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दृश्य सिर्फ दृश्य नहीं होते। कई बार वे बदलाव की बयार को समझने का औजार भी होते हैं। और इसे देखने-परखने और समझनेवाला सुदेश जैसा शख्स हो, तो फिर समझने में कोई चूक रह गयी हो, इसकी संभावना बेहद कम होती है। चंदनकियारी के दौरे पर गये सुदेश महतो ने स्वर्गीय बिनोद बिहारी महतो की प्रतिमा का अनावरण कर जैसे क्षेत्र की जनता का हृदय स्पर्श कर लिया। इस पूरी यात्रा में सुदेश के चेहरे पर मौसम की तरह कई रंग आये और गये और अंत में छा गयी वह मुस्कान, जिसमें उन्हें चंदनकियारी के विधायक रहे और पार्टी उपाध्यक्ष उमाकांत रजक का भविष्य बदलता दिख रहा था। चंदनकियारी के राजनीतिक हालात पर नजर डालती दयानंद राय की रिपोर्ट।

झारखंड कांग्रेस में आनेवाले दिनों में तूफान मचनेवाला है। जी हां, कांग्रेस आलाकमान के निर्देशों ने पार्टी के नेताओं की बेचैनी बढ़ा दी है। इसका असर जल्द ही देखने को मिल सकता है। यह भी संभव है कि पार्टी के अंदर टूट हो। दरअसल, कांग्रेस आलाकमान ने झारखंड में वंशवाद से मुक्ति पाने का फैसला ले लिया है। इस संदर्भ में तीन निर्देश कांग्रेस की राष्ट्रीय अध्यक्ष सोनिया गांधी ने दिया है। कहा है कि एक परिवार से सिर्फ एक ही व्यक्ति को टिकट मिलेगा। दूसरा निर्देश यह है कि कोई भी पदाधिकारी चुनाव नहीं लड़ सकता। तीसरे निर्देश में कहा गया है कि पार्टी का कोई भी नेता गठबंधन को लेकर बयानबाजी नहीं करेगा, चाहे बड़ा हो या छोटा। इससे प्रदेश अध्यक्ष डॉ रामेश्वर उरांव तक पर लगाम लगायी गयी है, जो गठबंधन पर अपने बयानों से लगातार सुर्खियों में बने हुए थे। जाहिर है कि इन निर्देशों से ऐसे नेता बौखलाये हुए हैं, जिनके परिवार में एक से ज्यादा टिकट के दावेदार हैं या वे जो पार्टी में किसी न किसी पद पर हैं और चुनाव भी लड़ना चाहते हैं। अब ऐसे में उन्हें पद छोड़ना होगा, तभी चुनाव लड़ने की इच्छा जाहिर करने होगी। इन हालात में अति महत्वाकांक्षी लोग टिकट की खातिर दूसरे दलों का दरवाजा खटखटा सकते हैं। पेश है दीपेश कुमार की रिपोर्ट।

न दिन को सुकुन है और न रात को सुकुन। गीत का यह मुखड़ा झारखंड के नेताओं की वर्तमान चुनावी हालत बखूबी बयां कर रहा है। हाल यह है कि चाहे वह मुख्यमंत्री रघुवर दास हों या झामुमो के कार्यकारी अध्यक्ष हेमंत सोरेन या फिर आजसू सुप्रीमो सुदेश महतो या झाविमो सुप्रीमो बाबूलाल मरांडी सबके सब चुनाव की तैयारियों में खुद को इतना झोंक चुके हैं कि उनका दिन और रात क्षेत्र या फिर कार्यकर्ताओं से संवाद करने में ही बीत रहा है। कमोबेश यही हालत कांग्रेस और राजद की है। कांग्रेस के प्रदेश अध्यक्ष रामेश्वर उरांव पार्टी को मुकाबले में खड़ा करने के लिए जी तोड़ प्रयास कर रहे हैं पर अपनी ही पार्टी के साथियों का हमलावर होना उनके लिए मुश्किल खड़ा कर रहा है। झारखंड में राजद दो फाड़ हो चुकी है और इसके सामने चुनौतियां नहीं चुनौतियों का पहाड़ खड़ा है। कुल मिलाकर चुनावों से पहले नेताओं के लिए यह समय बेहद विकट साबित हो रहा है। विधानसभा चुनावोें से पहले पक्ष और विपक्ष के नेताओं की चुनौतियों और चुनावी समर में उनकी हालत को रेखांकित करती दयानंद राय की रिपोर्ट।

