रांची। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने गुरुवार को झारखंड के नव निर्मित विधानसभा भवन का उद्घाटन किया। इसके साथ ही राज्य…
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विशेष भाजपा के चुनावी अभियान को मिला ‘मोदी टॉनिक’ प्रधानमंत्री की रांची यात्रा ने आसान बनायी भाजपा की राह दोगुने…
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी गुरुवार को रांची आ रहे हैं। उनकी यह यात्रा इस मायने में ऐतिहासिक है कि अपने दूसरे कार्यकाल में यह उनका दूसरा झारखंड दौरा होगा। दरअसल प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने झारखंड को अपना फोकस प्रदेश बना रखा है। इसलिए अपने पहले कार्यकाल में उन्होंने चार बड़ी योजनाओं की शुरुआत इसी प्रदेश से की। अब दूसरे कार्यकाल के दूसरे दौरे में वह दो बड़ी योजनाओं का श्रीगणेश भी इसी प्रदेश से करेंगे। योजनाओं की शुरुआत की बात छोड़ भी दी जाये, तो प्रधानमंत्री ने इस साल 21 जून को अंतरराष्टÑीय योग दिवस के मुख्य समारोह के लिए भी रांची का ही चयन किया। झारखंड को फोकस प्रदेश बनाने के कारण भी हैं। पिछले पांच साल से झारखंड की रघुवर दास सरकार ने केंद्र सरकार की योजनाओं को जिस गंभीरता और कुशलता से किया है, उसकी चौतरफा तारीफ हो रही है। इतना ही नहीं, रघुवर सरकार ने कई ऐसी योजनाएं शुरू की हैं, जो पूरे देश के लिए नजीर बन चुकी हैं। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की रांची यात्रा के राजनीतिक मायने चाहे कुछ भी हों, उनके द्वारा शुरू की जानेवाली दो योजनाएं देश के मानचित्र पर झारखंड को एक बार फिर बहुत ऊंचाई पर स्थापित करेंगी, इसमें कोई संदेह नहीं है। पीएम की यात्रा की पृष्ठभूमि में झारखंड के विकास को रेखांकित करती आजाद सिपाही टीम की खास रिपोर्ट।
यात्राएं बेमकसद नहीं होतीं। यात्रा चाहे छोटी हो या बड़ी, उसका एक खास मकसद होता है। और 12 सितंबर की प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की झारखंड यात्रा तो विधानसभा चुनाव के नजरिये से भाजपा के लिए खासतौर से उद्देश्यपूर्ण है। झारखंड में विधानसभा चुनावों पहले की उनकी यात्रा गहरा चुनावी इंपैक्ट डालेगी, जिससे भाजपा को अपना 65 से अधिक सीटों का लक्ष्य हासिल करने में मदद मिलेगी। रांची के प्रभात तारा मैदान में पीएम जहां नये विधानसभा भवन का उद्घाटन करेंगे, वहीं साहिबगंज में मल्टीमॉडल बंदरगाह का भी आॅनलाइन शुभारंभ करेंगे। किसान मानधन योजना और एकलव्य विद्यालयों का शुभारंभ भी उनकी झारखंड यात्रा के पैकेज में शामिल है। झारखंड में विधानसभा चुनावों को लेकर भाजपा पहले से ही मिशन मोड में है। पार्टी के राष्टÑीय उपाध्यक्ष और झारखंड चुनाव प्रभारी ओमप्रकाश माथुर और चुनाव सह प्रभारी नंदकिशोर यादव बैठकों और कार्यक्रमों के जरिये वह हलचल पैदा कर रहे हैं, जिससे भाजपा का चुनावी रॉकेट 65 से अधिक विधानसभा सीटों पर निशाना साध सके। प्रधानमंत्री की यात्रा के दो प्वाइंट हैं जिनमें एक रांची और दूसरा साहेबगंज है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के झारखंड दौरे के मायने तलाशती दयानंद राय की रिपोर्ट।
