विशेष
-लोकसभा चुनाव में मिला मैसेज, आदिवासी के साथ-साथ कुर्मी भी नाराज
-यह स्थिति बरकरार रही, तो भाजपा के लिए गढ़ को वापस पाना मुश्किल होगा

नमस्कार। आजाद सिपाही विशेष में आपका स्वागत है। मैं हूं राकेश सिंह।
लोकसभा चुनाव का परिणाम आने के बाद से ही झारखंड की राजनीति गरमायी हुई है। आम चुनाव के परिणामों से पता चलता है कि भाजपा को विधानसभा चुनाव में काफी मुश्किलों का सामना करना पड़ सकता है। एक तरफ चुनाव परिणामों से जहां यह स्पष्ट हुआ है कि आदिवासी मतदाताओं में बहुमत का समर्थन भाजपा के साथ नहीं रह गया है, वहीं दूसरी तरफ राज्य के कुर्मी मतदाताओं ने भी भाजपा से दूरी बनानी शुरू कर दी है। कुछ कुर्मियों को अब नया ठिकाना जयराम महतो में दिखने लगा है। इससे न सिर्फ भाजपा को नुकसान होगा, बल्कि आजसू पार्टी को भी परेशानियों का सामना करना पड़ेगा। लोकसभा चुनाव में तो जयराम महतो और उनके प्रत्याशियों ने भाजपा को कई सीटों पर बचा लिया, नहीं तो जो कुर्मियों का वोट छिटक कर जयराम महतो एंड पार्टी के पाले में गया, यानि जेबीकेएसएस में, वह इंडिया गठबंधन के पाले में चला जाता, तो भाजपा या यूं कहें एनडीए को और सीटों पर नुकसान उठाना पड़ता। जाने-अनजाने में जयराम महतो ने भाजपा के लिए खेवनहार का ही काम किया। लेकिन विधानसभा चुनावों में यह गणित फिट नहीं बैठेगा। विधानसभा में जयराम महतो एंड पार्टी भाजपा और आजसू के लिए कड़ी चुनौती पेश करेंगे। झारखंड में आदिवासियों के बाद कुर्मी-महतो दूसरा बड़ा वोटबैंक है। राज्य की आबादी में लगभग 50 प्रतिशत हिस्सेदारी इन्हीं दोनों की है। आदिवासी 27 प्रतिशत और कुर्मी 25 प्रतिशत हैं। झारखंड की 28 विधानसभा सीटों पर डायरेक्ट आदिवासियों का प्रभाव है। ये सीटें अनुसूचित जनजाति के लिए आरक्षित हैं। भाजपा के लिए तो ये 28 सीटें पहले ही संकट में है, इक्का-दुक्का आ भी गयीं, जैसा कि 2019 में इनमें दो सीटों पर भाजपा जीती थी, तो किस्मत अच्छी मान लीजिये। वैसे इस लोकसभा चुनाव में उन दोनों विधानसभा सीटों में भाजपा को करारी शिकस्त मिली है। खूंटी और तोरपा में इंडिया गठबंधन के प्रत्याशी कालीचरण सिंह मुंडा ने बंपर लीड ली है। कालीचरण सिंह मुंडा ने एक तरफ जहां खूंटी में अपने ही भाई नीलकंठ सिंह मुंडा को गहरी शिकस्त दी है, तो तोरपा में कोचे मुंडा को पटकनी दी है। वैसे 2024 के लोकसभा चुनाव में पांचों आरक्षित सीटों पर भाजपा को हार का मुंह देखना पड़ा है। इस नतीजे के बाद कोई भी कहेगा कि आदिवासियों के लिए आरक्षित सीटों पर जीत का सपना भाजपा को नहीं पालना चाहिए। अलादीन के चिराग से जिन्न निकल कर कोई कमाल कर दे, तभी कुछ मुमकिन है। खैर यह तो रही आदिवासियों के प्रभाव वाली सीटों की बात, अब तो जले पर नमक छिड़कने के लिए कुर्मी मतदाता भी तैयार हैं। कुर्मियों की एक खासियत होती है। कुर्मी अगर ठान लें, तो उन्हें उनका नेता भी बरगला नहीं सकता। वे एक बार जो मन बना लेते हैं, फिर वे अपनी भी नहीं सुनते। उदाहरण के तौर पर, आजसू पार्टी के मुखिया और झारखंड में एक वक्त कुर्मियों के सबसे बड़े नेता सुदेश महतो 2014 में जब सिल्ली विधानसभा का चुनाव हार गये थे, तब ऐसा नहीं था कि उनके सामने कोई मजबूत प्रत्याशी था। वह हारे, क्योंकि उस बार कुर्मियों ने ठान लिया था कि इस बार उन्हें झटका देना है। यहां तक कि 2018 में हुए सिल्ली उपचुनाव में भी सुदेश महतो, सीमा महतो से हार गये। जिस महिला को राजनीति का ककहरा भी नहीं आता था, उसने सुदेश जैसे महारथी को हरा दिया। वहीं 2019 में सुदेश महतो फिर चुनाव जीतने में सफल रहे। उस वक्त कुर्मियों का कहना था कि उनसे गलती हो गयी कि वे अमित महतो और उनकी पत्नी सीमा महतो पर भरोसा कर बैठे। यानि कुर्मी किसी पर भरोसा भी जल्दी करता है और छिटकता भी तुरंत है। सिर पर भी तुरंत बिठाता है, तो पटकता भी तुरंत है। यानी एक बार अगर कुर्मियों को ठेस पहुंची, तो वे झटका देने में भी वक्त नहीं लगाते। अर्जुन मुंडा तो इसका सबसे बड़ा प्रमाण हैं। कुर्मी वोटरों ने लोकसभा चुनाव में अर्जुन मुंडा को सिरे से खारिज कर दिया। यानी बदला भी ऐसा लिया कि अर्जुन मुंडा के राजनीतिक भविष्य पर संकट गहराया हुआ है। हालांकि इस चुनाव में भी सुदेश महतो ने अंतिम दिनों में अर्जुन मुंडा के लिए पसीना बहाया था, उन्होंने कुर्मियों को मनाने की बहुत जुगत लगायी, लेकिन अंतत: कुर्मी उनकी बात भी नहीं माने। राज्य में 81 में से 35 विधानसभा क्षेत्रों में कुर्मियों का प्रभाव है। कहीं कम कहीं ज्यादा, लेकिन जीत-हार में निर्णायक भूमिका रहती है। अब अगर आदिवासियों के साथ-साथ कुर्मी भी भाजपा से छिटका, तो झारखंड में भाजपा का भविष्य क्या होगा, समझा जा सकता है। और तो और, अब तो सवर्ण यानी राजपूत, ब्राह्मण और कायस्थ भी अलग ही आग उगल रहे हैं। जाहिर है, अगर विधानसभा चुनाव से पूर्व भाजपा ने झारखंड में इन्हें अपने पाले में लाने की रणनीति नहीं बनायी, तो परिणाम कुछ भी हो सकता है। लोकसभा चुनाव के परिणामों के बाद विधानसभा चुनाव के परिप्रेक्ष्य में क्या है झारखंड में भाजपा की मौजूदा स्थिति, आकलन कर रहे हैं आजाद सिपाही के विशेष संवादताता राकेश सिंह।

