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17वीं लोकसभा के लिए हुए चुनाव में सबसे चौंकानेवाला परिणाम उत्तरप्रदेश की अमेठी सीट का रहा, जहां कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी को भाजपा की स्मृति इरानी ने पटखनी दी। इससे पहले 1977 में अमेठी ने संजय गांधी को खारिज किया था, लेकिन उसका कारण इमरजेंसी थी। इस बार राहुल गांधी को खारिज कर अमेठी ने यह संदेश दे दिया है कि चुनावी राजनीति में कोई भी प्रत्याशी या पार्टी अपरिहार्य नहीं रह गया है। राहुल गांधी की हार के कारणों की समीक्षा कांग्रेस अपने स्तर से कर रही है और शायद उसका नतीजा आम लोगों के सामने नहीं आये, लेकिन अंग्रेजी अखबार दि हिंदू के उमर राशिद ने अमेठी के लोगों से राहुल गांधी की हार के कारणों को जानने की कोशिश की। उनकी यह रिपोर्ट पिछले दिनों प्रकाशित हुई। हम यहां उस रिपोर्ट का हिंदी अनुवाद प्रस्तुत कर रहे हैं।

बहुत दिन बाद बाबूलाल मरांडी का हुआ मोहभंग
पार्टी में बहुत बड़ी टूट का कारण भी रहे हैं प्रदीप यादव
पार्टी को जैसा चाहा, वैसा नचाया, बाबूलाल भी लगाते रहे मुहर
समर्पित कार्यकर्ताओं को किनारे रखा, अपनों को दी तरजीह
विधानसभा में विधायक दल का नेता कैसे रहेंगे!

आज हम चर्चा करेंगे कि क्या लोकसभा में जिन भाजपा विधायकों ने अपनी सीट पर पार्टी प्रत्याशी को जीत नहीं दिलायी है, उनका टिकट कटेगा! यह सवाल इसलिए किया जा रहा है क्योंकि चुनाव पूर्व ही पार्टी ने अपने सभी विधायकों को ताकीद कर रखी थी कि यदि उनके क्षेत्र में भाजपा प्रत्याशी की हार होगी, तो विधानसभा चुनाव में उन्हें टिकट देने पर पार्टी विचार नहीं करेगी। भाजपा के पांच विधायकों को छोड़ अन्य सभी विधायकों ने अपने-अपने क्षेत्र में पार्टी प्रत्याशी को बढ़त दिलायी है। मंत्री नीलकंठ सिंह मुंडा, स्पीकर दिनेश उरांव, पूर्व प्रदेश अध्यक्ष ताला मरांडी, विधायक बिमला प्रधान और शिवशंकर उरांव के विधानसभा क्षेत्र में भाजपा प्रत्याशी को हार का सामना करना पड़ा है। राजमहल से भाजपा प्रत्याशी हेमलाल मुर्मू अपने विधानसभा क्षेत्र बरहेट और भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष और चाईबासा से प्रत्याशी लक्ष्मण गिलुआ अपने विधानसभा क्षेत्र चक्रधरपुर से भी हार गये हैं। ऐसे में सवाल उठ रहा है कि क्या भाजपा छह महीने बाद होनेवाले विधानसभा चुनाव में भाजपा अपने निर्देशों को अमल में लायेगी। इसको लेकर भाजपा के अंदरखाने क्या चल रहा है, इस पर प्रकाश डाल रहे हैं ज्ञान रंजन।