झारखंड की राजनीति में दमखम दिखा रहीं महिला नेत्री खूब धूम मचा रही है। हालांकि झारखंड की राजनीति में भी महिलाओं के लिए अब तक 35 फीसदी आरक्षण दूर की कौड़ी है, पर अब यहां महिलाएं खुलकर और सारी झिझक तोड़ कर आगे आ रही हैं। पिछले लोकसभा चुनाव में जीत हासिल करनेवाली गीता कोड़ा और अन्नपूर्णा देवी आज महिला नेत्रियों के लिए प्रेरणास्रोत बन गयी हैं। खास तौर पर गीता कोड़ा, जिनके संघर्ष की गाथा लंबी है। वहीं मौजूदा झारखंड विधानसभा में मौजूद दस महिला सदस्य यह बताती हैं कि यहां महिलाएं किसी क्षेत्र में पीछे नहीं हैं। आनेवाले विधानसभा चुनाव में महिलाओं की दमदार उपस्थिति देखने को मिल सकती है। पेश है दीपेश कुमार की रिपोर्ट।
झारखंड विधानसभा चुनाव की गहमागहमी के बीच भाजपा ने पिछले दो दिन में ऐसी ‘बमबारी’ की, जिसके आगे तमाम विपक्षी दल पस्त हो गये हैं। भाजपा ने एक साथ सभी 81 विधानसभा क्षेत्रों में सबसे निचले स्तर के कार्यकर्ताओं की बैठक कर साबित कर दिया कि इस चुनाव को वह बेहद गंभीरता से ले रही है। मुख्यमंत्री रघुवर दास के नेतृत्व में पार्टी नेताओं ने राज्य के सभी 514 मंडलों में दो दिन तक प्रवास किया और कार्यकर्ताओं के साथ चुनावी रणनीति को अंतिम रूप दिया। इस ‘बमबारी’ को भारतीय राजनीति में अभिनव प्रयोग माना जा रहा है, क्योंकि आज से पहले ऐसा कभी नहीं हुआ था कि चुनाव की घोषणा से पहले ही इतने संगठित तौर पर पूरे राज्य में एक साथ राजनीतिक कार्यक्रम किया गया हो। भाजपा ने इस कार्यक्रम के बाद अब ‘घर-घर रघुवर’ अभियान शुरू करने की तैयारी की है। चुनावी समर में उतरने से पहले ही भाजपा की इतनी सक्रियता से साफ लगता है कि इस बार वह किसी भी कीमत पर चुनाव जीतने के लिए ही मैदान में उतरनेवाली है। भाजपा की इस ताबड़तोड़ रणनीति और विपक्ष की दुविधा के बारे में आजाद सिपाही पॉलिटिकल ब्यूरो की विशेष रिपोर्ट।
बिहार के मुख्यमंत्री और जदयू के राष्टÑीय अध्यक्ष नीतीश कुमार की एक दिवसीय झारखंड यात्रा संपन्न हो गयी। इस यात्रा के बाद राजनीतिक हलकों में यह चर्चा आम है कि नीतीश ने बहुत दूर की सोच कर झारखंड विधानसभा की सभी 81 सीटों पर चुनाव लड़ने का ऐलान किया है। यह ऐलान झारखंड के साथ बिहार और हिंदी पट्टी के दूसरे राज्यों में नये राजनीतिक समीकरण की जमीन तैयार करने का संकेत है। नीतीश की पार्टी का झारखंड में कोई बहुत बड़ा स्टेक नहीं है, लेकिन यह भी सच है कि करीब दर्जन भर सीटों पर जदयू का वोट चुनाव परिणाम को प्रभावित जरूर कर सकता है। इसलिए नीतीश कुमार को झारखंड से पूरी तरह खारिज भी नहीं किया जा सकता है। यह भी सच है कि नीतीश अपनी शर्तों पर राजनीति करते हैं। इसलिए यदि वह एनडीए से अलग होने का फैसला करते हैं, तब भी झारखंड में उनके वोटरों पर कोई असर नहीं पड़ेगा। नीतीश के वोटर हर हाल में नीतीश का ही साथ देंगे। यह बात भाजपा भी जानती है और विरोधी दल भी। इसलिए चिंता दोनों पक्ष को है, क्योंकि जदयू यदि खुद कोई सीट नहीं जीत सकता है, तो वह इन दर्जन भर सीटों पर किसी भी दल के प्रत्याशी को हराने की ताकत जरूर रखता है। इसलिए तमाम राजनीतिक दल बेहद उत्सुकता से नीतीश की यात्रा को देख रहे हैं। नीतीश की झारखंड यात्रा के राजनीतिक निहितार्थ पर आजाद सिपाही पॉलिटिकल ब्यूरो की खास पेशकश।