झारखंड में लोकसभा चुनाव के परिणामों के बाद थोड़ी शांति है। जो जीते हैं, वे जीत का आनंद ले रहे हैं, और जो हारे हैं, दिख नहीं रहे हैं। दलों के नेता और चुनाव प्रबंधक हर दिन समीक्षा कर रहे हैं। इस चुनाव के दौरान बहुत कुछ देखने को मिला। कैसे कोई जीती हुई बाजी हार जाता है और हारी हुई बाजी जीत जाता है, जिसका फायदा कोई दूसरा या तीसरा उठा जाता है, यह इस चुनाव के दौरान देखने को मिला। अति आत्मविश्वास, घमंड, बेतुकी बयानबाजी, पाला बदलने से लेकर भितरघात, मतदाताओं में किसी के लिए नाराजगी तो किसी के लिए प्रेम, कार्यकर्ताओं में किसी प्रत्याशी को लेकर रोष, तो कहीं अपने नेता को जेल से निकालने का जुनून, कहीं नये चेहरों का उभार, तो कहीं मठाधीशों की खिसकती जमीन, क्या कुछ नहीं मिला देखने को इस चुनाव के दौरान। दरअसल, इस चुनाव ने राजनीतिक पार्टियों को आइना दिखा दिया है। धुंधली पड़ी तस्वीर को साफ कर दिया है। इस साफ होती तस्वीर में एक तरफ जेएमएम और कांग्रेस को उम्मीद की रोशनी दिखाई पड़ रही है, वहीं भाजपा के लिए कठिन चुनौती का दौर है। इस लोकसभा के चुनाव परिणामों ने भाजपा के लिए तस्वीर साफ कर दी है कि झारखंड में विधानसभा के परिप्रेक्ष्य में उसकी मौजूदा स्थिति क्या है। आदिवासियों ने यह संदेश दे दिया है कि वे भाजपा से नाराज हैं। रही-सही कसर कुर्मियों ने निकाल दी है। और थोड़ी बहुत जो आस दिख रही है, उस पर धुंध डालने के लिए झारखंड की राजनीति की मौजूदा सनसनी जयराम महतो निकाल देंगे।

