विशेष
-उत्तरप्रदेश, पश्चिम बंगाल, पंजाब और दिल्ली में उम्मीद लगभग खत्म
-कांग्रेस 227 क्षेत्रों पर ध्यान लगायेगी, तो बाकी दल 173 पर करेंगे फोकस
-दो प्रतिशत वोट शेयर के अंतर को पाटने के लिए यही रास्ता अपनायेगा विपक्ष

लोकसभा चुनाव में अब एक साल से भी कम का समय बच गया है। इसके साथ ही भाजपा और कांग्रेस के साथ बाकी विपक्षी दल भी एकदम चुनावी मोड में आ गये हैं। जिन मुद्दों को लेकर जनता के बीच जाना है, उन्हें फिलहाल टेस्टिंग मोड में रखा गया है। अभी राजनीतिक दलों के भीतर लोकसभा की 542 सीटों के परिणाम का गहन विश्लेषण किया जा रहा है। इस विश्लेषण और आंकड़ों के जाल के खेल में विपक्ष का दृष्टिकोण पटना बैठक के बाद साफ होने लगा है। विपक्षी दलों को उम्मीद है कि बेंगलुरु में अगले महीने होनेवाली बैठक में एक फॉर्मूले पर विचार किया जा सकता है और वह यह कि चार राज्यों, उत्तरप्रदेश (80 सीट), पश्चिम बंगाल (42 सीट), पंजाब (13 सीट) और दिल्ली (सात सीट) को छोड़ कर बाकी चार सौ सीटों पर संयुक्त उम्मीदवार खड़ा किया जाये, ताकि यहां भाजपा को सीधे मुकाबले के लिए मजबूर किया जा सके। इनमें से 227 सीटें ऐसी हैं, जहां कांग्रेस और भाजपा के बीच सीधा मुकाबला हो सकता है और बाकी 173 सीटों पर दूसरे दल अपनी किस्मत आजमायेंगे। इतना ही नहीं, संयुक्त विपक्ष पिछले लोकसभा चुनाव में वोट शेयर में महज दो प्रतिशत के उस अंतर को भी पाटने पर फोकस करेगा, जिसके कारण भाजपा को लगातार दूसरी बार सत्ता मिली थी। बेंगलुरू में होनेवाली बैठक इन चुनावी समीकरणों को लेकर इसीलिए इतनी महत्वपूर्ण बतायी जा रही है। आखिर क्या हो सकती है विपक्ष की रणनीति और उसका परिणाम, बता रहे हैं आजाद सिपाही के विशेष संवाददाता राकेश सिंह।

