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हम बात कर रहे हैं लोकसभा चुनाव में नमो इफेक्ट की। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने गत मंगलवार को रांची में रोड शो किया, तो बुधवार को लोहरदगा में चुनावी रैली की। दोनों ही जगहों पर मोदी को जबरदस्त समर्थन मिला। मोदी की इस यात्रा ने जहां एनडीए गठबंधन को मजबूत बना गया, वहीं भाजपा कार्यकर्ता एक सूत्र में बंधे नजर आने लगे हैं। अपने सबसे बड़े स्टार के झारखंड दौरे की सफलता से भाजपा उत्साहित है। भाजपा का दावा है कि मोदी के दौरे का सकारात्मक असर राज्य भर की सीटों पर पड़ा है और इससे महागठबंधन के नेताओं की नींद उड़ गयी है।
इसके विपरीत महागठबंधन के घटक दलों ने मोदी के दौरे को पूरी तरह विफल करार दिया है। हालांकि राजनीतिक हलकों में यह चर्चा है कि रांची में मोदी के रोड शो और लोहरदगा की चुनावी सभा ने काफी असर डाला है। दोनों कार्यक्रमों में महिलाओं की मौजूदगी ने भी भाजपा को उत्साह से लबरेज किया है। खुद मोदी भी यहां के लोगों की गर्मजोशी के मुरीद हुए। मोदी के दौरे के क्या हैं इफेक्ट और उसने कार्यकर्ताओं को कैसे जगा दिया है, इस पर प्रकाश डाल रहे हैं आजाद सिपाही के राजनीतिक संपादक ज्ञान रंजन।

हम बात कर रहे हैं राजधानी रांची की बगल में स्थित खूंटी लोकसभा सीट पर हो रहे चुनाव की। यहां मुख्य रूप से भाजपा और कांग्रेस में ही भिड़ंत है। पर यहां नजरें नागपुर और छोटानागपुर दोनों की टिकी हैं। नागपुर से तात्पर्य है आरएसएस और विश्व हिंदू परिषद के लिए यह सीट प्रतिष्ठा का विषय बन गयी है। वहीं छोटानागपुर यानी मिशनरी शक्तियों के लिए खंूटी खास फोकस का केंद्र बना हुआ है। दरअसल खूंटी में दो धाराएं साथ-साथ बहती रही हैं। एक धारा आरएसएस की, तो दूसरी धारा इसाई मिशनयिों की। खूंटी को इसाई मिशनियों का गढ़ माना जाता रहा है, तो आरएसएस की भी यहां जमीनी पकड़ रही है। दोनों ही यहां की राजनीति को प्रभावित करते रहे हैं। आजादी के बाद का राजनीतिक इतिहास पलटें, तो कई ऐसे सांसद और विधायक के नाम सामने आयेंगे, जिनकी जीत में मिशनरी शक्तियों की खास भूमिका रही है। वहीं, समानांतर रूप से यहां संघीय ताकतों का प्रभाव भी बढ़ा। हाल के वर्षों में संघ यहां ज्यादा मजबूत हुआ। इसके कारण समानांतर पत्थलगड़ी जैसी राष्टÑीय समस्या बनती जा रही व्यवस्था से खूंटी को निजात तो मिली ही, साथ ही मिशनरी शक्तियों का प्रभाव भी कम हुआ है। हालांकि इन सबके बीच इस क्षेत्र से आठ बार सांसद रहे कड़िया मुंडा अपवाद जरूर रहे, जो मिशनरी ताकतों के बीच भी लगातार यह सीट निकालते रहे। संघ और मिशनरी शक्तियों के लिए प्रतिष्ठा का विषय बन चुकी खूंटी लोकसभा सीट की समीक्षा कर रहे हैं हमारे राज्य समन्वय संपादक दीपेश कुमार।

