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    Home»स्पेशल रिपोर्ट»देश का भला नहीं हो सकता ‘रेवड़ी’ की राजनीति से
    स्पेशल रिपोर्ट

    देश का भला नहीं हो सकता ‘रेवड़ी’ की राजनीति से

    adminBy adminApril 17, 2023No Comments9 Mins Read
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    विशेष
    -कई देशों में फेल हो चुका है सत्ता हासिल करने का यह मॉडल
    -आगे बढ़ते भारत के रास्ते का रोड़ा बनेंगे राजनीतिक दलों के वादे

    भारत ही नहीं, पूरी दुनिया के लोकतांत्रिक देशों में चुनाव अभियानों में राजनीतिक पार्टियों के मुफ्त चीजें और पैसे देने के वादे किये जाते रहे हैं। भारत जैसे संपूर्ण लोकतांत्रिक व्यवस्था वाले देश में सत्ता हासिल करने के लिए ‘रेवड़ी’ की राजनीति पुराना और ताकतवर हथियार माना जाता रहा है। देश में अब तक हुए 17 संसदीय चुनावों और सैकड़ों विधानसभा चुनावों में राजनीतिक दल मतदाताओं से कई वादे करते रहे हैं। इनमें से कुछ वादे पूरे होते हैं, अधिकांश कागजों में ही रह जाते हैं। इस ‘रेवड़ी राजनीति’ से संबंधित एक जनहित याचिका की सुनवाई करते हुए पिछले साल सुप्रीम कोर्ट ने इसे ‘एक गंभीर मुद्दा’ बताया था। अदालत के अनुसार, जिन्हें यह मिल रहा है, वे जरूरतमंद हैं और हम कल्याणकारी राज्य हैं। कुछ करदाता कह सकते हैं कि इसका इस्तेमाल विकास के लिए किया जाये। इसलिए यह गंभीर मुद्दा है। अर्थव्यवस्था को हो रहे नुकसान और कल्याणकारी कार्यक्रमों में संतुलन की जरूरत है। पीएम मोदी ने भी देश में बढ़ रही ‘रेवड़ी राजनीति’ पर रोक लगाने की बात कही थी। अगले महीने होनेवाले कर्नाटक विधानसभा चुनाव में मतदाताओं को आकर्पित करने के लिए जिस तरह से राजनीतिक दल रेवड़ी देने का वादा कर रहे हैं, इससे एक बार फिर यह बहस जोर पकड़ रही है कि क्या इस तरह की राजनीति से देश का भला हो सकता है। जानकार कहते हैं कि जब कोई वोट मांगने जाता है, तो इस तरह की बातें कहनी होती हैं। लेकिन इसमें एक फर्क है कि सामान्य रूप से यह कहना कि हम सबका ध्यान रखेंगे और विशेष रूप से कहना जैसे ‘हर परिवार को मिक्सी, टीवी और स्कूटी दिये जायेंगे’। दोनों अलग-अलग चीजें हैं। यह प्रवृत्ति किसी एक दल की नहीं है, बल्कि सभी दलों की होती है, लेकिन यह प्रवृत्ति रुकनी चाहिए। देश में बढ़ रही ‘रेवड़ी राजनीति’ के नफा-नुकसान का आकलन कर रहे हैं आजाद सिपाही के विशेष संवाददाता राकेश सिंह।

    कांग्रेस नेता राहुल गांधी ने अगले महीने होनेवाले कर्नाटक विधानसभा चुनाव के प्रचार अभियान की शुरूआत करते हुए मतदाताओं से कई लुभावने वादे किये हैं। दरअसल कांग्रेस को लगता है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का व्यक्तित्व, ध्रुवीकरण की राजनीति, राम मंदिर निर्माण और राष्ट्रवाद जैसे मुद्दे पर वह अब तक पिछड़ती आयी है। इसलिए हिमाचल की जीत से उत्साहित कांग्रेस अब महंगाई, बेरोजगारी, महिला और किसानों के मुद्दे को आगे करने के साथ लोगों को सीधा या मुफ्त लाभ देकर वोट साधने की तैयारी में है। राहुल के वादों के बाद एक बार फिर देश में बढ़ रही ‘रेवड़ी राजनीति’ पर नये सिरे से बहस छिड़ गयी है।
    कांग्रेस की ओर से जो एलान किये गये हैं, उसके मुताबिक दो सौ यूनिट बिजली फ्री दी जायेगी, जबकि घर की मुखिया को हर महीने प्रति व्यक्ति 10 किलो चावल मुफ्त दिये जायेंगे। इसके अलावा 18 से 21 साल तक उम्र के स्नातक बेरोजगारों को तीन हजार रुपये हर महीने दिये जायेंगे। डेढ़ हजार रुपये हर बेरोजगार डिप्लोमा होल्डर को दिये जायेंगे। इसके साथ ही राजस्थान की तर्ज पर बीपीएल परिवारों को पांच सौ रुपये में गैस सिलेंडर देने का वादा किया गया है।
    पिछले साल इस ‘रेवड़ी राजनीति’ पर बहुत कुछ कहा जा चुका है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से लेकर सुप्रीम कोर्ट तक में इस पर चिंता जतायी जा चुकी है। पीएम मोदी देश का ध्यान इस ओर आकर्षित कर चुके हैं कि रेवड़ी संस्कृति किस तरह लोकतंत्र और अर्थतंत्र का बेड़ा गर्क कर रही है। यह वही संस्कृति है, जिसे मुफ्तखोरी की राजनीति भी कहा जाता है। यह राजनीति न केवल लोकतांत्रिक मूल्यों के विपरीत है, बल्कि देश की आर्थिक स्थिति पर नकारात्मक प्रभाव डालने वाली भी है। यह किसी से छिपा नहीं कि रेवड़ियां बांटने की राजनीतिक संस्कृति ने न जाने कितने देशों को तबाह किया है।

