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    Home»विशेष»झारखंड में फीकी क्यों पड़ गयी राजद की चमक
    विशेष

    झारखंड में फीकी क्यों पड़ गयी राजद की चमक

    shivam kumarBy shivam kumarJuly 9, 2024No Comments8 Mins Read
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    विशेष
    -अपने दम पर सात सीटें जीतनेवाली पार्टी आज पिछलग्गू बन गयी है
    -पार्टी नेतृत्व की अनदेखी और नेताओं का रवैया ही है प्रमुख कारण

    नमस्कार। आजाद सिपाही विशेष में आपका स्वागत है। मैं हूं राकेश सिंह।
    देश की राजनीति में पहली बार सोशल इंजीनियरिंग का इस्तेमाल कर करीब 15 साल तक बिहार की सत्ता पर काबिज रहनेवाले लालू प्रसाद यादव ने 5 जुलाई, 1997 को जब दिल्ली में अपनी अलग पार्टी, यानी राष्ट्रीय जनता दल की स्थापना की थी, तब किसी ने शायद ही सोचा था कि यह पार्टी भारतीय राजनीति को नयी दिशा देगी। वर्ष 2000 में बिहार विभाजन के बाद 2005 में हुए पहले विधानसभा चुनाव में लालू यादव की पार्टी बिहार की सत्ता से बाहर हो गयी, लेकिन झारखंड में इसका प्रभाव बरकरार था। लेकिन बीते दो दशक में राष्ट्रीय जनता दल ने झारखंड में जिस तेजी से अपना जनाधार खोया है, वह राजनीति के लिए शोध का विषय हो सकता है। जिस तरह बिहार की राजनीति में लालू यादव और उनकी पार्टी के उत्थान और पतन पर शोध हुए हैं, उसी तरह झारखंड में भी इस पार्टी के उत्थान और पतन के अपने कारण हो सकते हैं। दरअसल बिहार विभाजन के बाद राजद के शीर्ष नेतृत्व ने पार्टी के विस्तार पर ध्यान ही नहीं दिया। 2005 में बिहार की सत्ता से बाहर होने के बाद पार्टी वहां खुद को मजबूत बनाने में जुट गयी, लेकिन इसका परिणाम यह हुआ कि झारखंड में पार्टी सिमटने लगी। 2005 में जब झारखंड में पहली बार विधानसभा चुनाव हुआ, तो राजद ने अपने बल पर 51 सीटों पर उम्मीदवार उतारे थे और सात सीटें जीती थीं। उसी साल लोकसभा चुनाव में पलामू और चतरा सीट पर राजद ने जीत हासिल की थी। लेकिन पार्टी नेतृत्व की अनदेखी और स्थानीय नेताओं के रवैये ने आज झारखंड में राजद के अस्तित्व को ही लगभग खत्म कर दिया है। कहने को झारखंड में पार्टी का संगठन है, लेकिन चुनावों में यह पूरी तरह जेएमएम और कांग्रेस पर आश्रित हो गयी है। क्या है राजद की इस कमजोरी का कारण और क्या हो सकता है इसका निदान, बता रहे हैं आजाद सिपाही संवाददाता राकेश सिंह।

    14 नवंबर, 2000 की शाम रांची के अल्बर्ट एक्का चौक के पास तत्कालीन मुख्यमंत्री लालू प्रसाद यादव को देखने-सुनने के लिए भारी भीड़ उमड़ी थी। उस समय लालू यादव ने कहा था कि झारखंड अलग राज्य बनने से उन्हें खुशी हो रही है। झारखंड के प्रति उनकी यह टिप्पणी उनके पूर्व के स्टैंड के एकदम विपरीत थी, जब उन्होंने कहा था कि झारखंड अलग राज्य उनकी लाश पर बनेगा। और यह भी कि यदि झारखंड अलग हो गया, तो बिहार के लोग क्या बालू फांकेंगे। उस समय तक लालू भारतीय राजनीति में एक बड़ा नाम बन चुके थे और पूरे देश में उनकी अलग किस्म की लोकप्रियता थी। राजनीति में पहली बार ‘माइ’, यानी एम और वाइ (मुस्लिम और यादव) समीकरण के सहारे अपनी राजनीति को नयी ऊंचाई देने में कामयाब लालू यादव ने तब तक राष्ट्रीय जनता दल नाम से अपनी अलग पार्टी बना ली थी। आज यह पार्टी 28 वर्ष का हो गयी है और इन 28 वर्षों में बिहार में कई बार सत्ता में रहने और बिहार-झारखंड और केंद्र में सत्ता में हिस्सेदार रहने के बावजूद आज झारखंड में पूरी तरह कमजोर हो गयी है।

