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कांग्रेस अध्यक्ष बनने के बाद राहुल गांधी गुरुवार को दूसरी बार झारखंड आये। उन्होंने सिमडेगा में चुनावी रैली की। खूंटी संसदीय क्षेत्र के अधीन आनेवाला सिमडेगा आदिवासी और इसाई बहुल इलाका है। राजनीतिक हलकों में यह सवाल उठना लाजिमी है कि आखिर राहुल गांधी इतनी देर से झारखंड क्यों आये। राज्य में पहले चरण के तहत तीन संसदीय सीटों पर चुनाव खत्म हो चुके हैं। इनमें से चतरा और लोहरदगा में जहां कांग्रेस के प्रत्याशी चुनाव मैदान में थे, वहीं पलामू में राजद का उम्मीदवार था। अब दूसरे चरण के तहत रांची, खूंटी, कोडरमा और हजारीबाग में चुनाव होना है। इनमें से तीन सीटों, रांची, खूंटी और हजारीबाग में कांग्रेस ने प्रत्याशी उतारे हैं, वहीं कोडरमा में झाविमो सुप्रीमो बाबूलाल मरांडी अपनी किस्मत आजमा रहे हैं। सवाल यह भी उठ रहा है कि आखिर कांग्रेस अध्यक्ष पहले चरण की सीटों पर प्रचार के लिए क्यों नहीं आये, जबकि वहां पार्टी को प्रचार की अधिक जरूरत थी। इतना ही नहीं, उन तीन सीटों पर कांगे्रस की पहली पंक्ति का कोई भी नेता प्रचार के लिए नहीं गया। राहुल गांधी इससे पहले लोकसभा चुनाव से ठीक पहले दो मार्च को झारखंड आये थे और रांची के मोरहाबादी मैदान में परिवर्तन उलगुलान रैली को संबोधित किया था। राहुल गांधी की झारखंड में इस पहली चुनावी रैली के राजनीतिक मायनों का विश्लेषण करती आजाद सिपाही पॉलिटिकल ब्यूरो की रिपोर्ट।

हम बात करने जा रहे हैं आदिवासी मतदाताओं में कांग्रेस और भाजपा जैसे राष्टÑीय दलों की पैठ की। आदिवासी वोटरों में किसकी कितनी पैठ है, लंबे समय से इसे लेकर बहस हो रही है। दोनों ही दल आदिवासी मतदाताओं के दिलों में जगह बनाने में वर्षों से पुरजोर कोशिश करते आ रहे हैं। पिछले कुछ वर्षों में कांग्रेस जहां दावा करती आ रही है कि भाजपा के शासन में आदिवासियों के लिए कुछ नहीं किया गया, उलटे अदिवासियों की जमीन लूटने की कोशिश की जा रही है आदि…आदि। वहीं, भाजपा का दावा है कि पिछले साढ़े चार वर्षों में आदिवासियों का जितना विकास हुआ, उतना कभी नहीं हुआ था। इस लोकसभा चुनाव में ही दोनों दल इन्हीं मुद्दों को लेकर आदिवासियों के बीच जा रहे हैं। लोकसभा चुनाव का बिगुल बजने के बाद से ही राज्य की तीन सीटों लोहरदगा, खूंटी और चाईबासा को लेकर चर्चाएं तेज हो गयी हैं। तीनों ही सीटें आदिवासियों के लिए आरक्षित हंै। इन तीनों सीटों पर आदिवासी मतदाताओं की बहुलता है। तीनों ही सीटें फिलहाल भाजपा के कब्जे में हैं। इस बार ये सीटें महागठबंधन के तहत कांग्रेस के खाते में गयी हैं। दरअसल ये तीन सीटें ही आगामी विधानसभा चुनावों में आदिवासियों के लिए आरक्षित 28 सीटों का प्लॉट तैयार करेंगी। ये तय करेंगी कि अगले विधानसभा चुनावों में राज्य में आदिवासियों का रुझान क्या होगा और उनके लिए आरक्षित सीटों पर कौन भारी पडेÞगा। इसलिए इन तीन सीटों पर भाजपा और कांग्रेस दोनों ही राष्टÑीय दलों की प्रतिष्ठा दांव पर लगी है। माना जा रहा है कि ये तीनों सीटें आदिवासी मतदाताओं का रुझान तो स्पष्ट करेंगी ही, साथ ही झारखंड में कांग्रेस की दशा और दिशा भी निर्धारित करेंगी। मजेदार बात है कि इस बार के चुनाव में घोर आदिवासी बहुल क्षेत्र दुमका या राजमहल की बात नहीं हो रही। न ही रांची और हजारीबाग जैसी सामान्य सीटों को लेकर चर्चा हो रही है, बल्कि आश्चर्यजनक रूप से चर्चा के केंद्र में खूंटी, लोहरदगा और चाईबासा की सीटें ही हैं। आदिवासी मतदाता और राष्टÑीय पार्टियों के इस गणित का आकलन कर रहे हैं दीपेश कुमार।