लोकसभा चुनाव में महागठबंधन की झारखंड में करारी हार के बाद हाहाकार मच गया है। गंभीर संकट से जूझ रही खासकर कांग्रेस में हड़कंप मच गया है। हार से पैदा हुए हालात की समीक्षा के साथ पार्टी को संकट से बाहर निकालने पर चर्चा तेज हो गयी है। अब तो सीधे-सीधे कांग्रेस के प्रदेश अध्यक्ष डॉ अजय कुमार पर सवाल उठने लगे हैं। इसी को देखते हुए झारखंड कांग्रेस की कमान संभाल रहे डॉ अजय कुमार ने भी पद से इस्तीफा दे दिया है। झारखंड में कांग्रेस की हार इस लिहाज से भी असाधारण है कि पार्टी एक बार फिर आशा के अनुरूप प्रदर्शन नहीं कर पायी। कारण पांच महीने बाद ही झारखंड में विधानसभा का चुनाव है। ऐसे में लोकसभा की हार-जीत काफी अहम हो जाती है। इस हाल के बाद यह तय माना जा रहा कि कांग्रेस को संकट के दौर से उबारने के लिए अब संगठन के तौर-तरीकों से लेकर रीति-नीति में व्यापक और निर्णायक बदलाव का दबाव ज्यादा बढ़ गया है। इधर, एक बार फिर पूर्व सांसद फुरकान अंसारी और उनके पुत्र विधायक इरफान अंसारी ने नेतृत्व पर सीधा सवाल खड़ा कर दिया है।

खबर विशेष में आज हम बात कर रहे हैं भाजपा के संथाल फतह की रणनीति की। लंबे अरसे के बाद भाजपा ने आखिरकार इस लोकसभा चुनाव में संथाल फतह कर ही ली। फतह ऐसी की झारखंड के सबसे बड़े आदिवासी नेता को मुंह की खानी पड़ी। इतना ही नहीं झाविमो और कांग्रेस के दिग्गजों को भी उनके ही मैदान में जबरदस्त पटखनी दी। चाहे वह झाविमो के प्रदीप यादव हों या चुन्ना सिंह, कांग्रेस के आलमगीर आलम या झामुमो के शशांक शेखर भोक्ता और सीता सोरेन। सभी को उसके ही किले में घुसकर भाजपा ने परास्त किया है। भाजपा ने यह करिश्मा एक दिन में नहीं किया है। पिछले पांच वर्ष से संथाल पत: पर भाजपा काम कर रही थी। आदिवासी बहुल इस इलाके में विकास की बयार के साथ आमजन को जोड़कर भाजपा ने यह करिश्मा किया है। विकास के साथ संगठन को भी भाजपा ने यहां विकसित किया है। नतीजा सामने है, भाजपा ने संथाल की तीन सीट में से दो पर जीत हासिल की है। कैसे संथाल के किले पर भाजपा ने किया कब्जा, कौन थे इसके सूत्रधार और कैसे गुरुजी के अजेय रथ को भाजपा ने संथाल में रोका इसपर प्रकाश डाल रहे हैं आजाद सिपाही के राजनीतिक संपादक ज्ञान रंजन।