विपक्षी दलों की पटना घोषणा के बाद बेंगलुरु समझौते की तैयारी है। कहा जा रहा है कि विपक्ष को जीत का फॉर्मूला मिल गया है। भाजपा के खिलाफ करीब चार सौ सीटों पर विपक्ष का एक ही उम्मीदवार होगा। इसकी घोषणा अगले महीने बेंगलुरु बैठक में हो सकती है। विपक्षी खेमे की रणनीति के अनुसार कुल मिला कर राज्यों की तीन श्रेणियां बनायी जा रही हैं। इन सबके बावजूद विपक्ष में राहुल गांधी को छोड़ कर कोई भी अन्य नेता आत्मविश्वास के साथ यह कहने की हालत में नहीं है कि 2024 में विपक्ष सत्ता में आ जायेगा। इसके पीछे तीन सवाल हैं। एक, भाजपा के खिलाफ चार सौ सीटों पर एक ही उम्मीदवार रहा, तो क्या मोदी की हार संभव है? दो, गठबंधन कागजों पर है या जमीन पर भी उतरा है? तीन, सबसे बड़ी पार्टी अगर भाजपा रही, तो विपक्ष कैसे सरकार बना पायेगा?
पहले बात करते हैं, वन टू वन की। पिछले लोकसभा चुनावों के आंकड़ों के संदर्भ में बात की जाये, तो विपक्ष की रणनीति बहुत प्रभावी तो लगती है, लेकिन निर्णायक नहीं। भाजपा ने 46 सीटों पर चार लाख से ज्यादा वोटों के अंतर से विजय हासिल की थी। उधर विपक्ष ने 23 सीटों पर चार लाख से ज्यादा वोट हासिल किये थे। इनमें से कुछ पर विपक्षी दल भाजपा के खिलाफ जीते थे, तो कुछ में कांग्रेस के खिलाफ, तो कुछ में विपक्ष बनाम विपक्ष के बीच मुकाबला रहा था। जाहिर है कि कुल मिला कर ऐसी 69 सीटों का गणित बहुत कुछ बदलने वाला नहीं है। भाजपा ने 105 सीटों पर तीन लाख के ज्यादा अंतर से जीत हासिल की थी। इनमें से आधे में उसका मुकाबला कांग्रेस से हुआ था। ऐसी सीटों की कुल संख्या 131 रही थी। भाजपा को 2014 में 31 फीसदी और 2019 में 37 फीसदी वोट मिले थे और 2024 में 39 फीसदी वोट मिलने का अनुमान लगाया गया है, तो संयुक्त विपक्ष इन सीटों में सेंधमारी तो जरूर कर सकता है, लेकिन तीन लाख वोटों की दीवार गिरा नहीं सकता।
विपक्ष की नजर ऐसे में उन सीटों पर होनी चाहिए, जहां भाजपा ने दो लाख के अंतर से सीटें जीती थीं। 2019 में ऐसी सीटों की संख्या कुल मिला कर 236 थी और इसमें से भाजपा ने 164 सीटें जीती थी। यहां भी दिलचस्प आंकड़ा है कि इनमें से भाजपा ने 55 सीटें कांग्रेस के खिलाफ जीती थीं। तो कहानी आकर अटकती है, ऐसी सीटों पर, जो भाजपा ने पिछली बार एक लाख के कम के अंतर से जीती थीं। ऐसी सीटों की संख्या कुल 77 थी। अगर विपक्ष पूरा जोर लगा दे, तो यहां भाजपा को पटखनी दी जा सकती है। अगर विपक्ष इन 77 में से 60 सीटें निकाल लेता है, तो भाजपा 302 से घटकर 242 पर आ जाती है। ये आंकड़े यह भी बताते हैं कि उत्तरप्रदेश में विपक्ष का एक होना कितना जरूरी है। भाजपा ने पिछली बार यूपी में 20 सीटें एक लाख के कम के अंतर से जीती थीं। यानी अगर अखिलेश, कांग्रेस, जयंत चौधरी एक हो जाते हैं, तो यूपी में भाजपा की 20 सीटें कम हो जाने की गुंजाइश निकलती है। आंकड़ों के हिसाब से यह आंकड़ेबाजी रोचक लग रही है। लेकिन भाजपा दो बार से चुने जा रहे सांसदों का नया सिरे से सर्वे करवा रही है। एंटी इनकमबेंसी दूर करने की कोशिश कर रही है।
दूसरा सवाल गठबंधन का है। विपक्ष का कहना है कि महाराष्ट्र, तमिलनाडु, बिहार और झारखंड में मजबूत गठबंधन बन चुका है। इन राज्यों की कुल 142 सीटें (पुडुचेरी मिला कर) हैं, जहां विपक्ष का स्ट्राइक रेट 80 फीसदी पार होना चाहिए, अगर उसे सत्ता में आते हुए दिखना है। उधर कहा जा रहा है कि हिमाचल प्रदेश, उत्तराखंड, हरियाणा, राजस्थान, गुजरात, मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़ और कर्नाटक में कांग्रेस को गठबंधन की जरूरत ही नहीं है, क्योंकि वहां उसे किसी अन्य विपक्षी दल का डर नहीं है। कुछ हद तक उसे गुजरात में आप का डर जरूर है। इन राज्यों में कुल 130 सीटें आती हैं, जहां भाजपा पिछली बार 122 सीटें जीती थी। यहां कांग्रेस को अकेले ही लड़ना है।
तीसरी श्रेणी उत्तरप्रदेश, पश्चिम बंगाल, दिल्ली और पंजाब जैसे राज्यों की है, जहां कुल सीटें 142 हैं। सारा पेंच यहीं आकर फंसा हुआ है। अखिलेश यादव, ममता बनर्जी और अरविंद केजरीवाल के पाले में गेंद है। दरअसल सारी कुर्बानी यहीं दिखायी जानी है और एकता नहीं हुई, तो सारा रायता भी यहीं फैलना है।