झारखंड में लोकसभा चुनाव की गहमा-गहमी के बीच कई पुराने मिथक ध्वस्त हो रहे हैं, तो कई नये समीकरण भी बन रहे हैं। पार्टियां और नेता लगातार अपनी ठोस भूमिका को लेकर सक्रिय हैं। इनमें से कई तो केवल पार्टी आलाकमान को प्रभावित करने के लिए अपनी सक्रियता दिखा रहे हैं। लेकिन इन सभी पार्टियों से अलग आजसू पार्टी राज्य की सभी 14 संसदीय सीटों पर समान रूप से सक्रिय है और भाजपा की सहयोगी के रूप में जमीनी स्तर पर लगातार काम कर रही है। आजसू की इस सक्रियता के पीछे कहीं न कहीं इसके सुप्रीमो सुदेश महतो की रणनीति है। आज की तारीख में यदि यह कहा जाये कि सुदेश महतो झारखंड में भाजपा के लिए ह्यरक्षा कवचह्ण की भूमिका में आ गये हैं, तो गलत नहीं होगा। राजनीतिक हलकों में यह सवाल भी उठने लगा है कि आखिर सुदेश महतो की इस अतिसक्रियता के राजनीतिक संकेत क्या हैं। क्या इसके पीछे केवल सुदेश की रणनीति है या फिर भाजपा की सोची-समझी राजनीतिक पहल। वैसे झारखंड की राजनीति के दलदल भरे परिदृश्य में सुदेश महतो ने न केवल आजसू को मजबूती से खड़ा रखा है, बल्कि कई अवसरों पर अपनी रणनीतिक चतुराई का परिचय भी दिया है। झारखंड के चुनावों में सुदेश महतो की सक्रियता और इसके राजनीतिक मायनों को तलाश करती आजाद सिपाही पॉलिटिकल ब्यूरो की विशेष रिपोर्ट।

आज हम आपको बता रहे हैं कि कैसे झामुमो से दरक रहा है ट्रिपल एम का विश्वास। झारखंड में झामुमो की राजनीति महतो, मुस्लिम और मांझी के बूते चमकी थी। कह सकते हैं कि झामुमो का आधार वोट ही यही था। इन्हीं के बूते झामुमो सुप्रीमो शिबू सोरेन झारखंड की राजनीति में उभरे थे। समय के साथ महतो और मुस्लिम का विश्वास झामुमो से टूटता जा रहा है। गुरुजी की राजनीति के पांच स्तंभ हुआ करते थे। संथाल में सूरज मंडल, कोयलांचल में बिनोद बिहारी महतो, छोटानागपुर में टेकलाल महतो, कोल्हान में निर्मल महतो और शैलेंद्र महतो। इन पांचों में आज की तारीख में इनके साथ कोई नहीं है। कभी झामुमो झारखंड में राजनीति का पाठशाला हुआ करता था, मगर अब इस पाठशाला से नये चेहरे नहीं निकल रहे हंै। अलबत्ता उधार के चेहरे से इनकी गाड़ी चल रही है। आलम यह है कि झामुमो अब क्षेत्र विशेष में सिमटता जा रहा है। क्यों झारखंड में सिमटता जा रहा है झामुमो, इस पर प्रकाश डाल रहे हैं ज्ञान रंजन।

