गठबंधन टूटने के बाद भी एक-दूसरे के खिलाफ बोलने से बच रही भाजपा और आजसू

बशीर बद्र का शेर है कि दुश्मनी जम कर करो, लेकिन ये गुंजाइश रहे जब कभी हम दोस्त बन जायें तो शर्मिंदा न हों। ये शेर झारखंड की राजनीति में भाजपा और आजसू के गठबंधन पर आधा-अधूरा ही सही, पर फिट बैठता है। और इसका कारण यह है कि दोनों दलों में गठबंधन भले ही टूट गया हो पर उनके बीच जाती दुश्मनी जैसी कोई चीज नहीं है। जो इन दोनों दलों की कहानी बारीकी से जानते और समझते हैं, वे अच्छी तरह समझते हैं कि दोनों दल एक-दूसरे को हराने के लिए नहीं, बल्कि अपनी-अपनी सीटें बढ़ाने के लिए चुनाव के मैदान में हैं और दोनों के बीच पोस्ट पोल एलायंस की संभावनाएं बरकरार है। यह दोनों दलों के बीच की स्वस्थ राजनीति का ही परिणाम है कि दोनों दलों ने एक-दूसरे के मुखियाओं के खिलाफ प्रत्याशी नहीं दिये हैं। आजसू ने जहां जमशेदपुर पूर्वी में रघुवर दास के खिलाफ प्रत्याशी नहीं उतारा है, वहीं भाजपा ने भी सिल्ली में सुदेश महतो के खिलाफ प्रत्याशी उतारने की गलती नहीं की है। हालांकि सुदेश महतो यह साफ तौर पर कह चुके हैं कि भाजपा चाहे तो सिल्ली में उम्मीदवार दे सकती है।

एक-दूसरे को हराने नहीं सीटें बढ़ाने के लिए लड़ रहे दोनों दल
भाजपा और आजसू झारखंड में एक-दूसरे को हराने के लिए नहीं बल्कि सीटें बढ़ाने के लिए लड़ रहे हैं। यह स्वस्थ राजनीति का परिचायक भी है। दरअसल, भाजपा और आजसू झारखंड की राजनीति में उस मुकाम पर पहुंच गये हैं, जहां दोनों दलों के पास अपना जनाधार और सीटें बढ़ाने की मजबूरी है। बीते चुनाव में अपने दम पर 37 सीटें जीतनेवाली भाजपा इस बार 65 प्लस का लक्ष्य लेकर चुनाव के मैदान में है। वहीं आजसू 40 सीटों पर उम्मीदवार उतार चुकी है। आजसू जब भाजपा के साथ गठबंधन में पूर्व में नहीं थी तो वह 54 सीटों पर उम्मीदवार उतार चुकी थी। यदि आजसू 17 सीटों से कम पर भाजपा के साथ गठबंधन स्वीकार कर लेती तो पार्टी के समक्ष टूट का खतरा पैदा हो जाता। चंदनक्यारी से उमाकांत रजक बगावत कर बैठते क्योंकि क्षेत्र में उन्होंने कड़ी मेहनत की थी और अकील अख्तर जैसे जो नेता अब आजसू के साथ हैं वो आजसू के साथ न रहकर झाविमो के साथ चले जाते। वहीं आज जो राधाकृष्ण किशोर आजसू के साथ हैं वे और किसी दल का दामन थाम सकते थे। इससे नुकसान भाजपा को ही होता। वहीं भाजपा के साथ दिक्कत यह है कि वह 65 प्लस सीटों का जो मेगा लक्ष्य लेकर चल रही है उसमें किसी दूसरे दल के लिए बहुत गुंजाइश बचती नहीं है। क्योंकि झारखंड विधानसभा में कुल 81 सीटें हैं और 65 सीटें घटाने के बाद 16 से भी कम सीटें बचती हैं जो आजसू की मिनिमम रिक्वायरमेंट से भी कम है। ऐसे में दोनों दलों के पास बस यही रास्ता बचता था कि वे दोनों चुनाव की राह पर एक मोड़ पे अलग हो जायें और इस संभावना के साथ अलग हों कि बाद में दोनों आसानी से साथ आ सकें और एक-दूसरे को गले लगा सकें।

