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अतीत कई बार अपनी हदें लांघता हुआ वर्तमान से कड़ियां जोड़ लेता है। झारखंड विधानसभा चुनाव के दूसरे चरण की हॉट सीटों में से एक तमाड़ में अतीत जैसे जिंदा हो उठा है। यहां की सियासत एक
ऐसे नाम के इर्द-गिर्द घूम रही है, जो अब इस दुनिया में नहीं है। तमाड़ के विधायक थे रमेश सिंह मुंडा, जो नक्सली हिंसा में मारे गये थे। इस बार यहां जो चुनावी बिसात बिछी है, उसमें रमेश सिंह मुंडा की विरासत के आधार पर राजनीति में आये उनके पुत्र विकास मुंडा का मुकाबला जिस राजा पीटर और कुंदन पाहन से है, वे दोनों ही रमेश सिंह मुंडा हत्याकांड में आरोपित हैं। राजा पीटर पर रमेश सिंह मुंÞडा की हत्या के लिए सुपारी देने का आरोप है, जबकि कुंदन पाहन पर सुपारी लेकर हत्या करने का। रमेश सिंह मुंडा के पुत्र विकास तमाड़ के मौजूदा विधायक हैं, लेकिन उनके लिए आजसू के रामदुर्लभ सिंह मुंडा भी दीवार बन कर खड़े हो गये हैं। उनकी चुनौतियों को भेद पाना आसान नहीं दिख रहा। यहां बन-बिगड़ रहे राजनीतिक समीकरणों की पड़ताल करती स्वरूप भट्टाचार्य की रिपोर्ट।

कभी एक डगर के राही थे, अब रास्ते अलग-अलग हैं। एक पार्टी के सिपाही थे, अब एक-दूसरे पर हथियार ताने आमने-सामने खड़े हैं। 2019 के विधानसभा चुनाव में जमशेदपुर पूर्वी सीट पर यही नजारा है। यह मुख्यमंत्री रघुवर दास की परंपरागत सीट है। यहां उनकी ही कैबिनेट में मंत्री रहे सरयू राय उनके खिलाफ निर्दलीय प्रत्याशी के तौर पर चुनाव मैदान में हैं। मुकाबला इतना हाई-प्रोफाइल हो गया है कि नेशनल मीडिया की भी निगाहें इस सीट पर हैं। यहां रघुवर के सामने कांग्रेस के चर्चित राष्टÑीय प्रवक्ता गौरव वल्लभ और झाविमो के स्थानीय नेता अभय सिंह भी हंै। रघुवर दास के सामने इस सीट पर जीत का सिक्सर लगाने की चुनौती है। वह वर्ष 1995 से यहां लगातार चुनाव जीतते आ रहे हैं, इसलिए उनका आत्मविश्वास से लबरेज रहना स्वाभाविक है, वहीं उनके प्रतिद्वंद्वी उनका रास्ता रोकने के लिए भरपूर ताकत लगा रहे हैं। दूसरे चरण के चुनाव में एक और सीट पर पूरे झारखंड की निगाहें टिकी हुई हैं। यह सीट है चक्रधरपुर, जहां भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष लक्ष्मण गिलुआ चुनाव लड़ रहे हैं। उनका मुकाबला झाविमो, झामुमो और आजसू से माना जा रहा है। लोकसभा चुनाव हारने के बाद इस सीट पर जीत हासिल करना गिलुआ के लिए बेहद जरूरी हो गया है, लेकिन यहां जंग का मैदान उनके लिए आसान नहीं है। चक्रधरपुर सीट पर नतीजा क्या निकलेगा, यह तो भविष्य के गर्भ में है, पर इतना तय है कि यहां मुकाबला कांटे का है। दोनों सीटों के राजनीतिक समीकरणों को रेखांकित करती दयानंद राय की रिपोर्ट।