मिशन 2019 में भाजपा ने झारखंड की सभी 14 सीटों को जीतने का लक्ष्य रखा है। इस प्लान में यह भी स्पष्ट किया गया है कि जहां भाजपा के विधायक हैं, वहां से लोकसभा चुनाव में लीड आवश्यक है। पहले यह बात अंदरखाने से चल रही थी, लेकिन चार दिन पहले मुख्यमंत्री रघुवर दास ने यह कह कर भाजपा विधायकों की नींद उड़ा दी है कि जहां से लीड नहीं मिलेगी, वहां विधायकों पर खतरा है। इसके बाद वे सकते में हैं। रेस भी हो गये हैं। हो भी क्यों नहीं, उनके सामने यह स्पष्ट कर दिया गया है कि उनके क्षेत्र से लोकसभा के पार्टी प्रत्याशी को मिलनेवाला वोट ही उनके टिकट मिलने का पैमाना होगा। इसमें कोई दो राय नहीं है कि भाजपा के अधिकांश विधायक पार्टी के टिकट पर ही अपने को सुरक्षित मान रहे हैं। पिछले विधानसभा चुनाव में जीते 75 प्रतिशत से ज्यादा विधायक ऐसे हैं, जो मोदी लहर में वैतरणी पार कर विधानसभा पहुंचे। इस बार लोकसभा चुनाव में ही उन्हें परीक्षा में बैठा दिया गया है। उनकी स्थिति पर प्रकाश डाल रहे हैं ज्ञान रंजन।

हम बात करेंगे चतरा, पलामू और लोहरदगा लोकसभा चुनाव के रोमांच की। देश में चौथे और झारखंड में पहले चरण के चुनाव में 29 अप्रैल को इन लोकसभा सीटों पर मतदान होना है। सभी दलों के नेताओं ने पूरी ताकत झोंक दी है। मगर जनता की खामोशी ने प्रत्याशियों के दिल की धड़कनें बढ़ा दी हैं। चतरा में भाजपा, कांग्रेस और राजद के बीच त्रिकोणीय संघर्ष है। यहां भाजपा के सुनील सिंह, राजद के सुभाष यादव और कांग्रेस के मनोज यादव आमने-सामने हैं। यहां विपक्ष के वोटों में जहां सुभाष यादव और मनोज यादव के बीच बंटवारा है, तो भाजपा को निर्दलीय प्रत्याशी राजेंद्र साहू नुकसान पहुंचा रहे हैं। पलामू और लोहरदगा सीट पर भाजपा और महागठबंधन में सीधा मुकाबला है। पलामू में महागठबंधन से राजद प्रत्याशी घूरन राम भाजपा को टक्कर दे रहे हैं, तो लोहरदगा में कांग्रेस प्रत्याशी सुखदेव भगत चट्टान की तरह भाजपा प्रत्याशी सुदर्शन भगत के समक्ष खड़े हैं। सबसे बड़ी बात यह है कि मतदान में महज कुछ घंटे बचे हैं और मतदाताओं का रुझान खुलकर सामने नहीं आ रहा है। हालांकि प्रचार के मामले में लोहरदगा, चतरा और पलामू में भाजपा का प्रदर्शन दमदार रहा है। लोहरदगा में प्रधानमंत्री तो चतरा और पलामू में गृह मंत्री राजनाथ सिंह ने चुनावी शंखनाद किया है, वहीं पलामू में भाजपा के राष्टÑीय अध्यक्ष अमित शाह भी आज जान फूंकेंगे। चतरा और पलामू में राजद का प्रचार भी दमदार रहा है। खुद तेजस्वी यादव दो-दो बार चुनावी सभाएं कर चुके हैं। लोहरदगा में कांग्रेस के सुखदेव भगत खुद मोर्चा संभाले हुए हैं और दिन रात एक किये हुए हैं। यहां पर झामुमो के कार्यकारी अध्यक्ष हेमंत सोरेन, बाबूलाल मरांडी सहित झाविमो के नेताओं का भी उन्हें भरपूर साथ मिला है। हां, झारखंड के प्रथम चरण के मतदान में महागठबंधन की तरफ से और खासकर कांग्रेस की तरफ से जिन राष्टÑीय नेताओं के प्रचार की बात शुरू में सामने आयी थी, उनमें से कोई नहीं आया। प्रचार की दृष्टि से चतरा में कांग्रेस प्रत्याशी को दल के किसी बड़े नेता का साथ नहीं मिला है। क्या है चतरा, पलामू और लोहरदगा का मिजाज, इस पर प्रकाश डाल रहे हैं ज्ञान रंजन।