आज से तीन दशक पहले जब झारखंड आंदोलन उफान पर था, आॅल झारखंड स्टूडेंट्स यूनियन या आजसू को इस आंदोलन का युवा चेहरा माना जाता था। झारखंड अलग राज्य बनने के बाद 19 साल में इस संगठन के राजनीतिक अवतार ने कई उतार-चढ़ाव देखे, लेकिन इसने अपनी पहचान को कभी नेपथ्य में नहीं जाने दिया। संघर्ष और प्रतिबद्धता की बदौलत इसने हर दिन राजनीति का नया मुकाम हासिल किया है। स्पष्ट विजन, मुद्दों की समझ और जनता के बीच जाकर राजनीति करने का माद्दा रखनेवाले आजसू को आज झारखंड की बड़ी ताकत माना जाता है, तो इसके पीछे इसके नेताओं-कार्यकर्ताओं का बलिदान शामिल है। झारखंड बनने के बाद महज दो विधानसभा सीटों से चुनावी राजनीति करनेवाली इस पार्टी ने आज राज्य की कम से कम 20 सीटों पर अपना जनाधार बना लिया है। इन सीटों पर आजसू चुनाव परिणाम को प्रभावित करने की स्थिति में है। यही कारण है कि दुनिया की सबसे बड़ी राजनीतिक पार्टी भाजपा भी अपने इस सहयोगी पर आंख बंद कर भरोसा करती है, उसे अपनी कामयाबी के सफर का हमसफर बताती है। आजसू के इस विस्तार के पीछे पार्टी नेतृत्व का बड़ा हाथ माना जाता है। आखिर आजसू ने ऐसा क्या किया कि झारखंड के सबसे पुराने और ताकतवर राजनीतिक दल झामुमो को रक्षात्मक रुख अख्तियार करना पड़ रहा है। आजसू के विस्तार के कारणों की पड़ताल करती आजाद सिपाही पॉलिटिकल ब्यूरो की विशेष रिपोर्ट।

झारखंड में सभी राजनीतिक दल चुनावी मोड में आ चुके हैं। हालांकि अब तक चुनाव की तारीखों की घोषणा नहीं हुई है, लेकिन पार्टियों में उम्मीदवारों के चयन की प्रक्रिया शुरू हो चुकी है। इस विधानसभा चुनाव में भाजपा के सामने सत्ता बचाने की चुनौती है। हालांकि लोकसभा चुनाव में बंपर जीत हासिल करने के बाद पार्टी बेहद उत्साहित है। वह 65 प्लस का लक्ष्य लेकर चुनाव मैदान में उतर गयी है। इस लक्ष्य को हासिल करने के लिए मुख्यमंत्री रघुवर दास के नेतृत्व में भाजपा हर वह दांव आजमा रही है, जो उसे कामयाब कर सके। पार्टी ने चुनावी तैयारी के पहले चरण से ही अपनी गंभीरता का उदाहरण पेश कर रही है। भाजपा ऐसा कोई भी दांव खेलने के लिए तैयार नहीं है, जो उसे लक्ष्य से तनिक भी पीछे कर दे। इसलिए उम्मीदवारों की चयन प्रक्रिया में भी इस बात का खास ध्यान रखा जा रहा है। पार्टी के चुनाव प्रभारी कह भी चुके हैं कि जीतने वाले उम्मीदवारों को ही टिकट मिलेगा। ऐसे में उन उम्मीदवारों के माथे पर बल पड़ गये हैं, जो विधानसभा के पिछले चुनाव में दूसरे स्थान पर रहे थे। ऐसे संकेत मिल रहे हैं कि भाजपा इस बार वैसे किसी भी उम्मीदवार को टिकट नहीं देगी, जो पिछली बार हार गये थे। भाजपा की इस रणनीति पर आजाद सिपाही पॉलिटिकल ब्यूरो की खास रिपोर्ट।

लोकसभा चुनाव में अपने गढ़ संथाल में शिबू सोरेन को पराजय का सामना करना पड़ा और उसके बाद से झारखंड की सबसे पुरानी क्षेत्रीय पार्टी झारखंड मुक्ति मोर्चा में शिबू युग का अवसान हो गया। स्वाभाविक तौर पर शिबू राजनीति के केंद्र में नहीं रहे। इसका सबसे बड़ा असर यह हुआ है कि झामुमो अपना तेवर तेजी से खो रहा है। अब इस पार्टी में वह बात नहीं रही, जो आज से पांच साल पहले हुआ करती थी। अब झामुमो के प्रति न लोगों में उतना मोह रहा और न ही नेताओं-कार्यकर्ताओं के मन में सम्मान। आखिर ऐसा क्या हुआ कि झामुमो आज एक ऐसे दोराहे पर खड़ा हो गया है, जहां से उसे अपने सुनहरे भविष्य का रास्ता चुनने के लिए बाध्य होना पड़ रहा है। झामुमो के सामने अपने आकर्षण और दबदबे को बनाये रखने की चुनौती है। इस लिहाज से झारखंड की पांचवीं विधानसभा के लिए इस साल के अंत तक होनेवाला चुनाव झामुमो और इसके नेता हेमंत सोरेन के लिए ‘करो या मरो’ जैसा है। आखिर झामुमो की यह हालत क्यों हुई। इसका जिम्मेदार कौन है, इसे रेखांकित करती दयानंद राय की रिपोर्ट।