इसलिए टूटा दोनों दलों के बीच गठबंधन
भाजपा और आजसू के बीच सीटों के बंटवारे पर मुख्यत: जिच लोहरदगा और चंदनक्यारी सीट पर थी। आजसू के पास लोहरदगा सीट पर कमल किशोर भगत की पत्नी नीरू शांति भगत को उतारना मजबूरी बन चुकी थी, वहीं कांग्रेस छोड़कर सुखदेव भगत इसी शर्त पर भाजपा में आये थे कि पार्टी उन्हें लोहरदगा सीट से उम्मीदवार बनायेगी। सुखदेव भगत लोहरदगा से सीटिंग विधायक होने के साथ झारखंड में आदिवासी समुदाय का एक बड़ा चेहरा हैं और उन्हें दरकिनार करना भाजपा के लिए मुश्किल ही नहीं असंभव हो गया था। भाजपा आजसू को अधिकतम दस से बारह सीटों पर रोकना चाहती थी और कई दौर की बातचीत के बाद भी भाजपा अधिकतम 13 सीटें आजसू को देने को तैयार हुई, जबकि आजसू हर हालत में 17 से अधिक सीटोें पर चुनाव लड़ने की न सिर्फ तैयारी कर चुकी थी बल्कि इन सीटों पर उम्मीदवार उतारने के लिए उसके पास मजबूत तर्क भी थे। इन परिस्थितियों में यह साफ हो गया था कि दोनों दलों के बीच गठबंधन की पुरानी जमीन नयी परिस्थितियों में खिसक चुकी थी और दोनों के बीच अब भविष्य की राह ही बच गयी थी और वह भविष्य की राह पोस्ट पोल एलायंस है।

भविष्य की राह क्या है
भाजपा और आजसू अब जिस मुकाम पर पहुंच चुके हैं, वहां उनके बीच भविष्य की राह में पोस्ट पोल एलायंस का विकल्प बचा है। भाजपा यह अच्छी तरह जानती है कि वर्तमान में झारखंड में जो राजनीतिक परिस्थितियां निर्मित हुई हैं उसमें उसके लिए अकेले अपने दम पर मजबूत सरकार बनाने के लिए सीटें जुटाना आसान काम नहीं है। पर भाजपा हर कीमत पर झारखंड में सरकार बनाना चाहेगी। भाजपा और आजसू की राजनीति में बुनियादी फर्क यह है कि भाजपा परिस्थितियां प्रतिकूल होने पर झारखंड में सरकार बनाने के लिए झामुमो के साथ भी समझौता कर सकती है, पर किसी भी हाल में आजसू के लिए झामुमो से सटना मुश्किल है। वहीं आजसू भी हर हालत में सत्ता में साझीदार बनी रहना चाहती है क्योंकि पार्टी चलाने के लिए आवश्यक ऊर्जा उसे सत्ता के साथ रहकर ही मिल सकती है। झारखंड में आजसू जितनी तेजी से विस्तार कर रही है उतनी ही तेजी से उसे संसाधनों की जरुरत भी महसूस हो रही है। आजसू की राजनीति पर पैनी नजर रखनेवाले राजनीतिक विश्लेषकों का कहना है कि आजसू जब से झारखंड बना है तब से सत्ता में साझीदार रही है और सत्ता का इस्तेमाल पार्टी ने खुद को मजबूत बनाने के लिए बखूबी किया है। आजसू सुप्रीमो सुदेश महतो युवा राजनीतिज्ञ होने के साथ स्मार्ट राजनेता रहे हैं और यह उनकी राजनीतिक दक्षता का ही परिचायक है कि उन्होंने झारखंड में डिप्टी सीएम बनने तक का सफर बड़ी आसानी से अन्य नेताओं की तुलना में कम उम्र मेें ही हासिल किया है। उनकी पार्टी सत्ता में रहने के बाद भी बेदाग रही है और आजसू सुप्रीमो पर भ्रष्टाचार का एक भी आरोप नहीं है। इससे साफ है कि बिना किसी सुनियोजित रणनीति के इस मुकाम तक पहुंचना संभव नहीं था। जाहिर है कि भाजपा और आजसू दोनों ही इस जरुरत को महसूसते हैं कि दोनों के बीच संबंध बने रहने की जरुरत है। इसलिए रिश्ते में हल्की खटास आने के बाद भी दोनों दुश्मनी के स्तर पर नहीं आयेंगे और यही दोनों दलों के हित में भी है।

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