हम बात कर रहे हैं लोकसभा चुनाव में नमो इफेक्ट की। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने गत मंगलवार को रांची में रोड शो किया, तो बुधवार को लोहरदगा में चुनावी रैली की। दोनों ही जगहों पर मोदी को जबरदस्त समर्थन मिला। मोदी की इस यात्रा ने जहां एनडीए गठबंधन को मजबूत बना गया, वहीं भाजपा कार्यकर्ता एक सूत्र में बंधे नजर आने लगे हैं। अपने सबसे बड़े स्टार के झारखंड दौरे की सफलता से भाजपा उत्साहित है। भाजपा का दावा है कि मोदी के दौरे का सकारात्मक असर राज्य भर की सीटों पर पड़ा है और इससे महागठबंधन के नेताओं की नींद उड़ गयी है।
इसके विपरीत महागठबंधन के घटक दलों ने मोदी के दौरे को पूरी तरह विफल करार दिया है। हालांकि राजनीतिक हलकों में यह चर्चा है कि रांची में मोदी के रोड शो और लोहरदगा की चुनावी सभा ने काफी असर डाला है। दोनों कार्यक्रमों में महिलाओं की मौजूदगी ने भी भाजपा को उत्साह से लबरेज किया है। खुद मोदी भी यहां के लोगों की गर्मजोशी के मुरीद हुए। मोदी के दौरे के क्या हैं इफेक्ट और उसने कार्यकर्ताओं को कैसे जगा दिया है, इस पर प्रकाश डाल रहे हैं आजाद सिपाही के राजनीतिक संपादक ज्ञान रंजन।

हम बात कर रहे हैं राजधानी रांची की बगल में स्थित खूंटी लोकसभा सीट पर हो रहे चुनाव की। यहां मुख्य रूप से भाजपा और कांग्रेस में ही भिड़ंत है। पर यहां नजरें नागपुर और छोटानागपुर दोनों की टिकी हैं। नागपुर से तात्पर्य है आरएसएस और विश्व हिंदू परिषद के लिए यह सीट प्रतिष्ठा का विषय बन गयी है। वहीं छोटानागपुर यानी मिशनरी शक्तियों के लिए खंूटी खास फोकस का केंद्र बना हुआ है। दरअसल खूंटी में दो धाराएं साथ-साथ बहती रही हैं। एक धारा आरएसएस की, तो दूसरी धारा इसाई मिशनयिों की। खूंटी को इसाई मिशनियों का गढ़ माना जाता रहा है, तो आरएसएस की भी यहां जमीनी पकड़ रही है। दोनों ही यहां की राजनीति को प्रभावित करते रहे हैं। आजादी के बाद का राजनीतिक इतिहास पलटें, तो कई ऐसे सांसद और विधायक के नाम सामने आयेंगे, जिनकी जीत में मिशनरी शक्तियों की खास भूमिका रही है। वहीं, समानांतर रूप से यहां संघीय ताकतों का प्रभाव भी बढ़ा। हाल के वर्षों में संघ यहां ज्यादा मजबूत हुआ। इसके कारण समानांतर पत्थलगड़ी जैसी राष्टÑीय समस्या बनती जा रही व्यवस्था से खूंटी को निजात तो मिली ही, साथ ही मिशनरी शक्तियों का प्रभाव भी कम हुआ है। हालांकि इन सबके बीच इस क्षेत्र से आठ बार सांसद रहे कड़िया मुंडा अपवाद जरूर रहे, जो मिशनरी ताकतों के बीच भी लगातार यह सीट निकालते रहे। संघ और मिशनरी शक्तियों के लिए प्रतिष्ठा का विषय बन चुकी खूंटी लोकसभा सीट की समीक्षा कर रहे हैं हमारे राज्य समन्वय संपादक दीपेश कुमार।