आज हम बात करेंगे इस चुनाव में कैसे लोकतंत्र मजबूत हो रहा है, कैसे जनता खुल कर अभिव्यक्ति की आजादी का मजा ले रही है। विश्व का सबसे बड़ा लोकतांत्रिक देश भारत है। यही एकमात्र देश है, जहां की जनता के लिए चुनाव महापर्व होता है। लोगों को एक साथ होली-दिवाली मनाने का मौका मिलता है। संविधान ने हमें कई आजादी दे रखी है, जिसमें सबसे अहम है अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता। इस बार के चुनाव में जनता बिंदास होकर प्रत्याशियों के समक्ष अपनी बात रख रही है। प्रत्याशियों से ऐसे सवाल कर रही है, मानो वे मीडिया ट्रायल पर हों। हर जगह जनता जैसे प्रत्याशियों से सवाल कर रही है, उससे यह भी साफ हो जा रहा है कि लोकतंत्र में असली मालिक जनता है। यह भी सच है कि सवालों की गिरफ्त में वही आयेंगे, जिनका क्षेत्र में होल्ड हो, जिनसे जनता को लगाव हो। इस चुनाव में दिख रहे लोकतंत्र के शृंगार, कैसे मिली हुई है जनता को बिंदास अभिव्यक्ति की आजादी, कैसे उसकी बातों पर गौर फरमा रहे हैं प्रत्याशी, इस पर प्रकाश डाल रहे हैं ज्ञान रंजन।

आज हम बात कर रहे हैं झारखंड में महागठबंधन में शामिल दलों की स्थिति पर। झारखंड के पहले चरण का चुनाव 29 अप्रैल को होगा। इस दिन तीन सीटों चतरा, लोहरदगा और पलामू पर वोट डाले जायेंगे। इधर दूसरे चरण की नामांकन प्रक्रिया भी पूरी हो चुकी और तीसरे तथा चौथे चरण की जारी है। राजग ताल ठोक कर मैदान में है। पर अब तक विपक्षी महागठबंधन की सक्रियता नजर नहीं आ रही। अभी तक विपक्षी एकता की धमक कहीं दिखायी नहीं पड़ी, जिसका शोर-शराबा छह माह पहले से हो रहा था। चुनाव को लेकर तमाम विपक्षी दलों ने छह महीने तक भूमिका तैयार की। महागठबंधन बनाया। पर गौर करनेवाली बात यह है कि नामांकन की प्रक्रिया शुरू होने के बाद महागठबंधन का जोश और जज्बा दिखायी नहीं पड़ा, जिसे विपक्ष के लोग देखने की अपेक्षा कर रहे थे। हालांकि इन सबके बीच बाबूलाल मरांडी और शिबू सोरेन के नामांकन के अवसर पर उसकी एक झलक जरूर दिखायी पड़ी। सबसे पहले कोडरमा सीट से बाबूलाल के नामांकन के दौरान गिरिडीह में विपक्ष के दिग्गज जरूर जुटे। फिर फुरसत की चादर तान कर सो गये। उनकी एक झलक सोमवार को भी देखने को मिली, जब शिबू सोरेन दुमका से नामांकन करने गये। इनमें हेमंत सोरेन से लेकर डॉ अजय कुमार और गौतम सागर राणा तक शामिल रहे। यहां यह भी गौर करनेवाली बात है कि महागठबंधन के संयुक्त स्टार प्रचारकों की सूची तक नहीं बनी है और न ही उनका कोई कार्यक्रम जनता के बीच है। उधर, एनडीए है कि झारखंड की चौदह सीटों पर हांक लगा रहा है। चुनाव से पहले एनडीए नाम की चीज विलुप्त होने के कगार पर थी, लेकिन जैसे ही चुनाव की घोषणा हुई, राजग का प्रमुख घटक दल आजसू अपने तमाम गिले-शिकवे भुला कर भाजपा के गले मिल गयी। उसके सुप्रीमो सुदेश महतो हर प्रमुख नामांकन में मौजूद रहे। एक समय लगता था कि रघुवर दास और आजसू प्रमुख सुदेश महतो के बीच की दूरी चौड़ी हो गयी है, लेकिन चुनावी बिगुल बजते ही दोनों साथ-साथ हो गये और अब तो दोनों की यात्राएं साथ-साथ हो रही हैं। दोनों ही देश में एक बार फिर मोदी को प्रधानमंत्री बनाने के लिए अपनी भूमिका का निर्वहन कर रहे हैं। महागठबंधन में शामिल विपक्षी दलों के नेताओं की एक दूसरे से बढ़ती दूरियां और छिन्न-भिन्न होती टीम पर नजर डाल रहे हैं दीपेश कुमार।

