मिस्ड कॉल से बना दिये सदस्य, असली कार्यकर्ता सो गये घर में
आधुनिक होना अच्छी बात है, पर आधुनिक होने के चक्कर में अपनी परंपराओं से कटना अपनी मौत खुद बुलाना है। झारखंड में 65 प्लस सीटें जीतने का लक्ष्य लेकर चल रही भाजपा विधानसभा चुनाव में 25 सीटों पर सिमट गयी और उसे सत्ता का त्याग करना पड़ा। जैसा कि हर हार के एक नहीं कई कारण होते हैं, भाजपा की करारी हार के पीछे भी कई कारण हैं। इनमें से एक है भाजपा का मिस्ड कॉल से सदस्य बनाने का हाइटेक तरीका। पहले भाजपा के कार्यकर्ता घर-घर जाते थे और जनता से मेल-जोल बढ़ाकर उन्हें सदस्य बनाते थे, पर हाइटेक होने की कोशिश में भाजपा मिस्ड कॉल से सदस्य बनाने लगी। इससे पार्टी जनता से कट गयी। जनता की समस्याएं जानने के लिए पार्टी ने झारखंड में कार्यकर्ताओं से ज्यादा सरकारी तंत्र पर भरोसा जताया और कार्यकर्ताओं को इस सरकारी तंत्र की मॉनिटरिंग करने का जिम्मा सौंपा। वहीं महागठबंधन के घटक दलों ने जमीन पर काम किया और कार्यकर्ताओं पर भरोसा जताया। भाजपा आक्रामक चुनाव प्रचार में लगी रही, वहीं महागठबंधन के घटक दल चुपचाप जमीन पर काम करते रहे। चुनाव से ठीक पहले नये मोटर वाहन कानून के आतंक से जनता को परेशानी उठानी पड़ी और इसका असर चुनाव के परिणामों पर पड़ा। पारा शिक्षकों की वाजिब मांगों पर सुनवाई न करना और आंगनबाड़ी सेविकाओं तथा सहायिकाओं की नाराजगी भी भाजपा को महंगी पड़ी। मुख्यमंत्री एक साथ, संगठन के हेड, पुलिस और प्रशासनिक सेवा के अधिकारियों का भी काम करने लगे। वे कमोबेश हर दिन प्रोजेक्ट बिल्डिंग में दिन के साढ़े दस बजे से शाम साढ़े पांच बजे तक बैठने लगे। दिल्ली स्थित भाजपा आलाकमान ने भी झारखंड की जमीनी स्थिति पर फीडबैक मिलने के बावजूद चुप्पी साधे रखी और भाजपा के 11 विधायकों के टिकट कटने पर भी कोई कदम नहीं उठाया। खूंटी में दस हजार लोगों पर देशदा्रेह का मुकदमा होने पर आदिवासी समुदाय भी भाजपा से नाराज हो गया। इन सबका सम्मिलित नतीजा पार्टी को भुगतना पड़ा। वर्ष 2014 के विधानसभा चुनावों में जहां भाजपा अकेले अपने दम पर 37 सीटें जीतने में सफल रही थी, वहीं इस चुनाव में 25 सीटों पर ही पार्टी को संतोष करना पड़ा। वर्ष 2014 के चुनाव की तुलना में 2019 में अपेक्षाकृत अधिक संसाधन खर्च करने और आक्रामक चुनाव प्रचार के बाद भी भाजपा की हार ने उसे झारखंड की सत्ता से बाहर कर दिया और वह विपक्षी पार्टी बन गयी। भाजपा के लिए सबसे निराशाजनक यह रहा कि उसके प्रदेश अध्यक्ष और चुनाव में जिसके चेहरे को आगे करके भाजपा चुनाव लड़ रही थी, दोनों हार गये।

