झारखंड की राजनीति में गुरुवार को नये अध्याय की शुरूआत हुई। यह कई मायनोें में सकारात्मक है, तो इसका नकारात्मक स्वरूप भी देखा जा सकता है। पिछले डेढ़ साल से राज्य की सत्ता में झामुमो की सहयोगी कांग्रेस के डेढ़ दर्जन विधायकों ने औपचारिक बैठक कर अपनी पीड़ा का इजहार किया। राज्य कैबिनेट में शामिल चार कांग्रेसी विधायकों को छोड़ अन्य सभी 14 ने साफ तौर पर कहा कि राज्य के अधिकारी उनकी बात नहीं सुन रहे हैं। आइएएस-आइपीएस अधिकारी तो दूर, जूनियर अधिकारी, बीडीओ-सीओ और थानेदार तक उनकी बात नहीं सुनते। इसका उनके राजनीतिक भविष्य पर गंभीर असर पड़ रहा है। कांग्रेसी विधायकों ने अपनी पीड़ा का इजहार करने के लिए जो मंच चुना, वह एक अनुशासित संगठन के दायरे में था और यही इस पूरे अध्याय का सकारात्मक पहलू है। वैसे विघ्नसंतोषी इस बैठक को राज्य की गठबंधन सरकार पर दबाव बनाने और पार्टी के भीतर बगावत की संभावनाओं की शुरूआत बता रहे हैं, लेकिन बैठक के औचित्य और विधायकों की एकजुटता साफ कर देती है कि राज्य में गठबंधन सरकार के भविष्य को लेकर कोई आशंका नहीं है। विधायकों ने इस सरकार के कामकाज पर आम तौर पर संतोष जताया और कोरोना काल में किये गये काम की सराहना भी की। झारखंड कांग्रेस के लिए यह पहली बार हुआ है कि सभी विधायक अपनी पार्टी के मंच पर अपनी बात रखने के लिए सामने आये। निश्चित तौर पर इसका राज्य की राजनीति पर सकारात्मक असर पड़ेगा और सूरत बदलेगी। कांग्रेस विधायक दल की बैठक के बाद पैदा हुई परिस्थिति का विश्लेषण करती आजाद सिपाही के विशेष संवाददाता राहुल सिंह की खास रिपोर्ट।

तारीख 24 जून। दिन गुरुवार। मौसम की आंखमिचौली के बीच रांची के कांके रोड में बने पर्यटक स्थल रॉक गार्डेन में कांग्रेस विधायक दल की बैठक आयोजित थी। बैठक में प्रदेश कांग्रेस के कई पदाधिकारी भी थे। कोरोना गाइडलाइंस के अनुरूप विधायक सोशल डिस्टेंसिंग का ध्यान रख रहे थे, लेकिन जब उनके बोलने की बारी आयी, तो उन्होंने अपना दर्द उड़ेल कर रख दिया। एक-एक कर सभी विधायकों ने यह बात दुहरायी कि राज्य में उनकी उपेक्षा की जा रही है। आइएएस-आइपीएस तो दूर, जूनियर अधिकारी, बीडीओ-सीओ और थानेदार तक उनकी बात नहीं सुन रहे हैं। इससे जनता के बीच गलत संदेश जा रहा है और इसका उनके राजनीतिक भविष्य पर गंभीर असर पड़ रहा है। विधायक यहीं नहीं रुके। उन्होंने कहा कि उनकी पीड़ा अब सार्वजनिक हो चुकी है। इसलिए विधायक दल के नेता इसे मुख्यमंत्री और गठबंधन के नेता तक पहुंचायें। विधायकों की इस शिकायत के बाद विधायक दल के नेता आलमगीर आलम ने कहा कि वह इस बारे में जरूर बात करेंगे और समस्या का समाधान होगा। बाद में सत्तारूढ़ गठबंधन का नेतृत्व कर रहे झामुमो की ओर से भी कहा गया कि विधायकों की पीड़ा उचित है और अधिकारियों को उनकी बात सुननी चाहिए।

दिसंबर 2019 में झारखंड की सत्ता में आने के बाद झारखंड कांग्रेस के विधायकों की विस्तृत रूप से यह पहली बैठक थी। इस बैठक की खास बात यह रही कि पार्टी के भीतर असंतोष और बगावत की तमाम अटकलों पर एक झटके में विराम लग गया। बैठक का एक संदेश यह भी निकला कि फिलहाल सत्ताधारी गठबंधन के भविष्य को लेकर कोई भी आशंका गलत है। बैठक में विधायकों ने जिस एकजुटता का परिचय दिया, वह गुटों और खेमों में बंटी कांग्रेस के लिए नयी चीज रही। राज्य कैबिनेट में शामिल चार मंत्री ही सामने बैठे, जबकि बाकी 14 विधायक, जिनमें बंधु तिर्की और प्रदीप यादव भी शामिल थे, एक साथ थे। सभी की एक पीड़ा, एक मांग और एक सुझाव। यह कांग्रेस के अनुशासित संगठन की तरफ लौटने का संकेत है।