झारखंड की राजनीति में नेताओं का उतार-चढ़ाव होता रहता है। खासकर क्षेत्रीय दलों के अच्छे और बुरे दिन आते रहते हैं। आज से कुछ महीने पहले झारखंड की राजनीति में यह कयास लगाया जाने लगा था कि धीरे-धीरे सुदेश महतो की पकड़ ढीली पड़ती जा रही है और कुर्मी मतदाताओं का एक बड़ा वर्ग उनसे दूर चला गया है। इस तबके ने झामुमो के कार्यकारी अध्यक्ष हेमंत सोरेन के राजनीतिक भविष्य के बारे में चमकदार टिप्पणी शुरू की। लोग तो यह भविष्यवाणी भी करने लगे थे कि झारखंड में लोकसभा की अधिकांश सीटें महागठबंधन के खाते में चली जायेंगी और यहां भाजपा को मुंह की खानी पड़ेगी। कोई भाजपा को पांच सीटें दे रहा था, तो कोई छह। बड़ी मुश्किल से कुछ लोग भाजपा के खाते में सात सीटें डाल रहे थे। वह भी अगर-मगर के साथ। झारखंड की अधिकांश मीडिया का भी कमोबेश यही कयास था। लेकिन कहते हैं, राजनीति में अवसर आते हैं और वह अवसर आजसू पार्टी के सुप्रीमो सुदेश महतो के लिए भी आया। देश को मजबूत नेतृत्व देने की खातिर उन्होंने भाजपा से बिना शर्त हाथ मिलाया। उन्हें इसका पुरस्कार भी मिला और भाजपा आलाकमान ने उन्हें गिरिडीह सीट सौंप दी। पिछले दो चुनावों में सिल्ली से लगातार हार के बावजूद उम्मीदों का दामन थामे सुदेश महतो अपने मिशन में लग गये और पूरी ईमानदारी से भाजपा के साथ गले मिल कर मोदी को दोबारा प्रधानमंत्री बनाने के अभियान में जुट गये। नतीजा सामने हैं। सुदेश ने एक बार फिर न सिर्फ खुद को साबित कर दिखाया है, बल्कि एनडीए के वोट बैंक में इजाफा और विपक्ष के वोट बैंक के बिखराव का बड़ा कारण बन गये। एनडीए को 12 सीटों पर मिली जीत में सुदेश महतो की पार्टी आजसू का भी सम्यक प्रयास है। इस लोकसभा चुनाव में सुदेश महतो और उनकी पार्टी आजसू ने झारखंड की 25 सीटों पर अपनी पकड़ दिखायी है। इसी का नतीजा रहा कि इन 25 सीटों में से एक-दो सीटों को छोड़ दें, तो सभी सीटों पर जीत के अंतर का रिकॉर्ड बनाने की होड़ दिखायी पड़ी। आज झारखंड का जो राजनीतिक परिदृश्य बन गया है, उसमें सुदेश कुमार महतो की प्रासंगिकता अन्य क्षेत्रीय दलों के नेताओं की बनिस्बत ज्यादा बेहतर बनी है। भविष्य की संभावनाएं भी दिखने लगी हैं। इस लिहाज से अपने व्यक्तिगत और चारित्रिक गुणों के कारण सुदेश महतो झारखंड की संपूर्ण राजनीति के लिए डार्क हॉर्स साबित हो रहे हैं। लोकसभा सहित आगामी विधानसभा चुनावों के लिए चुनाव जिताऊ चेहरे की गारंटी तय करने वाले चेहरे के रूप में सुदेश की भी व्यावहारिक स्वीकार्यता होने लगी है। बशर्ते भाजपा भी लोकसभा की तरह विधानसभा में भी पूरे विश्वास के साथ इस चेहरे पर दांव खेले। अन्य क्षेत्रीय दलों के नेताओं की तुलना में सुदेश महतो की राजनीतिक पकड़ क्यूं सबसे मजबूत और सटीक रूप में सामने उभर कर आयी है, चुनाव परिणाम के तथ्यों और सुदेश की प्रासंगिकता की गहन विवेचना कर रहे हैं आजाद सिपाही के सिटी एडिटर राजीव।

लोकसभा चुनाव की गहमा-गहमी खत्म होने के साथ ही अब पार्टियां जीत-हार के विश्लेषण में लग गयी हैं। झारखंड की 14 सीटों के चुनाव परिणामों का गहन विश्लेषण तो अभी कई दिनों तक चलता रहेगा, लेकिन एक बात जो सबसे महत्वपूर्ण है, वह यह है कि इस चुनाव परिणाम ने झारखंड के विपक्षी दलों के लिए एक साथ कई सीख दे दिया है। चुनाव परिणाम से साफ हो गया है कि अब झारखंड का मतदाता, चाहे वह मुसलिम हो या इसाई, पिछड़ा हो या आदिवासी, किसी खास दल का वोट बैंक नहीं रह गया है। अब किसी भी जाति या समुदाय के लोगों को किसी दल से बैर नहीं रह गया है। यह चुनाव परिणाम इस बात को भी साफ करता है कि झारखंड में पैदा हुआ वोटर, जिसने इस बार पहली बार मतदान किया है, अब दल या चेहरा नहीं देखता, बल्कि काम देखता है और तब अपने मताधिकार का इस्तेमाल करता है। इसलिए अब झारखंड में पारंपरिक कार्ड की राजनीति नहीं चलनेवाली है। राजनीतिक दलों के लिए यह रेखांकित करनेवाली बात है। झारखंड में नये किस्म की राजनीति और मतदान के नये ट्रेंड का विश्लेषण करती आजाद सिपाही के स्थानीय संपादक विनोद कुमार की खास रिपोर्ट।