हम बात कर रहे हैं झारखंड की राजनीति में एक ऐसे शख्स और पार्टी की, जिनकी चर्चा के बिना कभी भी झारखंड के राजनीतिक इतिहास की इबारत को लिखना संभव नहीं होगा। वह शख्स हैं दिशोम गुरु और पार्टी है झामुमो। राजनीतिक परिदृश्य की बात करें, तो पूरे देश में लोग शिबू सोरेन को जानते हैं। अभी चुनाव का दौर है। चुनावी तपिश से पूरा झारखंड तप रहा है। युद्ध का बिगुल बज चुका है। योद्धा भी कमर कस कर रण में उतर चुके हैं, लेकिन बड़े-बड़े दिग्गज इस बार चुनावी मैदान में हैं। शिबू सोरेन की चर्चा यहां इसलिए भी जरूरी है क्योंकि राजनीति की इसी पाठशाला से गुरुजी ने कई योद्धाओं को तैयार किया। झामुमो से निकलने के बाद अर्जुन मुंडा और विद्युत वरण महतो राजनीति के फलक पर खूब चमके। वहीं हेमलाल मुर्मू अब भी संसद का ठिकाना खोज रहे हैं। हालांकि वह भाजपा में बड़े आदिवासी लीडर के रूप में पहचान बना चुके हैं। आलम यह है कि आज ये तीनों झामुमो के लिए बड़ी चुनौती बन गये हैं। शायद राज्य के राजनीतिशास्त्र का सूत्रवाक्य ही है कि परिवर्तन के सिवाय कुछ भी स्थायी नहीं होता। आज इन लोगों ने अपना नया मुकाम तय कर लिया है। आज शिबू सोरेन इन मूर्धन्य सहयोगियों के लिए बेगाने हो गये हैं। इसी पर फोकस करती राजीव की विशेष रिपोर्ट।

झारखंड की चतरा, लोहरदगा और पलामू लोकसभा सीटों पर मंगलवार को नामांकन की प्रक्रिया पूरी हो गयी। अब ये तीनों सीटें पूरी तरह चुनावी मोड में हैं। आज हम इन्हीं तीनों सीटों की बात करने जा रहे हैं, जहां पूरी तरह केंद्र और राज्य में सत्तारूढ़ भाजपा की प्रतिष्ठा दांव पर लगी हुई है। इन पर वापस कब्जा पाना भाजपा के लिए बड़ी चुनौती होगी। इन सीटों पर विपक्ष के पास खोने के लिए कुछ भी नहीं है। ये तीनों सीटें फिलहाल भाजपा के कब्जे में हैं। पलामू से पूर्व डीजीपी वीडी राम, लोहरदगा से केंद्रीय राज्यमंत्री सुदर्शन भगत और चतरा से सुनील सिंह सांसद हैं। भाजपा के लिए इन सीटों का महत्व कितना है, इसका अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि तीनों के ही नामांकन में मुख्यमंत्री रघुवर दास और प्रदेश भाजपा के तमाम पदाधिकारी मौजूद रहे। क्योंकि मुख्यमंत्री रघुवर दास सहित प्रदेश भाजपा के तमाम पदाधिकारी यह अच्छी तरह जानते हैं कि इनमें से एक भी सीट अगर खिसकी, तो सभी की साख पर संकट गहरायेगा। क्या है इन तीनों सीटों की चुनावी चुनौतियां और भारतीय जनता पार्टी उससे कैसे निपटेगी, इस पर प्रकाश डाल रहे हैं दीपेश कुमार।