देश की सबसे पुरानी राजनीतिक पार्टी कांग्रेस अपने इतिहास के सबसे बुरे दौर से गुजर रही है। लगातार दो आम चुनावों में करारी शिकस्त झेलने के बाद कांग्रेस के हौसले पस्त हो गये हैं। अब तो ऐसा लगता है कि इस पार्टी का सितारा पूरी तरह डूबने की कगार पर है। पार्टी के नेताओं को भी अब इसमें कोई भविष्य नहीं दिख रहा है। इसलिए कांग्रेस छोड़ कर जानेवालों की कतार कम नहीं हो रही है। ताजा चर्चा यह है कि राहुल गांधी के कुछ करीबी युवा नेता पार्टी को बाय-बाय करने की तैयारी में हैं। इनमें ज्योतिरादित्य सिंधिया, मिलिंद देवड़ा और जितिन प्रसाद जैसे नेता शामिल हैं। सचिन पायलट का भी पार्टी से मोहभंग हो गया है। इन नेताओं ने कांग्रेस को पहचान दी है, समय दिया है, लेकिन अब यदि ये कांग्रेस को छोड़नेवाले हैं, तो पार्टी नेतृत्व को आत्ममंथन करना चाहिए। कांग्रेस के इस युवा नेताओं के संभावित कदमों के बारे में आजाद सिपाही पॉलिटिकल ब्यूरो की रिपोर्ट।
आज राजनीति से हट कर एक ऐसे मुद्दे की चर्चा, जो पिछले पांच दिन से हमारे-आपके जीवन से जुड़ गयी है। जी हां, हम बात कर रहे हैं नये मोटर वाहन कानून की, जिसके तहत जुर्माने की रकम को 10 गुना तक बढ़ा दिया गया है। नया कानून भारत के हर वैसे व्यक्ति के लिए एक भयानक सपने की तरह बन गया है। देश के हर कोने में अचानक यातायात पुलिस बेहद सक्रिय हो गयी है। लेकिन दुर्भाग्य से उसकी यह सक्रियता जुर्माना वसूलने के टारगेट को पूरा करने के लिए है, न कि यातायात नियमों का अनुपालन कराने के लिए लोगों को जागरूक करने के लिए। यदि कोई कानून आम लोगों को तकलीफ देने लगे, तो उसके औचित्य पर सवालिया निशान लग जाता है। ऐसी स्थिति में कानून बनानेवालों को यह विचार करना ही होगा कि क्या उनके द्वारा बनाया गया कानून अपने उद्देश्यों को हासिल करने में सफल रहा है। आजकल देखा जा रहा है कि ट्रैफिक नियमों का उल्लंघन करनेवालों से वसूला गया जुर्माना पुलिस विभाग की उपलब्धि के रूप में दिखाया जा रहा है। यह बेहद दुखद है और खतरा इस बात का है कि कहीं नया कानून बैकफायर न कर जाये। डंडे के जोर पर कानून का पालन करना स्वस्थ समाज की निशानी नहीं है। इसलिए यातायात पुलिस को अपनी कार्यप्रणाली पर विचार करना चाहिए। नये ट्रैफिक कानून के कारण पैदा हुई परिस्थिति पर आजाद सिपाही टीम की विशेष रिपोर्ट।
सपना सिर्फ व्यक्ति नहीं देखते, पार्टियां भी देखती हैं। और झारखंड में सत्तारूढ़ भाजपा आनेवाले विधानसभा चुनावों के लिए दिन-रात यदि कोई सपना देखती है, तो वह झामुमो को उखाड़ फेंकने का है। पार्टी के 65 प्लस के लक्ष्य में कोई दल बाधक बन रहा है, तो वह मुख्यत: झामुमो और कांग्रेस ही है। इसलिए भाजपा की चुनावी रणनीति का पूरा फोकस झारखंड में इन दो दलों को तेजहीन करना है। इसमें कांग्रेस तो पहले ही तेजहीन सी हो चुकी है, पर झामुमो का दमखम अब भी बहुत हद तक बरकरार है। 