाने को लेकर आयोजित एक कार्यक्रम में शामिल हुए। फिर पार्टी के प्रदेश कार्यालय सदाकत आश्रम में उन्होंने कांग्रेस के नेताओं-कार्यकर्ताओं को संबोधित किया। तीन महीने में तीसरी बार पटना पहुंचे राहुल ने कुछ ऐसी बातें कह दी, जो कांग्रेस की कभी लाइन नहीं रही।

राहुल ने कांग्रेस की गलतियां स्वीकारीं
राहुल का कहना था कि कांग्रेस अभी तक बिहार में गलतियां करती रही है। अब नहीं करेगी। उन्होंने इस परिमार्जन को उदाहरण के साथ समझाया। उन्होंने कहा कि पहले कांग्रेस के दो तिहाई अध्यक्ष सवर्ण होते थे। दलित और पिछड़ी जातियों के एक तिहाई लोगों को ही यह मौका मिलता था। अब स्थिति पलट गयी है। दलित और ओबीसी-इबीसी के दो तिहाई लोग अब जिला से प्रदेश स्तर तक अध्यक्ष हैं। उनकी बातों से इतना तो स्पष्ट हो ही गया है कि अब कांग्रेस की राजनीतिक लाइन क्या होगी। हालांकि कांग्रेस ने कभी इस तरह की विभाजनकारी राजनीति को प्रश्रय नहीं दिया है। लेकिन लगता है कि राहुल गांधी ने वक्त से सीख ली है।

दलित अध्यक्ष कांग्रेस का भूल सुधार
राहुल को अब जाकर यह महसूस हुआ है कि बिहार में कांग्रेस से चूक हुई है। दलित जाति से आने वाले राजेश कुमार को प्रदेश अध्यक्ष बना कर कांग्रेस ने गलती सुधारने का अभियान छेड़ दिया है। प्रदेश अध्यक्ष ने जिला कमेटियों में दलित, ओबीसी और इबीसी से आने वाले लोगों को पहली बार इस तरह का मौका दिया है। हालांकि ऐसा कहते समय राहुल यह भूल गये कि बिहार की राजनीति में 1990 के कुछ पहले से ही इस तरह की राजनीति होती रही है। कर्पूरी ठाकुर बिहार के सीएम रहे, जो पिछड़ी जाति से थे। रामसुंदर दास तो दलित समाज से ही सीएम बने थे। लालू यादव, राबड़ी देवी और नीतीश कुमार भी ओबीसी से ही आते हैं, जिनके हाथ में बीते 35 साल से बिहार की सत्ता है। जीतन राम मांझी तो महादलित हैं, जबकि अब्दुल गफूर अल्पसंख्यक समुदाय से थे।

कांग्रेस सवर्णों को दोयम दर्जे में रखेगी
सवर्ण जातियों को अध्यक्ष बनाने को कांग्रेस की गलती बताने वाले राहुल ऐसा कहते समय यह भी भूल गये कि उनके खासमखास कन्हैया कुमार तो सवर्णों में शुमार भूमिहार जाति से आते हैं। उनकी अगवानी करने एयरपोर्ट पहुंचे पार्टी के पूर्व प्रदेश अध्यक्ष अखिलेश प्रसाद सिंह भी भूमिहार बिरादरी के ही हैं। राहुल को शायद ऐसा लगता होगा कि सवर्ण तो भाजपा के साथ चले गये हैं। इसलिए अब उनसे कोई उम्मीद नहीं। पर बिहार में कांग्रेस के जिन कुछ नेताओं ने अब तक जिंदा रखा है, उनमें मदन मोहन झा और अखिलेश प्रसाद सिंह जैसे भी नेता हैं।

हर बार तेजस्वी की टेंशन बढ़ा जाते हैं राहुल
राहुल ने पिछली दो यात्राओं में बिहार के जाति सर्वेक्षण को फर्जी बता कर तेजस्वी यादव की मुश्किलें बढ़ा दी थीं। तेजस्वी इसे अपनी उपलब्धि बताते रहे हैं। इस बार कांग्रेस को नया रूप देने के लिए उन्होंने दलित-पिछड़ों पर दांव लगाया। यानी वे भी उसी राह चलने की बात कह गये, जिस पर जातीय आधार पर बनीं क्षेत्रीय पार्टियां पहले से चल रही हैं। राजद पार्टी आज भी यादव जाति की राजनीति करती है। नीतीश कुमार लव-कुश समीकरण के नेता माने जाते हैं। चिराग पासवान और जीतन राम मांझी की पार्टियां भी जाति की ही राजनीति करती हैं। इनमें तीन तो अभी एनडीए के साथ हैं, इसलिए जातीय आधार पर वोट पाने की राहुल की कोशिश समझ में आती है। पर राजद और वीआइपी का क्या होगा? ये पार्टियां तो उन्हीं जातियों की राजनीति करने वाली पार्टियां हैं, जिनके वोट झटकने के लिए राहुल कांग्रेस को पुनर्जीवित करना चाहते हैं। ऐसे में उन्हें कैसा लगेगा राहुल गांधी का यह प्रयास, यह बड़ा सवाल है।

राहुल गांधी की बिहार एक्सप्रेस
बिहार में अपने अस्तित्व को बचाने और बढ़ाने के लिए जूझ रही कांग्रेस के लिए बिहार विधानसभा का चुनाव बेहद महत्वपूर्ण है। पिछले तीन दशकों से कांग्रेस लालू प्रसाद यादव के साये में रहते हुए बिहार की राजनीति करती आ रही है, लेकिन इस बार कांग्रेस पहली बार यह प्रयास कर रही है कि उसका संगठन मजबूत हो। यही कारण है कि कृष्णा अल्लावारु जैसे युवा नेता को बिहार का प्रभारी बनाया गया। राजनीति के जानकार आने वाले समय में कन्हैया कुमार की बिहार कांग्रेस में अहम भूमिका देख रहे हैं।

राहुल गांधी बार-बार बिहार क्यों आ रहे
कन्हैया कुमार को आगे करना और राहुल गांधी का बार-बार बिहार आने का संदेश साफ है कि बिहार में कांग्रेस युवाओं को अब प्राथमिकता देगी और दूसरी तरफ कांग्रेस अपने संगठन को भी मजबूत करेगी, ताकि बिहार की राजनीति में फिर कांग्रेस अपने उस पुराने रंग में आ सके, जब प्रदेश की पूरी राजनीति कांग्रेस के इर्द-गिर्द घूमती थी। हाल में कांग्रेस ने जिलाध्यक्षों में जो बदलाव किये हैं, वह भी इसी कड़ी की कवायद है। यहां भी युवाओं को तरजीह दी गयी है और जातिगत समीकरण भी सेट किये गये हैं। जहां सवर्णों की हिस्सेदारी पहले से आधी कर दी गयी है, वहीं दलितों और पिछड़ों की भागीदारी बढ़ायी गयी है।

जाहिर है, बिहार को लेकर राहुल की यह सक्रियता कहीं न कहीं राजद को बेचैन कर रही है। शायद इसीलिए पटना आकर भी राहुल गांधी ने तेजस्वी यादव से मिलने की कोशिश नहीं की। राहुल गांधी की तरफ से रिश्तों में यह ठंडापन बिहार विधानसभा के आसन्न चुनाव में नया समीकरण बना दे, तो किसी को आश्चर्य नहीं होना चाहिए।

 

 

 

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