आज हम बात करेंगे इस चुनाव में कैसे लोकतंत्र मजबूत हो रहा है, कैसे जनता खुल कर अभिव्यक्ति की आजादी का मजा ले रही है। विश्व का सबसे बड़ा लोकतांत्रिक देश भारत है। यही एकमात्र देश है, जहां की जनता के लिए चुनाव महापर्व होता है। लोगों को एक साथ होली-दिवाली मनाने का मौका मिलता है। संविधान ने हमें कई आजादी दे रखी है, जिसमें सबसे अहम है अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता। इस बार के चुनाव में जनता बिंदास होकर प्रत्याशियों के समक्ष अपनी बात रख रही है। प्रत्याशियों से ऐसे सवाल कर रही है, मानो वे मीडिया ट्रायल पर हों। हर जगह जनता जैसे प्रत्याशियों से सवाल कर रही है, उससे यह भी साफ हो जा रहा है कि लोकतंत्र में असली मालिक जनता है। यह भी सच है कि सवालों की गिरफ्त में वही आयेंगे, जिनका क्षेत्र में होल्ड हो, जिनसे जनता को लगाव हो। इस चुनाव में दिख रहे लोकतंत्र के शृंगार, कैसे मिली हुई है जनता को बिंदास अभिव्यक्ति की आजादी, कैसे उसकी बातों पर गौर फरमा रहे हैं प्रत्याशी, इस पर प्रकाश डाल रहे हैं ज्ञान रंजन।

आज हम बात कर रहे हैं झारखंड में महागठबंधन में शामिल दलों की स्थिति पर। झारखंड के पहले चरण का चुनाव 29 अप्रैल को होगा। इस दिन तीन सीटों चतरा, लोहरदगा और पलामू पर वोट डाले जायेंगे। इधर दूसरे चरण की नामांकन प्रक्रिया भी पूरी हो चुकी और तीसरे तथा चौथे चरण की जारी है। राजग ताल ठोक कर मैदान में है। पर अब तक विपक्षी महागठबंधन की सक्रियता नजर नहीं आ रही। अभी तक विपक्षी एकता की धमक कहीं दिखायी नहीं पड़ी, जिसका शोर-शराबा छह माह पहले से हो रहा था। चुनाव को लेकर तमाम विपक्षी दलों ने छह महीने तक भूमिका तैयार की। महागठबंधन बनाया। पर गौर करनेवाली बात यह है कि नामांकन की प्रक्रिया शुरू होने के बाद महागठबंधन का जोश और जज्बा दिखायी नहीं पड़ा, जिसे विपक्ष के लोग देखने की अपेक्षा कर रहे थे। हालांकि इन सबके बीच बाबूलाल मरांडी और शिबू सोरेन के नामांकन के अवसर पर उसकी एक झलक जरूर दिखायी पड़ी। सबसे पहले कोडरमा सीट से बाबूलाल के नामांकन के दौरान गिरिडीह में विपक्ष के दिग्गज जरूर जुटे। फिर फुरसत की चादर तान कर सो गये। उनकी एक झलक सोमवार को भी देखने को मिली, जब शिबू सोरेन दुमका से नामांकन करने गये। इनमें हेमंत सोरेन से लेकर डॉ अजय कुमार और गौतम सागर राणा तक शामिल रहे। यहां यह भी गौर करनेवाली बात है कि महागठबंधन के संयुक्त स्टार प्रचारकों की सूची तक नहीं बनी है और न ही उनका कोई कार्यक्रम जनता के बीच है। उधर, एनडीए है कि झारखंड की चौदह सीटों पर हांक लगा रहा है। चुनाव से पहले एनडीए नाम की चीज विलुप्त होने के कगार पर थी, लेकिन जैसे ही चुनाव की घोषणा हुई, राजग का प्रमुख घटक दल आजसू अपने तमाम गिले-शिकवे भुला कर भाजपा के गले मिल गयी। उसके सुप्रीमो सुदेश महतो हर प्रमुख नामांकन में मौजूद रहे। एक समय लगता था कि रघुवर दास और आजसू प्रमुख सुदेश महतो के बीच की दूरी चौड़ी हो गयी है, लेकिन चुनावी बिगुल बजते ही दोनों साथ-साथ हो गये और अब तो दोनों की यात्राएं साथ-साथ हो रही हैं। दोनों ही देश में एक बार फिर मोदी को प्रधानमंत्री बनाने के लिए अपनी भूमिका का निर्वहन कर रहे हैं। महागठबंधन में शामिल विपक्षी दलों के नेताओं की एक दूसरे से बढ़ती दूरियां और छिन्न-भिन्न होती टीम पर नजर डाल रहे हैं दीपेश कुमार।