झारखंड में लोकसभा चुनाव को लेकर तमाम गहमा-गहमी के बीच इस बात की चर्चा जोरों पर है कि क्या भाजपा पिछले चुनाव का अपना प्रदर्शन दोहरा पायेगी और 47 लाख वोट पाने का रिकॉर्ड तोड़ सकेगी। भाजपा के नेता ऐसा करने का दावा करते हैं, लेकिन विपक्ष की ओर से भाजपा प्रत्याशियों की जिस तरह घेरेबंदी की गयी है, उससे भाजपा को परेशानी हो सकती है। भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष लक्ष्मण गिलुआ को पार्टी ने चाईबासा से फिर मैदान में उतारा है, लेकिन कांग्रेस ने गीता कोड़ा को अपना प्रत्याशी घोषित कर उन्हें मानो चक्रव्यूह में फंसा दिया है। गीता कोड़ा जगन्नाथपुर की विधायक हैं और हाल ही में कांग्रेस में शामिल हुई हैं। कांग्रेस के पास लक्ष्मण गिलुआ को घेरने के लिए बागुन सुंब्रुई के बाद यदि कोई सशक्त चेहरा था, तो वह गीता कोड़ा ही थीं। खुद गीता कोड़ा के लिए भी यह चुनाव अग्निपरीक्षा है, क्योंकि इस चुनाव से ही इलाके में उनकी राजनीतिक हैसियत का आकलन होगा। गीता कोड़ा पिछले लोकसभा चुनाव में अपने पति मधु कोड़ा की पार्टी जय भारत समानता पार्टी के टिकट पर यहां से चुनाव लड़ी थीं और तमाम झंझावातों के बावजूद उन्होेंने दूसरा स्थान हासिल किया था। उस चुनाव में विपक्ष एकजुट नहीं था और गीता कोड़ा के सामने लक्ष्मण गिलुआ के साथ कांग्रेस और सरकार की जांच एजेंसियों का जाल भी था। इस तिकोने घेरे से भी गीता ने शानदार मुकाबला किया था और महज 2.15 लाख वोट हासिल किया था। इस बार तो उन्हें पूरे विपक्ष का समर्थन हासिल है। चाईबासा का यह चक्रव्यूह कितना असरकारक होगा और लक्ष्मण गिलुआ इससे कैसे निकल पायेंगे, इस पर आजाद सिपाही पॉलिटिकल ब्यूरो की विशेष रिपोर्ट।

रांची के राजनीतिक क्षेत्र में पिछले चार दशक से जो एक नाम हर राजनीतिक दल में लिया जाता है, वह है सुबोधकांत सहाय का। जनता पार्टी से 1978 में पहली बार हटिया विधानसभा क्षेत्र से विधायक बने सुबोधकांत राजनीति के ऐसे खिलाड़ी हैं, जिन्होंने हमेशा अपनी शर्तों पर अपने तरीके से रास्ते तय किये। विधायक से दो बार के सांसद और केंद्रीय मंत्री तक का सफर उन्होंने केवल इसलिए तय किया, क्योंकि उन्होंने कभी अपने सिद्धांतों से समझौता नहीं किया। रांची और यहां के लोगों के बीच भैया के नाम से चर्चित यह शख्स सचमुच अपना सारा समय राजनीति में व्यतीत करता है। रांची के इस चर्चित राजनीतिक चेहरे को कांग्रेस ने लगातार चौथी बार लोकसभा का टिकट देकर झारखंड में सबसे हॉट दांव खेला है। अब तक यह तय नहीं हुआ है कि सुबोधकांत के सामने भाजपा का कौन प्रत्याशी होगा, लेकिन इतना तय है कि उनका प्रतिद्वंद्वी जो भी होगा, उसके लिए मुकाबला आसान नहीं होगा, क्योंकि सुबोधकांत ऐसा चेहरा हैं, जो साढ़े चार साल से लगातार राजनीतिक फील्ड में हैं। उनकी राजनीतिक सक्रियता का ही यह प्रतिफल है कि इस बार कांग्रेस ने सबसे पहले उनकी उम्मीदवारी की घोषणा की। 