कुर्मी की नाराजगी दूर नहीं हुई, तो एक दर्जन सीटों पर सीधा नुकसान
झारखंड में आदिवासी मतदाताओं की नाराजगी भाजपा पर भारी पड़ गयी। लोकसभा की पांच आदिवासी बहुल सीटों पर से भाजपा का सूपड़ा साफ हो गया। यही हाल भाजपा का 2019 के विधानसभा चुनाव के दौरान भी देखने को मिला था, जहां आदिवासी आरक्षित सीटों पर भाजपा 28 में से 26 सीटें गवां बैठी थी। यानी 2024 के विधानसभा चुनाव में 28 सीटों पर संकट अभी से है। वहीं राज्य की 14 में से छह लोकसभा सीटों पर कुर्मी वोटरों का मत प्रभावी होता रहा है। इस लोकसभा चुनाव के दौरान भी यही देखने को मिला। इनमें रांची, खूंटी, जमशेदपुर, हजारीबाग, धनबाद और गिरिडीह शामिल हैं। हजारीबाग में कुरमी वोटरों की संख्या 15 प्रतिशत, रांची में 17, धनबाद में 14, जमशेदपुर में 11 और गिरिडीह में 19 प्रतिशत है। खूंटी में भी कुर्मियों की संख्या निर्णायक है। इस तरह से सूबे के 81 में से 35 विधानसभा क्षेत्रों पर इनका प्रभाव है, जो जीत-हार में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। यानी एक दर्जन सीट पर डायरेक्ट प्रभाव तो कुरमी डालते ही हैं। एक तरफ तो आदिवासी पहले ही नाराज है, वहीं अब कुर्मी भी नाराजगी जाहिर कर रहे है, तो भाजपा के पास क्या विकल्प है। भाजपा के पास 40-42 सीटें ही ऐसी हैं, जहां वह डायरेक्ट फाइट में रह सकती है। कुर्मियों के बिदकने का सबसे बड़ा कारण रहा उनको एसटी में न शामिल होना। एक बार तो कुर्मी समाज यह भी भूल जाता, लेकिन अर्जुन मुंडा का जो स्टेटमेंट कुर्मियों को लेकर आया, उससे उनमें नाराजगी बढ़ गयी। अर्जुन मुंडा ने कुर्मी जाति को आदिवासी का दर्जा देने की मांग से संबंधित सवाल पूछे जाने पर कहा था कि फिलहाल केंद्र के पास कुर्मी को आदिवासी का दर्जा देने का कोई मामला लंबित नहीं है, क्योंकि राज्य सरकार ने यह कहते हुए पत्र वापस ले लिया है कि इस पर विचार करने की आवश्यकता नहीं है। लेकिन अगर यही अर्जुन मुंडा डायरेक्ट यह स्टेटमेंट नहीं देकर कुर्मियों को कुछ होप दे देते, तो शायद कुर्मियों को उम्मीद तो रहती कि आगे शायद उनकी मांग पूरी हो सके। अर्जुन मुंडा की हार कोई सामान्य घटना नहीं है। यह झारखंड की राजनीति के लिए बहुत बड़ा मैसेज है। मैसेज है कि आपको जिस जनता ने चुना है, उसे आप अपनाइये। उसके पास जाइये। सिर्फ चुनाव के दौरान हाथ जोड़ कर वोट मत मांगिये। अपने मतदाताओं के लिए कुछ करने का समय आये, तो उससे हाथ पीछे नहीं खींचिये।