पिछले कुछ दिनों से कांग्रेस को लेकर जिस तरह की आशंकाएं व्यक्त की जा रही थीं, उन सभी पर इस बैठक ने विराम तो लगा दिया है, लेकिन विधायकों द्वारा उठायी गयी बातों का निदान कैसे होगा, यह बड़ा सवाल है। विधायक दल के नेता ने अपने साथी विधायकों को इस बारे में सकारात्मक आश्वासन तो दिया है, लेकिन यह भी गौर करनेवाली बात है कि क्या वाकई स्थिति इतनी खराब है। कांग्रेस का कोई भी विधायक अब तक राज्य सरकार के किसी फैसले के खिलाफ नहीं गया है, तो यह माना जा सकता है कि ये विधायक स्थिति में सुधार चाह रहे हैं। रही बात नौकरशाही की, तो इस पर कई बार अंगुलियां उठायी जा चुकी हैं, यहां तक कि विधानसभा अध्यक्ष तक ने विधानसभा समितियों को तरजीह नहीं देने की बात कहते हुए अधिकारियों को सख्त चेतावनी भी दी है। इसलिए विधायकों की उपेक्षा नौकरशाही के लिए नयी बात नहीं है। यह भी सच है कि विधायकों की बात को महत्व अफसर नहीं देते और यदि देते हैं, तो फिर उनकी दलीय प्रतिबद्धता देख कर। इस पर तत्काल रोक लगाये जाने की जरूरत है। झामुमो महासचिव सुप्रियो भट्टाचार्य ने कहा भी है कि अधिकारियों को विधायकों द्वारा उठाये गये जनहित के मुद्दों पर ध्यान देना चाहिए, इसलिए इसे एक स्पष्ट संदेश माना जा सकता है।

झारखंड के कांग्रेस विधायक ने जो नयी परिपाटी की शुरूआत की है, उसके नकारात्मक मतलब भी निकाले जायेंगे और इसे गठबंधन के भीतर असंतोष से जोड़ा जा सकता है, लेकिन हकीकत में ऐसा कुछ नहीं है। विधायकों ने अपनी उपेक्षा की पीड़ा के साथ-साथ संगठन की कार्यशैली पर सवाल उठा कर यह संदेश दिया है कि अब सूरत बदलनी चाहिए। अधिकारियों की उपेक्षा की बात तो मुख्यमंत्री के समक्ष कांग्रेस विधायक दल के नेता आलमगीर आलम रखेंगे, लेकिन विधायकों का जो सवाल प्रदेश अध्यक्ष से था, उसे डॉ रामेश्वर उरांव को ही सुलझाना होगा। विधायकों की पीड़ा यह भी है कि संगठन के नाम पर पार्टी के चार कार्यकारी अध्यक्ष और चार जोनल को-आर्डिनेटर ही पार्टी को चला रहे हैं। प्रवक्ता भी गुटों में बंटे हैं। कई कार्यकर्ताओं ने पूरी जिंदगी पार्टी में गुजार दी, लेकिन उन्हें जगह नहीं मिल रही। ऐसे में संगठन में धार कैसे आयेगी। जाहिर है, अगर विधायकों या नेताओं की बात नहीं सुनी जायेगी, तो वे दिल्ली में आलाकमान से फरियाद करेंगे ही। अब उनके द्वारा उठाये गये मुद्दे को हल करने की जिम्मेवारी विधायक दल के नेता और कांग्रेस के प्रदेश अध्यक्ष डॉ रामेश्वर उरांव की है। इसलिए अभी तो यही देखने के लिए इंतजार करना होगा कि ये नेता इस पर क्या रुख अपनाते हैं। उधर विधायक दल के नेता आलमगीर आलम ने विधायकों की बात ऊपर तक पहुंचाने का भरोसा दिया है, तो उसमें वह कितने खरे साबित होते हैं, इसका भी इंतजार है। जाहिर है, कांग्रेस के विधायक फिलहाल तो अपने सवालों का समाधान अपने सीनियर नेताओं से चाह रहे हैं और अगर उनकी बातों को अनसुना किया गया, तो बात ऊपर तलक जायेगी।

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