झारखंड विधानसभा के चुनाव के दूसरे चरण के लिए चुनाव प्रचार खत्म होने में अब 12 घंटे से भी कम समय रह गया है और पूरे प्रदेश की निगाहें इन 20 सीटों पर हैं। कहा जा रहा है कि दूसरे चरण का चुनाव ‘महामुकाबला’ है, क्योंकि इन पर जहां भाजपा के सामने ताकत बढ़ाने की चुनौती है, वहीं झामुमो के सामने अपना गढ़ बचाने का चैलेंज है। इस ‘महामुकाबले’ को विभिन्न दलों द्वारा चुनाव मैदान में उतारे गये नये खिलाड़ी बेहद रोमांचक बना रहे हैं। खास बात यह है कि ये सभी नये खिलाड़ी सीटिंग विधायकों के स्थान पर उतारे गये हैं और इनमें से किसी को भी चुनाव लड़ने का कोई अनुभव नहीं है। इन नये खिलाड़ियों के सामने जहां अपने-अपने दल के लिए सीट बरकरार रखने की चुनौती है, वहीं खुद को चुनावी राजनीति में स्थापित करने की महती जिम्मेवारी भी है। इन नये खिलाड़ियों की चुनावी संभावनाओं और इनके कारण रोमांचक हो चुके मुकाबले पर आजाद सिपाही पॉलिटिकल ब्यूरो की विशेष रिपोर्ट।

दीपेश कुमार
रांची। झारखंड में पिछड़े वर्ग को 27 फीसद आरक्षण देने की राजनीति राज्य गठन के बाद से ही शुरू हो गयी थी। सड़क से लेकर सदन तक इस मांग को लेकर आवाजें भी बुलंद होती रही हैं, लेकिन इसकी मांग तब कुछ खास तबके और राजनीतिक दल और उनमें भी खासकर आजसू तक ही सीमित थी। पर झारखंड विधानसभा चुनाव में आज यह मुद्दा हॉट केक बन गया है। चुनाव की घोषणा के साथ ही लगभग सभी विपक्षी दलों ने पिछड़े वर्ग को न सिर्फ साधना शुरू कर दिया, बल्कि इसे अपने चुनावी घोषणापत्र के प्रमुख एजेंडों में शामिल कर लिया। अब तो इस राजनीति में भाजपा और कांग्रेस जैसी राष्ट्रीय पार्टियों के साथ-साथ प्रमुख क्षेत्रीय दल भी शामिल हो चुके हैं।

यदि जिंदगी हर पल इम्तिहान लेती है, तो राजनीति का मैदान भी राजनेताओं के लिए चुनौतियों और संभावनाओं का द्वार एक साथ खुला रखता है। राजनीति के इम्तिहान में जो चुनौतियों का सामना करते हुए इसे अवसर में तब्दील कर लेते हैं, उनके सिर जनता सत्ता का ताज सजा देती है और जो जनता की उम्मीदों पर खरे नहीं उतरते, उन्हें विफलता का मुंह देखना पड़ता है। झारखंड में सात दिसंबर को होनेवाले दूसरे चरण के चुनाव में पाला बदलकर चुनाव लड़ने वाले छह दिग्गजों को कड़ी चुनौती से जूझना पड़ रहा है। इस चुनाव में इन दिग्गजों को जहां खुद को साबित करना है, वहीं उनके दलों को भी कड़ी परीक्षा देनी है। दूसरे चरण के चुनाव में झारखंड के दिग्गज नेताओं की राजनीति और उनकी चुनौतियों की पड़ताल करती दयानंद राय की रिपोर्ट।

