वाटरलू की लड़ाई वर्ष 1815 में लड़ी गयी थी। इसमें एक तरफ फ्रांस था तो दूसरी ओर ब्रिटेन, रूस, प्रशा, आॅस्ट्रिया और हंगरी की सेना थी। इस लड़ाई में मिली हार ने नेपोलियन का चैप्टर हमेशा के लिए क्लोज कर दिया था। इस लड़ाई की तरह झारखंड विधानसभा चुनाव में पहले चरण की 13 सीटों मेें से कई सीटें ऐसी हैं, जिनमें मुकाबला कमोबेश वाटरलू की लड़ाई की तरह ही है। इन सीटों में लोहरदगा, विश्रामपुर और भवनाथपुर जैसी सीटें शामिल हैं। इन सीटों पर मिलनेवाली हार-जीत कई प्रत्याशियों का राजनीतिक भविष्य तय करेगी। इस चुनाव का नतीजा भविष्य के गर्भ में है और यह देखना दिलचस्प होगा कि मुकाबले में किसकी नियति में नेपोलियन बनना लिखा है और किसके हिस्से में विजयश्री। झारखंड विधानसभा की 13 सीटों में से मुख्य सीटों पर कड़े मुकाबले और उनके संभावित असर पर नजर डालती दयानंद राय की रिपोर्ट।
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झामुमो ने दो करोड़ में बेचा झारखंड को : रघुवर
तिर्की की संपत्ति 1 लाख 12 हजार 121 प्रतिशत बढ़ गयी थी दो चुनावों के बीच
झारखंड की राजनीति में अटूट गठबंधन माने जानेवाले आजसू और भाजपा का रिश्ता भले ही टूट चुका हो और दोनों फ्रेंडली फाइट में उतर गये हैं, लेकिन अब तक का मुकाबला यही बता रहा है कि दोनों दल एक ही लक्ष्य को लेकर चल रहे हैं और दोनों एक-दूसरे को कठघरे में खड़ा करने से बच रहे हैं। राजनीति और चुनाव में अक्सर फ्रेंडली फाइट को बड़े ही कौतूहल भरी नजर से देखा जाता है और पूछा जाता है कि जब फाइट होगी, तो वह फ्रेंडली कैसे हो सकती है। इस बार झारखंड में भाजपा और आजसू इस फ्रेंडली फाइट का मतलब समझाने में लगी हैं। दोनों दल जहां एक-दूसरे के खिलाफ बोलने से बच रहे हैं, वहीं दोनों अपनी ताकत बढ़ाने में लगे हुए हैं। भाजपा और आजसू के बीच दोस्ताना संघर्ष के बारे में दयानंद राय की खास रिपोर्ट।
भाजपा प्रत्याशियों के नामांकन में शामिल हुए रघुवर, ताबड़तोड़ सभाएं की
चंदवा। भाजपा के कार्यकारी अध्यक्ष जगत प्रकाश नड्डा ने शुक्रवार को लातेहार के चंदवा में चुनावी जनसभा को संबोधित किया।…
जरूरतें व्यक्ति को बदल देती हैं और प्लेटफॉर्म यदि राजनीति का हो, तो यहां कुछ भी असंभव नहीं है। यह झारखंड की राजनीति में बदलते समीकरणों का ही कमाल है कि यहां दो धुर विरोधी दल बदलने के बाद राजनीति का अपना तेवर और सुर दोनों बदल चुके हैं। ये सभी नयी भूमिका में नजर आ रहे हैं। बरही विधायक मनोज यादव जब तक कांग्रेस में थे, तो पानी पी-पीकर भाजपा की नीतियों को कोसते थे, आज वह उसी भाजपा के टिकट पर चुनाव के मैदान में हैं और कांग्रेस को कोस रहे हैं। वहीं भाजपा के उमाशंकर यादव अब कांग्रेस में हैं, तो उनके सुर बदल गये हैं। कभी खांटी कांग्रेसी रहे सुखदेव भगत अब भाजपा में आने के बाद कांग्रेस के प्रदेश अध्यक्ष डॉ रामेश्वर उरांव से दो-दो हाथ करने के साथ नीरू शांति भगत के खिलाफ भी ताल ठोक रहे हैं। वहीं पाकुड़ के अकील अख्तर, जो जब तक झामुमो में रहे, तब तक कट्टर भाजपा विरोधी रहे, लेकिन अब आजसू में आने के बाद और पार्टी का प्रत्याशी बनाये जाने के बाद उनकी भाषा पूरी तरह बदल चुकी है। चुनाव के मैदान में आमने-सामने होने के बाद नीरा यादव और शालिनी गुप्ता भी बदले और आक्रामक तेवर के साथ एक दूसरे के खिलाफ बयानबाजी कर रही हैं। झारखंड की राजनीति में दलबदल करके आये नेताओं और दलों का रवैया यह दर्शाता है कि यहां न तो कोई दुश्मन होता है और न कोई दोस्त। यह जरुरतें होती हैं जो विभिन्न दलों को एक-दूसरे का दोस्त बनने या फिर दुश्मन का लाबादा ओढ़े रहने पर विवश करती हैं। झारखंड की राजनीति में पाला बदलने के बाद नेताओं के बदले बोल और उसके कारणों की पड़ताल करती दयानंद राय की रिपोर्ट।
देखना अब यह है कि जनता इन्हें चुनावी स्वाद किस प्रकार चखाती है
70 साल तक झारखंड को छला गया, पांच साल में रघुवर सरकार ने क्रांतिकारी कदम उठा कर सिर्फ विकास किया
झाविमो सुप्रीमो बोले, हमारी सरकार बनी, तो कोई बेरोजगार नहीं रहेगा
फर्स्ट फेज में विपक्ष पर स्कोर करने की रणनीति