कई कारण रहे महागठबंधन की जीत के
झारखंड की राजनीति के जानकारों का कहना है कि झारखंड विधानसभा चुनाव में भाजपा की करारी हार और महागठबंधन की बंपर जीत के कई कारण रहे। भाजपा का आजसू से गठबंधन टूटना और कांग्रेस, झामुमो तथा राजद के गठबंधन का समय पर आकार लेना भाजपा की हार का बड़ा कारण रहा। फैसले लेने की ताकत का एक जगह केंद्रित होना और स्थानीय मुद्दों को तरजीह देने की जगह राष्टÑीय मुद्दों पर चुनाव लड़ना भी भाजपा को भारी पड़ा। कार्यकर्ताओं के साथ समन्वय न हो पाना और चुनाव के समय विद्रोह की स्थिति तथा पार्टी के 11 विधायकों के टिकट काटने का नुकसान भी पार्टी को उठाना पड़ा। बागी उम्मीदवारों का खड़ा होना और सीएनटी-एसपीटी एक्ट पर पार्टी का रुख भी हार का बड़ा कारण रहा।
वहीं महागठबंधन को बंपर जीत इसलिए मिली, क्योंकि महागठबंधन के नेताओं ने चुनाव में स्थानीय मुद्दों को तरजीह दी और पार्टी के कार्यकर्ताओं ने समन्वय के साथ जमीनी स्तर पर काम किया। हेमंत सोरेन की संघर्ष यात्रा का भी फायदा महागठबंधन को मिला, वहीं पांच वर्ष में रघुवर सरकार के खिलाफ निर्मित एंटी इन्कंबेंसी फैक्टर के कारण भी भाजपा को हार का सामना करना पड़ा। चुनाव के दौरान भाजपा कार्यकर्ताओं की नाराजगी भी भाजपा की हार का कारण बनी। कार्यकर्ताओं को हमेशा यह दर्द सताता रहा कि रघुवर सरकार में उनकी उपेक्षा की गयी और जब वे अपनी बात रखने जाते, तो उनकी बात सुनने की जगह उन्हें दुत्कार मिलती थी। पार्टी पूर्ण बहुमत में रहने के बावजूद बोर्ड और निगमों के सभी खाली पड़े पदों को भरने में भी असफल रही और पूरे पांच साल भाजपा की सरकार में मंत्री का एक पद खाली ही रहा। भाजपा की हार इसलिए भी हुई, क्योंकि पार्टी आलाकमान ने निगेटिव फीडबैक मिलने के बाद भी उस पर ध्यान नहीं दिया।
स्थानीय नेतृत्व पर भरोसा करने की जगह पार्टी ने नरेंद्र मोदी और अमित शाह की छवि का अधिकाधिक इस्तेमाल चुनाव में किया, पर इसका कोई फायदा पार्टी को नहीं मिला। राष्टÑीय मुद्दों पर विधानसभा चुनाव लड़ना भी पार्टी के लिए घातक साबित हुआ।

कद्दावर आदिवासी नेतृत्व को आगे करना पड़ेगा
भाजपा यदि अपनी हार से सबक लेती है, तो सही रणनीति अपनाकर वह आगे अपनी जीत की राह आसान कर सकती है। सबसे पहले तो भाजपा को एक कद्दावर आदिवासी नेतृत्व की तलाश करनी होगी, जो संघ के साथ तालमेल बिठा सके, साथ ही पार्टी नेताओं और कार्यकर्ताओं में भी उसका इकबाल हो। यदि भाजपा ऐसे नेता को ढूंढ़ निकालती है, तो निश्चित रूप से पार्टी झारखंड में एक बार फिर मजबूत स्थिति में आ जायेगी। टिकट कटने से भाजपा छोड़ने वाले नेताओं को भी पार्टी में लाने की कोशिश करनी चाहिए। इसके बाद जमीनी स्तर पर काम करना चाहिए। भाजपा यह समझ ले कि हाइटेक होने में कोई बुराई नहीं है, पर आधुनिक होने के साथ परंपराओं को समेट कर चलना भाजपा के लिए बेहद जरूरी है, क्योंकि हर सफल पार्टी के लिए यह बेहद जरूरी है कि भले ही उसकी निगाहें आसमान में टिकी हों, पर पांव सदैव जमीन पर होने चाहिए।

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