30 नवंबर को झारखंड में पहले चरण का मतदान समाप्त होने के बाद राजनीतिक दलों और राजनीति के पंडितों की निगाहें दूसरे चरण की 20 सीटों पर जाकर अटक गयी हैं। वर्ष 2014 के विधानसभा चुनाव में इन बीस सीटों में से भाजपा और झामुमो ने आठ-आठ सीटों पर जीत हासिल की थी। वहीं आजसू दो सीटोें पर, कांग्रेस एक सीट पर और जय भारत समानता पार्टी के टिकट पर जगन्नाथपुर सीट से गीता कोड़ा ने विजय हासिल की थी। गीता कोड़ा अब विधायक से प्रमोशन पाकर सिंहभूम से सांसद बन चुकी हैं। दूसरे चरण की इन 20 सीटों में 13 सीटें कोल्हान और सात सीटें दक्षिणी छोटानागपुर प्रमंडल की हैं और इन सभी सीटों में सबसे हॉट जमशेदपुर पूर्वी है, जहां से मुख्यमंत्री रघुवर दास चुनाव के मैदान में हैं, वहीं जमशेदपुर पश्चिमी सीट से टिकट कटने के बाद इस सीट से सरयू राय बतौर निर्दलीय उम्मीदवार मैदान में हैं। इस मुकाबले को चतुष्कोणीय बनाते हुए तीसरे कोण पर कांग्रेस के प्रत्याशी और एक्सएलआरआइ के प्रोफेसर गौरव बल्लभ तथा चौथे कोण पर झाविमो के अभय सिंह चुनाव के मैदान में हैं। इन सीटों में जहां कोल्हान की 13 सीटों पर झामुमो के सामने अपना गढ़ बचाने की चुनौती है, वहीं भाजपा के सामने खुद को साबित करने की। आजसू और कांग्रेस इस चरण में अपनी जीती हुई सीटों पर कब्जा बरकरार रखने की कोशिश करेंगी। वहीं जय भारत समानता पार्टी का अब कांग्रेस में विलय हो चुका है। जमशेदपुर पूर्वी सीट को केंद्र में रखते हुए इन 20 सीटों पर भाजपा और झामुमो की चुनौतियों पर नजर डालती दयानंद राय की रिपोर्ट।

किसी के दबाव में न आकर और अपने दम पर 52 सीटों पर उम्मीदवार उतारकर जहां आजसू ने अपनी ताकत दिखायी है, वहीं एकला चलो की राह पर चलते हुए झाविमो सुप्रीमो बाबूलाल मरांडी ने भी अपनी तथा अपनी पार्टी का दमखम साबित किया है। दरअसल सुदेश महतो हों या बाबूलाल मरांडी, इन दोनों ने राजनीति की शतरंज पर ऐसी चाल चली है कि भाजपा को न सिर्फ यह दोहराना पड़ा है कि चुनाव के बाद भी भाजपा आजसू के साथ रहेगी, बल्कि अमित शाह को बाबूलाल को साधने का प्रयास भी करना पड़ा है। भाजपा झारखंड में किसी भी कीमत पर दुबारा सरकार बनाना चाहती है और इस काम में उसे साझीदार की जरूरत महसूस होने लगी है। बीते चुनाव में भाजपा और आजसू के गठबंधन ने पार्टी का मजबूत सरकार बनाने और चलाने में मदद की थी। इस दफा भी भाजपा कुछ-कुछ ऐसा ही रिजल्ट चाहती है। भाजपा के राष्टÑीय अध्यक्ष अमित शाह के बयान के निहितार्थ और झारखंड में झाविमो तथा आजसू की बढ़ती ताकत को रेखांकित करती दयानंद राय की रिपोर्ट।