    यूरोप भुगत चुका है खामियाजा
    यूरोप के कुछ विकसित देश इसी रेवड़ी संस्कृति के कारण आज आर्थिक संकट से गुजर रहे हैं। भारत के पड़ोस में ही श्रीलंका और पाकिस्तान का भी इसी रेवड़ी संस्कृति ने बुरा हाल किया है। अपने देश में ही देखा जाये, तो कई राज्य सरकारें इस रेवड़ी संस्कृति के कारण लगभग दिवालिया होने की कगार पर हैं। उनका बजट घाटा बढ़ता जा रहा है, लेकिन वे मुफ्तखोरी की राजनीति का परित्याग करने के लिए तैयार नहीं हैं। इस राजनीति ने राज्य के बिजली बोर्डों का भी बुरा हाल कर रखा है, क्योंकि राज्य सरकारें चुनावी लाभ के लिए मुफ्त में या लागत से बहुत कम में बिजली दे रही हैं। इसका दुष्परिणाम बिजली बोर्ड भुगत रहे हैं।

    सुप्रीम कोर्ट कर रहा सुनवाई
    यह अच्छा है कि सुप्रीम कोर्ट उस जनहित याचिका की सुनवाई कर रहा है, जिसमें रेवड़ी संस्कृति पर लगाम लगाने की मांग की गयी है। भाजपा नेता अश्विनी उपाध्याय की इस याचिका पर केंद्र सरकार की ओर से यह कहा गया कि मुफ्तखोरी की राजनीति देश को आर्थिक तबाही की ओर ले जा रही है। सुप्रीम कोर्ट ने इस विषय को गंभीर मानते हुए एक ऐसी समिति बनाने का सुझाव दिया, जिसमें केंद्र सरकार, चुनाव आयोग के साथ नीति आयोग, रिजर्व बैंक और विभिन्न दलों के प्रतिनिधि शामिल हों।

    सुप्रीम कोर्ट उठा चुका है सवाल
    सुप्रीम कोर्ट ने इस याचिका पर सुनवाई के दौरान जब सांसद और वरिष्ठ वकील कपिल सिब्बल से पूछा कि इस पर उनकी क्या राय है, तो उन्होंने इस मामले से चुनाव आयोग को बाहर रखने की बात कही। स्वाभाविक रूप से सॉलिसिटर जनरल उनकी राय से सहमत नहीं हुए। इसी अवसर पर जब किसी ने यह सुझाव दिया कि इस विषय पर संसद में बहस होनी चाहिए, तो तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश एनवी रमना ने सवाल किया कि आखिर इस पर कौन राजनीतिक दल गंभीरता से बहस करेगा?

    राजनीतिक दलों की मंशा पर सवाल
    मुख्य न्यायाधीश का यह सवाल सही था, क्योंकि जब करीब-करीब सभी राजनीतिक दल रेवड़ी संस्कृति को बढ़ावा देने में लगे हों, तब फिर वे संसद में इस पर कोई सार्थक बहस कैसे कर सकते हैं? इसकी भी अनदेखी नहीं की जा सकती कि कई राजनीतिक दल तरह-तरह के तर्कों से रेवड़ी संस्कृति का न केवल बचाव कर रहे हैं, बल्कि उसे जरूरी भी मान रहे हैं।

    चुनाव आयोग को अधिकार मिले, तब तो बने बात
    वास्तव में इसी कारण तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश ने कहा कि कोई भी दल रेवड़ी संस्कृति के खिलाफ बात करने वाला नहीं है। नि:संदेह इस मामले में चुनाव आयोग की भूमिका महत्वपूर्ण हो सकती है, लेकिन तभी जब उसे पर्याप्त अधिकार मिलें और वह राजनीतिक दलों की मुफ्तखोरी को बढ़ावा देने वाली मनमानी घोषणाओं पर अंकुश लगाने में सक्षम हो।