2014 के चुनाव में सुबोधकांत को रांची से ही टिकट के लिए एड़ी-चोटी एक करना पड़ा था। यहां तक कि रांची से हजारों की संख्या में कार्यकर्ता दिल्ली गये थे और कार्यकर्ताओं के दबाव पर ही उन्हें मैदान में उतारा गया। हालांकि सुबोधकांत सहाय चुनाव हार गये थे। इसका एक प्रमुख कारण देश में मोदी लहर थी और उनके सामने थे भाजपा के आजमाये हुए पुराने नेता रामटहल चौधरी। इस बार कांग्रेस आलाकमान के पास रांची सीट पर उम्मीदवारी के लिए सुबोधकांत एकमात्र नाम थे। आलाकमान ने उनकी राजनीतिक सक्रियता को महसूसा और जंग में उतार दिया। जबकि इसी कांग्रेस में अभी तक झारखंड की चार सीटों से उम्मीदवार का चयन नहीं हो पाया है। उधर भाजपा भी उम्मीदवार चयन को लेकर परेशानी फेस कर रही है। रांची से सुबोधकांत सहाय को उम्मीदवार बनाने के क्या हैं मायने और इसका कितना लाभ कांग्रेस को मिल सकता है, इसकी पड़ताल करती आजाद सिपाही पॉलिटिकल ब्यूरो की विशेष रिपोर्ट।

अगर आप यह सोच रहे हैं कि इस चुनाव में नक्सली बैकफुट पर आ गये हैं, पुलिसिया दबिश और सरकारी व्यवस्था के कारण नक्सली तंत्र पूरी तरह फेल हो गया है, तो यह आपकी गलतफहमी है। कारण इस बार नक्सलियों ने अपना चोला बदल लिया है। इस बार झारखंड में भी नक्सली चुनाव के दौरान वह काम करनेवाले हैं, जिसे सुन कर शायद आपको एकबारगी विश्वास नहीं हो। दरअसल, इस बार झारखंड में भी छत्तीसगढ़ की तर्ज पर नक्सली चुनाव में सक्रिय हो गये हैं। पहले नक्सली बुलेट-बंदूक के सहारे वोट का बहिष्कार करने की धमकी देते थे, लेकिन इस बार बुलेट को जंगल में ही छोड़ गांव-गांव में वोट धमाका करने की तैयारी में हैं। अब नक्सली वोट करने के लिए दबाव बनायेंगे। इसके लिए नक्सली ग्रामीण इलाकों में एनजीओ और अन्य संगठनों का भी सहारा छिपे रूप से ले रहे हैं। जानकारी के अनुसार नक्सलियों ने खूंटी, चाईबासा, लोहरदगा और चतरा को सेंटर बनाया है। नक्सलियों के निशाने पर इस बार भाजपा सरकार और नेता हैं। संथाल परगना में भी असर डालने की तैयारी में नक्सली जुटे हुए हैं। नक्सलियों की इस रणनीति पर प्रकाश डाल रहे हैं राजीव।

आपने सुना तो होगा कि हार कर जीतने वाले को बाजीगर कहते है। जी हां आज हम एक ऐसी ही पार्टी की बात करने जा रहे हैं, जिसके ऊपर यह बात सटीक बैठती है। खुद को झारखंड आंदोलन की उपज बतानेवाली पार्टी आॅल झारखंड स्टूडेंट्स यूनियन, यानी आजसू पार्टी की पहचान आम तौर पर सत्ता के नजदीक रहनेवाली पार्टी के रूप में होती है। यह कुछ हद तक सही भी है, लेकिन पिछले पांच साल में इस पार्टी ने झारखंड की राजनीति में जिस तरह अपने को मजबूत बनाकर खड़ा किया है, वह भी गौर करने लायक है।
रांची संसदीय सीट के बाद सिल्ली विधानसभा क्षेत्र से लगातार दो बार चुनाव हारने के बावजूद आजसू पार्टी के अध्यक्ष सुदेश महतो ने हार नही मानी और उन्होंने अपनी राजनीतिक सोच और तजुर्बे का परिचय देते हुए विश्व की सबसे बड़ी पार्टी भाजपा को भी तालमेल करने और उस पर भरोसा करने पर मजबूर कर दिया। यह तालमेल भी प्रदेश स्तर पर नहीं, बल्कि देश के सबसे ताकतवर नेताओं में से एक अमित शाह के साथ सीधी बातचीत के बाद हुआ।