2014 के विधानसभा चुनावों में भाजपा ने झारखंड में रघुवर दास के नेतृत्व में आजसू के सहयोग से मजबूत सरकार बनायी। पर मोदी लहर के बावजूद झामुमो 19 सीटें जीतने में सफल रहा। लोकसभा चुनावों में इन दोनों दलों को भाजपा ने कड़ा झटका दिया और ये एक-एक सीट जीतकर इज्जत बचाने में सफल हुए। अब भाजपा खासतौर से झामुमो को झारखंड से जड़ से उखाड़ने में जुटी हुई है। भाजपा का यह सपना कोई दिवास्वप्न नहीं है। ऐसा करने के लिए भाजपा दिन-रात एक किये हुए है। पर आनेवाले विधानसभा चुनावों में ऐसी कई सीटें हैं जो भाजपा की जीत की राह में कड़ी चुनौती पेश करेंगी। इन सीटों के बारे में दयानंद राय की एक रिपोर्ट।
हर दिन झारखंड में विपक्षी दलों के महागठबंधन की बात होती है। सुबह-सबेरे हर दल कभी न कभी इसकी चर्चा कर ही देता है। लेकिन इसकी सच्चाई यही है कि यहां कभी मजबूत महागठबंधन बना ही नहीं। चुनावी वैतरणी पार करने के लिए कुछ दलों की बैठक हुई और महागठबंधन शब्द का उच्चारण कर लिया गया। हां, भाजपा को जवाब देने के लिए जरूर महागठबंधन की रट लगायी जाती रही, लेकिन तल्ख सच्चाई यही है कि विपक्षी दलों के बीच कभी मजबूत गठबंधन हुआ ही नहीं। हां, गांठ-गांठ का बंधन जरूर हुआ। यानी साथ में दल तो बैठे, लेकिन दिल नहीं मिले। इसके पीछे का असली कारण यही है कि विपक्ष का कोई दल अपना नुकसान कर महागठबंधन को स्थापित करने की जोखिम नहीं उठाना चाहता। सभी चाहते तो हैं कि चुनाव में महागठबंधन का लाभ उन्हें मिले, लेकिन वे महागठबंधन में शामिल दलों को कैसे लाभ पहुंचायें, इस पर कभी कोई सीरियस नहीं हुआ। अब तो विधानसभा चुनाव सिर पर है। जैसे-जैसे दिन करीब आ रहे हैं, दलों की गांठ ज्यादा बड़े आकार में सामने आ रही है। करीब दो महीने में झारखंड में विधानसभा के चुनाव होने हैं। मगर महागठबंधन में शामिल दल अब भी अपने-अपने राग अलाप रहे हैं। लोकसभा चुनाव के समय एक कोशिश हुई थी कि महागठबंधन का प्रभाव देखने को मिले। लेकिन चुनाव बाद आये परिणाम ने एक दूसरे के सामने सबको नंगा कर दिया। महागठबंधन के नेता एक-दूसरे पर ही हार का ठिकरा फोड़ने लगे। यह सिर्फ दूसरे दलों तक सीमित नहीं रहा, दल के अंदर भी नेताओं का आरोप एक-दूसरे के खिलाफ लगने लगा। यह सिलसिला यहीं नहीं थमा। समय के साथ उसमें कटुता बढ़ती गयी। अब तो एक-दूसरे के खिलाफ तीखी वाणी के तीर भी चलाने लगे हैं। नेताओं के बोल ने एक साथ चलने पर संशय खड़ा जरूर कर दिया है। कारण महागठबंधन के नेताओं को अपना अस्तित्व बचाने की चिंता भी साल रही है। इसी कारण वह महागठबंधन में रहना तो चाहते हैं, लेकिन खुद का फायदा ज्यादा कैसे हो, सब इसी में लगे हैं। बात चाहे सीट शेयरिंग की हो या फिर विधानसभा में जीत हासिल करने की। नेताओं को बखूबी पता है कि महागठबंधन होने पर भी वोट बैंक दूसरे दल में शिफ्ट नहीं हो पाता है। इसका उदाहरण बीता लोकसभा का चुनाव है।
लोकसभा चुनाव के बाद महागठबंधन के दलों की अलग-अलग हुई बैठकों में यह बात सामने आयी कि उसके कैडरों का वोट ट्रांसफर हुआ, लेकिन अन्य विपक्षी दल उनके उम्मीदवारों को वोट ट्रांसफर नहीं करा पाये। खासकर झामुमो-कांग्रेस के भितरखाने में यह आवाज भी उठी है कि विधानसभा चुनाव अलग होकर लड़ा जाये, हालंकि शीर्ष नेतृत्व इसके फेवर में नहीं दिख रहा है। इसी पर प्रस्तुत है राजीव की विशेष रिपोर्ट।