    05 जुलाई, 1997 को हुई थी स्थापना
    जनता दल में आपसी मतभेद और मनमुटाव के बाद लालू प्रसाद यादव ने राष्ट्रीय जनता दल का गठन किया था। पार्टी का घोषित उद्देश्य दलितों, पिछड़ों और अल्पसंख्यकों को राजनीति की मुख्यधारा में लाना था और आरक्षण के समर्थन में आवाज बुलंद करना था। उसके बाद 1999 के विधानसभा चुनाव में बिहार की सत्ता में राजद की वापसी जरूर हुई, लेकिन झारखंड अलग होने के बाद से इस हिस्से में पार्टी का जनाधार लगातार कम होता गया।

    ऐसे कमजोर हुई राजद की स्थिति
    झारखंड में पिछले 21 सालों के छह आम चुनावों में पलामू और चतरा जैसी सीटों पर राजद की किलेबंदी लगातार कमजोर हुई है। एकीकृत बिहार में 1998 में पहली बार इन सीटों पर राजद ने चुनाव लड़ा। दोनों ही सीटों पर हार मिली, लेकिन उसका वोट शेयर काफी अच्छा रहा। 2004 के चुनाव में अंतिम बार राजद को पलामू और चतरा दोनों सीटों पर जीत मिली। साल 2007 के पलामू उपचुनाव में भी राजद को जीत मिली। हालांकि उसके बाद से इन गढ़ों में राजद का कद घटता गया। वोट शेयर 1998 में पलामू में 40 फीसदी से 2019 में 23.1 फीसदी तक पहुंच गया। चतरा में वोट प्रतिशत 38.4 फीसदी से घट कर 9.1 फीसदी तक आ गया, यानी 21 सालों में पलामू में 17 तो चतरा में 19 प्रतिशत वोट शेयर घट गया। हाल में संपन्न लोकसभा चुनाव में राजद ने पलामू सीट पर चुनाव लड़ा, लेकिन उसे कामयाबी नहीं मिली।

    विधानसभा चुनाव में भी गिरा प्रदर्शन
    नवंबर 2000 में जब झारखंड बिहार से अलग हुआ था, तब 82 सदस्यीय राज्य विधानसभा में राजद के पास नौ सीटें थीं। तब से पार्टी की चुनावी किस्मत लगातार नीचे गिरती गयी है। झारखंड में पहली बार 2005 में विधानसभा चुनाव हुए। उस चुनाव में राजद ने अपने दम पर 51 सीटों पर प्रत्याशी उतारा और 8.48 फीसदी वोट पाकर सात सीटें जीती। 2009 में पार्टी ने 56 सीटों पर चुनाव लड़ा और 5.03 फीसदी वोट पाकर पांच सीटों पर जीत हासिल की। 2014 में पार्टी ने 19 सीटों पर चुनाव लड़ा और महज 3.13 फीसदी वोट उसे मिले, जबकि एक भी सीट उसके पास नहीं आयी। 2019 में राजद ने महागठबंधन में शामिल होकर सात सीटों पर प्रत्याशी दिया, लेकिन उसे महज एक सीट मिली और वोट शेयर घट कर 2.75 प्रतिशत रह गया।

