झारखंड में एक और उलगुलान हो गया है। राज्य में पांचवीं विधानसभा के लिए हुए चुनाव के नतीजे परिवर्तनकारी, स्तब्धकारी और क्रांतिकारी हैं। इस नतीजे ने एक तरफ जहां डबल इंजन की सरकार के सपने को चकनाचूर कर दिया है, वहीं कुछ खास फैसलों और एकतरफा निर्णय से उत्पन्न हुए आक्रोश को एक एक नया और संबल प्रदान किया है। यह नतीजा कहीं न कहीं जनविरोधी फैसलों और बड़बोलेपन की पराजय की मुनादी हैं।
ठीक पांच साल पहले जब झारखंड की जनता ने भाजपा के हाथों में सत्ता की कमान सौंपी थी, तब यह उम्मीद थी कि वह सबको साथ लेकर चलेगी, जनाकांक्षाओं का सम्मान करेगी और एक ऐसी समदर्शी सरकार देगी, जहां हर किसी की आवाज सुनी जायेगी। लेकिन हुआ इसके विपरीत। इन पांच सालों में सरकारी तंत्र इतना बेलगाम हो गया कि उसने हक की आवाजों को लाठी-गोली से दबाने-कुचलने की कोशिश की। आंदोलित किसानों, पारा शिक्षकों, आंगनबाड़ी की दीदियों, छात्रों और बेरोजगार युवाओं को सड़कों पर पुलिस के हाथों लहूलुहान होना पड़ा। याद कीजिए, राजधानी रांची के मोरहाबादी में हुकूमत जब राज्य के स्थापना दिवस का जश्न मना रही थी, तब वाजिब मांग को लेकर आवाज उठानेवाले पारा शिक्षकों पर पुलिस ने किस बर्बरता के साथ लाठियां बरसायीं थीं। याद कीजिए, स्कूलों में बच्चों के लिए खाना पकानेवाली आंगनबाड़ी की दीदियों ने मानदेय में मामूली बढ़ोत्तरी के लिए जब जुलूस निकाला, तो पुलिस ने किस तरह निरीह महिलाओं को बेरहमी से पीटा। बड़कागांव से लेकर गोला तक और खूंटी से लेकर गोड्डा तक आंदोलित किसानों पर जब पुलिस-प्रशासन ने गोलियां चलायीं तो उन पर कार्रवाई के बजाय किस बेशर्मी के साथ इन घटनाओं को अफसरों ने जायज ठहराने की कोशिश की। याद कीजिए कि पलामू के बकोरिया में किस तरह नक्सलवादी होने का झूठा आरोप लगाकर पुलिस ने निर्दोष ग्रामीणों को गोलियों से भून डाला और कैसे सरकारी तंत्र ने हत्यारे पुलिस अफसरों पर एक्शन के बजाय उनके पाप को ढंक दिया। याद कीजिए उन दृष्टांतों को भी, जब सदन से लेकर जनसभाओं तक में राजनीतिक प्रतिद्वंद्वियों पर व्यक्तिगत आरोप मढ़ा गया। जनता के जख्म आसानी से नहीं सूखते। सत्ताधीश अक्सर भूल जाते हैं कि जो जनता उन्हें सिर-आंखों पर बिठाती है, वह उनके एक-एक कर्म की कुंडली भी सहेज कर रखती है और वक्त आते ही सबका हिसाब भी चुकता करती है। झारखंड में जल-जंगल-जमीन का मसला हमेशा इसके जनजीवन, इसकी अस्मिता और चेतना के केंद्र में रहा है। इससे जुड़ी भावनाओं का तिरस्कार झारखंडी जनमानस को कतई स्वीकार्य नहीं है। 2014 में बनी सरकार के अफसरों ने अतिआत्मविश्वास की रौ में बहकर जल-जंगल-जमीन से जुड़ी भावनाओं को भी आहत किया।
भारतीय जनता पार्टी के केंद्रीय नेतृत्व से एक बड़ी चूक यह हुई कि पांच साल तक उसने सरकार और संगठन को एक जगह केंद्रित कर दिया। जमीनी रिपोर्ट और आम कार्यकर्ताओं की भावनाओं को सुनने-समझने के बजाय केंद्रीय नेतृत्व ने आंख मूंदकर एक ही जगह से हर तरीके के फैसले लेने की जिस तरह आजादी दे दी, वह आत्मघाती साबित हुई। वर्षों से पार्टी के लिए निष्ठा के साथ काम कर रहे कार्यकर्ताओं की भावनाओं की उपेक्षा कर बाहर से आयातित नेताओं को टिकट देने और लोकतांत्रिक तरीके से असहमति जताने वालों को जिस तरह अपमानित किया गया, उससे पार्टी के अंदर किस तरह आक्रोश की आग धधक रही थी, यह समझने में भी पार्टी ने भूल कर दी। सहयोगी दलों जदयू, आजसू और लोजपा से किनाराकशी भी भाजपा को महंगी पड़ी।
दूसरी तरफ हेमंत सोरेन ने दिल बड़ा करने का साहस दिखाया। उन्होंने कांग्रेस और राजद की दावेदारियों का सम्मान किया। उन्होंने यह बात लोकसभा चुनाव के पूर्व ही समझ ली थी कि राजनीति में दूर तलक जाना है तो दोस्ती का दायरा बड़ा करना होगा। झामुमो को उन्होंने पुरानी छवि की कैद से बाहर तो निकाला ही, पहली बार राज्य के शहरी और कस्बाई इलाकों में भी पार्टी की स्वीकार्यता बनाने में कामयाब रहे। भाजपा की ओर से किये गये व्यक्तिगत हमलों के बावजूद उन्होंने विनम्रता और धैर्य का परिचय दिया। जनता ने उन्हें इसका उचित पारितोषिक दिया है। अब हेमंत सोरेन को जनता के इस विश्वास को सहेज कर रखना है। उन्हें द्वेष या पक्षपात छोड़ झारखंड की साढ़े तीन करोड़ जनता के नेता के रूप में काम करना है। वही नेता सहज स्वीकार्य होता है, जिसमें आलोचना को सहने की क्षमता होती है और जनहित में कठोर फैसले लेने का माद्दा भी। आशा ही नहीं, पूरी उम्मीद है कि हेमंत एक अलग मिसाल कायम करेंगे।

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