झारखंड विधानसभा का यह चुनाव कई मायनों में बेहद महत्वपूर्ण है। किसी की जीत और किसी की हार से इतर इस चुनाव की अहमियत इसलिए भी है कि इसके परिणाम से राज्य के चार प्रमुख राजनीतिक दलों के सुप्रीमो के सियासी भविष्य का फैसला होगा। भाजपा के नेतृत्वकर्ता मुख्यमंत्री रघुवर दास और झारखंड मुक्ति मोर्चा के कार्यकारी अध्यक्ष हेमंत सोरेन की साख अगर दांव पर लगी है, तो झारखंड विकास मोर्चा के केंद्रीय अध्यक्ष बाबूलाल मरांडी और आजसू पार्टी के सुप्रीमो सुदेश कुमार महतो की आगे की राजनीति की दशा-दिशा क्या होगी, यह इस चुनाव के नतीजों से तय होगा। ये चारों योद्धा चुनावी रणक्षेत्र में अपने युद्ध कौशल और शौर्य का जैसा प्रदर्शन करेंगे, उसी के आधार पर उनकी पार्टियों की हैसियत भी निर्धारित होगी। इन चारों से उनके समर्थकों और कार्यकर्ताओं की उम्मीदें जुड़ी हैं। इनके सामने सिर्फ अपनी सीट पर फतह हासिल करने चुनौती ही नहीं है, बल्कि इन पर पूरी पार्टी का दारोमदार है। इन्हें कुछ ऐसा करना है, जिससे ये खुद को बेहतर नेता भी साबित कर सकें, जिसके लिए इनके दल और नेताओं ने इन पर ऐतबार किया है। ऐसे में यदि चूक हुई, तो ये न सिर्फ सत्ता और सल्तनत की रेस में पिछडेंगे, बल्कि कार्यकर्ताओं और नेताओं का भरोसा भी डिगेगा। सफलता का श्रेय भी इन्हें ही मिलेगा, तो विफलता का ठिकरा भी इन्हीं के सिर फूटेगा। चारों शीर्ष नेताओं की चुनौतियों पर निगाह डालती दीपेश कुमार की स्पेशल रिपोर्ट।

राजनीतिक रूप से झारखंड एक रोमांचक प्रदेश है। यहां की राजनीति अलग और मौलिक मानी जाती है। शायद यही कारण है कि 19 साल में इसने 10 मुख्यमंत्री देख लिया और तीन बार राष्टÑपति शासन भी झेल लिया। अभी झारखंड में पांचवीं विधानसभा के गठन के लिए चुनाव हो रहे हैं। इस चुनाव में लोगों की खास नजर उन सीटों पर है, जिन पर पिछले 15 साल से एक ही पार्टी का कब्जा रहा है। चाहे भाजपा हो या कांग्रेस, झामुमो हो या कोई दूसरा दल, सभी ने अपने इन किलों को अभेद्य बना कर रखा है। लोग इस बात को लेकर उत्सुक हैं कि क्या इस बार इन अभेद्य दुर्गों में सेंध लग सकेगी और दूसरे दलों के प्रत्याशी यहां से जीत सकेंगे। आखिर क्या है इन सीटों की खासियत और क्यों यहां के मतदाता एक ही पार्टी को समर्थन देते आये हैं, इन सवालों का जवाब तलाशती दीपेश कुमार की खास रिपोर्ट।

झारखंड विधानसभा का पहले चरण का चुनाव महज चार दिन बाद होना है। कुल 13 सीटों पर होनेवाले इस चुनाव में क्या होगा या हो सकता है, इसको लेकर राजनीतिक पंडित बेहद परेशान हैं, क्योंकि उन्हें न तो मतदाताओं के मन-मिजाज की भनक मिल रही है और न ही राजनीतिक परिस्थितियों का मतलब समझ में आ रहा है। बहुकोणीय मुकाबले के इस चुनाव में कहां किसका पलड़ा भारी है या हो सकता है, इस बारे में कोई टिप्पणी करने के लिए तैयार नहीं है। आखिर पहले चरण के चुनाव को लेकर इतना कन्फ्यूजन क्यों है और इसकी वजह क्या है, इस बात को जानना जरूरी है। चुनाव के माहौल में राजनीतिक बहसबाजी और विश्लेषणों से अलग इन 13 सीटों की हकीकत यह है कि यहां चुनावी अखाड़े में उतरा हर शख्स परेशान है। उम्मीदवारों की तो हालत यह है कि किसी के सामने सीट बचाने की चुनौती है, तो कोई वापसी के लिए जमीन-आसमान एक किये हुए है। किसी के सामने अपनी पार्टी को स्थापित करने की चैलेंज है, तो किसी के समक्ष सहयोगी दलों का वोट ट्रांसफर कराने के साथ मतों के बिखराव को रोकने की चुनौती। इन तमाम कारणों से पहले चरण का चुनाव बेहद दिलचस्प और रोमांचक हो गया है। इसी रोमांच और दिलचस्पी को रेखांकित करती आजाद सिपाही पॉलिटिकल ब्यूरो की विशेष रिपोर्ट।