    पिछले सालों में कई दिग्गजों ने छोड़ा राजद
    राजद के कमजोर होने की स्थिति का अंदाजा इससे भी लगाया जा सकता है कि पिछले कुछ सालों में कई दिग्गजों ने पार्टी छोड़ दी है। इससे राजद झारखंड में कमजोर हुआ। पार्टी छोड़ने वालों में गिरिनाथ सिंह, अन्नपूर्णा देवी और घूरन राम जैसे नेता शामिल हैं। घूरन राम पलामू से सांसद रह चुके हैं। राजद प्रदेश अध्यक्ष रह चुकीं अन्नपूर्णा देवी कोडरमा विधानसभा का कई बार प्रतिनिधित्व कर चुकी हैं। गिरिनाथ सिंह भी गढ़वा से विधायक रह चुके हैं। आज अन्नपूर्णा देवी कोडरमा से भाजपा की सांसद हैं और केंद्र में कैबिनेट मंत्री भी। घूरन राम ने भी अब भाजपा का दामन थाम लिया है। वहीं गिरिनाथ सिंह भाजपा से राजद और अब कांग्रेस की छोर पकड़े हुए हैं। संभव है कि वह कांग्रेस को भी टाटा-टाटा बाय-बाय कह दें क्योंकि उनकी मंशा गढ़वा से चुनाव लड़ने की है और चूंकि मिथलेश ठाकुर वहां से झामुमो के विधायक और मंत्री हैं और उनका कद भी बड़ा है, ऐसे में वहां से गिरिनाथ सिंह को टिकट मिलना नामुमकिन है।

    झारखंड में इस तरह पुनर्जीवित हो सकता है राजद
    राजद को अब झारखंड में उसी तरह देखा जाता है, जैसे बिहार, यूपी और बंगाल में कांग्रेस को देखा जाता है, यानी गठबंधन के एक छोटे से घटक के रूप में। राजद नेतृत्व के सामने झारखंड में पुनर्जीवित करना एक बड़ी चुनौती है। झारखंड में यह इतनी कमजोर स्थिति में है कि पिछले दो विधानसभा चुनावों में यह यादव बहुल सीटों पर भी चुनाव हार गयी। पार्टी का शीर्ष नेतृत्व मानता है कि पार्टी की झारखंड इकाई अपने मौजूदा स्वरूप में एक तरह से खत्म हो चुकी ताकत है। इसका पारंपरिक मुस्लिम मतदाता जेएमएम और कांग्रेस की ओर खिसक गया है और यादव, जो कभी इसके लिए वोट करते थे, का एक बड़ा हिस्सा भाजपा के पास चला गया है। पिछड़े मतदाता भी इधर-उधर बिखर गये हैं। यदि झारखंड में पार्टी को दोबारा पुरानी स्थिति में लौटना है, तो इसके लिए ठोस प्रयास करने होंगे। उसे सबसे पहले अपने मूल मतदाताओं का विश्वास वापस जीतने की कोशिश करनी होगी। बिहार में सबसे बड़ा जातीय समूह यादव, जो लगभग 14 प्रतिशत मतदाता है, झारखंड में भी अच्छी संख्या में है। यह जातीय समूह झारखंड की कम से कम 20 विधानसभा सीटों पर निर्णायक संख्या में है। झारखंड में राजद की सबसे बड़ी कमजोरी यह है कि पार्टी के पास कोई विश्वसनीय आदिवासी नेता नहीं है। यादव चेहरे में भी कइयों ने उससे किनारा कर लिया है। इसलिए पार्टी को एक आदिवासी चेहरे को भी सामने लाना होगा।
    झारखंड विधानसभा चुनाव में राजद का प्रदर्शन

    वर्ष मत         प्रतिशत          प्रत्याशी उतारे             जीते
    2004            8.48%                  51                          7
    2009            5.03%                  56                          5
    2014            3.13 %                19                           0
    2019            2.75%                 07                           1

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