आजसू पार्टी ने पिछले पांच साल के दौरान कई उतार-चढ़ाव देखे हैं। हाल के दिनों में चुनावी राजनीति में उसका प्रदर्शन बेशक अच्छा नहीं रहा, लेकिन उसके नेतृत्व ने साफ कर दिया कि वह हार कर अवसादग्रस्त होनेवालों में नहीं है। आजसू ने रामगढ़ से लेकर कोडरमा, गिरिडीह और चाईबासा तक अपना एक अलग कॉरीडोर ही बना डाला है। पहली बार आजसू की शक्ति का अंदाजा तब हुआ, जब उसने बरही से लेकर बहरागोड़ा तक मानव शृंखला बना डाली। हाल में ही आजसू ने स्वाभिमान यात्रा के तहत अपनी ताकत का प्रदर्शन किया और इस क्र्रम में आजसू ने जनता की आवाज को बुलंद किया। आवाज इतनी दमदार थी कि वह विश्व की सबसे बड़ी पार्टी के अध्यक्ष अमित शाह के कानों तक पहुंची और उन्होंने आजसू प्रमुख युवा नेता सुदेश महतो को दिल्ली बुलाकर गिरिडीह सीट की कमान उनके हाथों में सौंप दी। इससे साफ जाहिर है कि आजसू एक विशेष वर्ग में ताकत बनकर उभरी है और गिरिडीह का यह चुनाव साबित कर देगा कि आजसू के युवा नेता सुदेश महतो की बाजुओं में कितनी ताकत है। राजनीतिक प्रेक्षकों का मानना है कि यह चुनाव आजसू की राजनीति को एक नयी दिशा और मुकाम देगा और साथ ही यह न्यू झारखंड की राजनीति में लंबी लकीर खींच देगा।
आजसू पार्टी की राजनीति, उसके उतार-चढ़ाव, उसकी ताकत और बढ़ते जनाधार पर पेश है आजाद सिपाही पॉलिटिकल ब्यूरो की विशेष रिपोर्ट।

झारखंड में ऐसे विधायकों की खासी तादाद है, जो सांसद के तौर पर प्रमोशन के ख्वाहिशमंद रहे हैं। इनमें से कुछ को लोकसभा के मैदान-ए-जंग में उतरने का मौका मिल रहा है, तो कई ऐसे हैं जिनकी हसरतें टिकट की लड़ाई में ही ध्वस्त हो गयीं। बड़ी पार्टियों ने ज्यादातर विधायकों की लोकसभा टिकट की दावेदारी खारिज कर दी है। कहने को झामुमो कह सकता है कि वह जगन्नाथ महतो पर दांव खेलेगा और कांग्रेस भी गीता कोड़ा का नाम ले सकती है। लेकिन सच यही है कि जगन्नाथ महतो भी पहले चुनाव लड़ चुके हैं और गीता कोड़ा का तो दूर-दूर तक कांग्रेस से वास्ता नहीं रहा है। अभी-अभी वह पार्टी में शामिल हुई हैं। दल के निष्ठावान और समर्पित विधायक अदद टिकट के लिए आलाकमान का मुंह
निहार रहे हैं।
आजसू और झाविमो से एक-एक विधायक चुनाव मैदान में उतरने वाले हैं, लेकिन इन सभी के साथ एक बात कॉमन है कि ये पहले भी लोकसभा चुनाव लड़ चुके हैं। विधायकों को संसदीय चुनाव के मैदान में नहीं उतारने का सीधा मतलब यही निकलता है कि कोई भी राजनीतिक दल ज्यादा रिस्क लेने के मूड में नहीं है। लेकिन इसका दूसरा पहलू यह भी है कि राजनीतिक दल अपने विधायक को आगे बढ़ाने में भरोसा नहीं करते। विधायकों को प्रमोशन नहीं मिलने के दूरगामी परिणाम भी होंगे। अगर लगातार एक ही व्यक्ति को लोकसभा का उम्मीदवार बनाया जाता रहा, तो जाहिर है वह अपने को सर्वशक्तिमान समझ लेगा और जिस दिन ये दल उसे किनारा लगाना चाहेंगे, वह पूरी पार्टी को ही चुनौती दे देगा। इस खास राजनीतिक परिस्थिति के बारे में आजाद सिपाही पॉलिटिकल ब्यूरो की विशेष रिपोर्ट।