    रेवड़ी संस्कृति से होने वाले नुकसान
    अभी तो चुनाव आयोग राजनीतिक दलों के घोषणा पत्रों पर ही अपनी आपत्ति जता सकता है। वह चुनाव बाद बनी सरकार की ओर से लिये जाने वाले लोक लुभावन फैसलों के खिलाफ कुछ नहीं कर सकता। वास्तव में बात तब बनेगी, जब सभी राजनीतिक दल रेवड़ी संस्कृति से होने वाले नुकसान को समझें और उस पर स्वत: ही अंकुश लगायें, लेकिन ऐसा होने के आसार नहीं हैं। इसलिए नहीं हैं, क्योंकि राजनीतिक दल मतदाताओं को लुभाने के लिए कुछ भी करने को तैयार रहते हैं। कुछ दल तो अनाप-शनाप लोक लुभावन घोषणाएं करके एक तरह से वोट खरीदने लगे हैं। यह ठीक है कि औसत मतदाता परिपक्व हैं, लेकिन सभी ऐसे नहीं, जो मुफ्त की योजनाओं से होने वाले नुकसान को समझ सकें।

    रेवड़ी संस्कृति अर्थव्यवस्था के लिए हानिकारक
    जैसे यह एक तथ्य है कि रेवड़ी संस्कृति अर्थव्यवस्था के लिए हानिकारक है, वैसे ही यह भी कि देश में एक बड़ी जनसंख्या गरीबी रेखा से नीचे है और उसे कई तरह की राहत और रियायत देने की आवश्यकता है। इस जनसंख्या को गरीबी रेखा से निकालने के लिए किसी न किसी रूप में सब्सिडी यानी सरकारी राहत देनी ही होगी, लेकिन इसके लिए कोई पैमाना बनना चाहिए, जैसा कि आरक्षण के मामले में बना है। इसी के साथ जनकल्याणकारी योजनाओं और लोक लुभावन योजनाओं के बीच के अंतर को भी परिभाषित किया जाना चाहिए। इसके अलावा ऐसा कोई नियम भी बनना चाहिए कि बजट का कितना प्रतिशत धन जन कल्याणकारी योजनाओं पर खर्च किया जा सकता है?

    गरीबों की आर्थिक स्थिति में नहीं हो रहा सुधार
    यह नियम सभी राजनीतिक दलों पर बाध्यकारी होना चाहिए, वह चाहे सत्ताधारी दल हो या विपक्षी दल। जो भी वित्तीय सहायता अथवा सुविधा या सामग्री गरीबों को दी जाये, उसका लेखा-जोखा भी रखा जाना चाहिए और संबंधित योजनाओं की समीक्षा भी होनी चाहिए, ताकि यह पता चल सके कि उनसे अपेक्षित लाभ हो रहा है या नहीं? यदि किसी लोक लुभावन योजना से गरीबों की आर्थिक स्थिति में कोई सुधार नहीं हो रहा हो और उनका जीवन स्तर ऊपर नहीं उठ रहा हो, तो फिर उसे जारी रखने का कोई मतलब नहीं।

    आम जनता को भी चेतना चाहिए
    चुनाव जीतने के इरादे से राजनीतिक दलों की ओर से की जाने वाली लोक लुभावन घोषणाओं को लेकर आम जनता को भी चेतना चाहिए, क्योंकि ऐसी योजनाएं अंतत: उसके लिए मुसीबत बनती हैं और अर्थव्यवस्था का बेड़ा भी गर्क करती हैैं। मनरेगा योजना के बारे में रह-रहकर यह सवाल उठता रहता है कि आखिर यह कानून लोगों को आर्थिक रूप से सक्षम बनाने में कितनी सहायक है? इसी तरह यह सवाल भी उठता रहता है कि कर्ज माफी की योजनाएं किसानों और कृषि का कितना भला कर पा रही हैं?

    वोट हासिल करने के लिए कर्ज माफी करने की घोषणाएं
    यह निराशाजनक है कि कर्ज माफी योजनाओं की नाकामी के बावजूद कई राजनीतिक दल चुनाव के मौके पर खुद को किसानों का हितैषी साबित करने और उनके वोट हासिल करने के लिए कर्ज माफी करने की घोषणाएं करते रहते हैं। यह ठीक नहीं है। जन कल्याण की योजनाओं के मामले में यह भी देखा जाना चाहिए कि उनका लाभ केवल पात्र लोगों को ही मिले। यदि जन कल्याण की आड़ में की जाने वाली मुफ्तखोरी की राजनीति लोगों को बैसाखी प्रदान करने या फिर उन्हें काम न करने के लिए प्रेरित करे, तो फिर ऐसे लोग न तो कभी आत्मनिर्भर बन सकते हैं और न ही देश के विकास में योगदान दे सकते हैं।

     

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