आजसू को मंत्रिपद नहीं मिलना परेशानी पैदा करेगी
विधानसभा चुनाव में कुर्मियों का एक बहुत बड़ा वर्ग भाजपा से फिर छिटकनेवाला है। भाजपा के दो सांसदों अन्नपूर्णा देवी को कैबिनेट मंत्री और संजय सेठ को राज्यमंत्री के रूप में मोदी 3.0 में जगह दी गयी। लोगों को उम्मीद थी कि एक बर्थ एनडीए की सहयोगी आजसू को भी मिलेगी, क्योंकि आजसू कई चुनावों से एनडीए के साथ है। लेकिन मंत्रिमंडल विस्तार में उसकी अनदेखी कर दी गयी, जबकि बिहार में एक सीट जीतने वाले जीतनराम मांझी को केंद्रीय मंत्री बनाया गया। इस फैसले से आजसू के समर्थक-कार्यकर्ता अंदर ही अंदर उबले हुए हैं। आजसू इसे कैसे लेता है, यह तो आनेवाला वक्त बतायेगा, फिलहाल भाजपा और आजसू में अब थोड़ी दूरी साफ महसूस की जा सकती है। हो सकता है यह गलत हो, लेकिन मार्केट में हल्ला अभी से शुरू हो गया है। मार्केट में तो जयराम महतो को लेकर भी तरह-तरह के कयास लगाये जा रहे हैं। एक तरफ आजसू है, तो दूसरी तरफ जयराम महतो खड़े हैं। फिलहाल लोकसभा चुनाव में जयराम महतो और उनके साथियों का जो परफॉरमेंस रहा, उससे तो स्पष्ट है कि 2024 का विधानसभा चुनाव भाजपा और आजसू दोनों के लिए चुनौतियों भरा रहेगा। जेएमएम और कांग्रेस तो निश्चिंत हैं। दोनों का परफॉरमेंस इस लोकसभा चुनाव में पिछली बार की तुलना में बेहतर रहा, खासकर जेएमएम का।
यहां एक और बात गौर करने वाली है। इस लोकसभा चुनाव ने यह भी साबित कर दिया कि सवर्ण मतदाता राजपूत, ब्राह्मण, भूमिहार और कायस्थ भी भाजपा से छिटक चुके हैं। इसका प्रभाव 2019 के विधानसभा में भाजपा देख चुकी है। याद ही होगा सरयू राय और रघुवर दास का प्रकरण। जब 2019 के विधानसभा चुनाव में भाजपा ने सरयू राय का टिकट काटा, तो राजपूत समाज बिदक गया था। सरयू राय निर्दलीय मैदान में कूद पड़े और सीटिंग मुख्यमंत्री रघुवर दास को हरा दिया। उस बार सरयू का टिकट काटने का प्रभाव चार सीटों पर देखने को मिला था। जमशेदपुर पूर्वी, जमशेदपुर पश्चिमी, गढ़वा और बरही।

घर की मुर्गी दाल बराबर
झारखंड भाजपा को इस बार जातीय समीकरण के साथ-साथ केंद्र का भी भरपूर सहयोग चाहिए होगा। भाजपा इन दिनों अजीब नीति को अपना रही है। अपने लोगों को वह घर की मुर्गी दाल बराबर समझ बैठी है। इसे इस तरह समझिये। समझ लीजिए, आपका एक परमानेंट ग्राहक आपसे सामन लेने के लिए पैसा लेकर खड़ा है और आप उस ग्राहक को दरकिनार कर नये ग्राहक को आकर्षित करने में लगे हैं, तो नुकसान किसका होगा। नया ग्राहक आयेगा या नहीं आयेगा, लेकिन परमानेंट वाला तो चला जायेगा। यही हाल भाजपा का देश भर में हुआ। जो भाजपा के कोर वोटर थे, उन्हें भाजपा ने पूछा नहीं और चल दिये पड़ोसी की दुकान से ग्राहक खींचने। टिकट देने में भी यह देखने को मिला।

भितरघात से सावधान रहने की जरूरत
खैर विधानसभा चुनाव को लेकर झारखंड भाजपा कितनी सीरियस है, इसका तो पता नहीं, लेकिन अभी कुछ नेता सुस्ता रहे हैं, कुछ बैठकें कर रहे हैं। कुछ दिल्ली गये हैं नये मंत्रियों को शुभकामनाएं देने, तो कुछ छुट्टी वाले मोड में हैं। लेकिन इन सब चीजों से जब भाजपा फ्री हो जाये, तो सबसे पहले उसके सभी छोटे-बड़े नेताओं को कार्यकर्ताओं के दरवाजे जाना चाहिए, उन्हें धन्यवाद देने। जिन्होंने दिन रात खुद को झोंक दिया। क्या पाया यह तो पता नहीं, लेकिन खोया बहुत कुछ होगा। जीत की बधाई प्रत्याशी से पहले कार्यकर्ताओं को मिलनी चाहिए, जिन्होंने अपने प्रत्याशी को जिताने के लिए दिन-रात एक कर दिया। वहीं भितरघात करने वालों की भी सूची बननी चाहिए, जिससे भविष्य में उनसे सतर्क रहा जा सके। 14 में आठ सीट भाजपा और एक सीट सहयोगी आजसू को, कोई खराब परफॉरमेंस नहीं है। हर बार 90 प्रतिशत रिजल्ट नहीं हो सकता, लेकिन कैसे फिर से 90 प्रतिशत रिजल्ट आये, उस पर तो फिर से काम किया जा सकता है। फिलहाल भाजपा की राह विधानसभा को लेकर कठिन दिखाई पड़ रही है।

 

 

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