संयुक्त विपक्ष के मुकाबले का गणित
23 जून को पटना में हुई बैठक में 15 से ज्यादा दलों और 30 से ज्यादा राष्ट्रीय नेताओं ने हिस्सा लिया था। केंद्र सरकार के दिल्ली अध्यादेश को लेकर आम आदमी पार्टी और कांग्रेस के बीच विवाद और मायावती की बहुजन समाज पार्टी, के चंद्रशेखर राव की भारत राष्ट्र समिति और वाइएस जगनमोहन रेड्डी की वाइएसआर कांग्रेस पार्टी जैसी पार्टियों की गैरमौजूदगी के बावजूद विपक्षी दल बेहद उत्साहित हैं। इन विपक्षी दलों को इस बात का इलहाम है कि सत्ताधारी दल से मुकाबले के लिए चुनाव पूर्व गठबंधन का यह पहला प्रयास नहीं है। इसलिए इस प्रयास से पहले चुनावी गणित के आधार पर समीकरण भी तैयार किया जाना जरूरी है। तो भाजपा से मुकाबले के लिए संयुक्त विपक्ष का गणित क्या है।
पटना बैठक में 15 राजनीतिक दलों के नेता शामिल हुए। इस समय भाजपा संसद के निचले सदन लोकसभा में, जिसमें कुल 543 सांसद हैं, प्रभावशाली स्थिति में है। सदन में बहुमत का आंकड़ा 272 है। 2019 के आम चुनाव के नतीजों के अनुसार भाजपा के पास अपने 303 सांसद हैं और उसके नेतृत्व वाले राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन के 50 सांसद हैं। कांग्रेस के 52 सांसद हैं, जबकि यूपीए के कुल 91 सांसद हैं। पटना बैठक में मौजूद 15 दलों के कुल 136 सांसद लोकसभा में हैं। साल 2019 में नीतीश कुमार का जदयू और उद्धव ठाकरे के नेतृत्व वाली शिवसेना दोनों एनडीए का हिस्सा थे। बिहार के मुख्यमंत्री अब विपक्षी गठबंधन की अगुवाई कर रहे हैं। 2022 में शिवसेना में एक बड़े बंटवारे के साथ ठाकरे के नेतृत्व वाला गुट विपक्षी मोर्चे का हिस्सा है, जबकि एकनाथ शिंदे के नेतृत्व वाले दूसरे गुट ने भाजपा से हाथ मिला लिया है। संसद के उच्च सदन राज्यसभा में कुल 245 सीटें हैं। इनमें अकेले भाजपा के पास 93 सीटें हैं, जबकि कांग्रेस के पास 31 सीटें हैं। भाजपा के नेतृत्व वाले एनडीए के पास कुल 110 सीटें हैं। विपक्षी दलों (जो पटना बैठक में शामिल हुए) के राज्यसभा में भेजे गये सांसदों की कुल गिनती भी 93 है।

वोट में हिस्सेदारी की तुलना
2019 के लोकसभा चुनाव में भाजपा का वोट शेयर 37.36 फीसदी था, जबकि सत्ताधारी एनडीए गठबंधन का वोट 45 फीसदी रहा। हालांकि समय के साथ कई दल गठबंधन से निकल गये, जिसके बाद, अब एनडीए का वोट शेयर 39.92 प्रतिशत हो गया है। 2019 के लोकसभा चुनाव के नतीजों के मुताबिक पटना में मौजूद 15 विपक्षी दलों का वोट शेयर 37.99 फीसदी है। दिलचस्प बात यह है कि विपक्ष भले ही 2014 की तुलना में 2019 में भाजपा के खिलाफ ज्यादा मजबूती से एकजुट हुआ था, भगवा पार्टी न केवल अपनी सीटें (282 से 303) बढ़ाने में कामयाब रही, बल्कि इसके वोट शेयर (2014 में 31 फीसदी के मुकाबले 2019 में 37.36 प्रतिशत) में भी उल्लेखनीय बढ़ोतरी हुई। विपक्ष इसी दो प्रतिशत के अंतर को पाटने और सीधे मुकाबले की चार सौ सीटों पर भाजपा को घेरने की रणनीति तैयार करने में जुटा हुआ है। बेंगलुरु में यदि इस बारे में कोई फैसला हुआ, तो फिर भाजपा की राह में चुनौती खड़ी हो सकती है।

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