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    Home»विशेष»जनतंत्र पर हावी हो रहा दलतंत्र
    विशेष

    जनतंत्र पर हावी हो रहा दलतंत्र

    azad sipahiBy azad sipahiJuly 20, 2021No Comments8 Mins Read
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    चिंतनीय : संसदीय कार्यप्रणाली पर लग रहा सवालिया निशान

    संप्रभुता अभद्र नहीं होती। संसद सर्वोच्च संप्रभु संस्था है। विधि निर्मात्री है। संविधान संशोधन के अधिकार से लैस है। राज्यों की विधानसभा इसी की प्रति छाया है। मौजूदा में संसद से लेकर विधानसभा तक जो हो रहा है, उसे कहीं से उचित नहीं ठहराया जा सकता है। उत्तरप्रदेश विधानमंडल में निर्वस्त्र प्रदर्शन। जम्मू कश्मीर विधानसभा में थप्पड़ मारना। झारखंड, बंगाल, बिहार समेत अन्य विधानसभाओं में हंगामा। देश से लेकर प्रदेश तक दलबदल का मामला। यह सब चिंताजनक स्थिति है। संसद और विधानसभा अपने कार्यसंचालन के स्वामी हैं। संविधान निर्माताओं ने विधायिका को असीम अधिकार दिये। अध्यक्ष के निर्णय को सर्वोपरि माना गया। अध्यक्ष की गरिमा और महिमा का आधार तटस्थता और निष्पक्षता है, लेकिन अनेक बार अध्यक्ष के कार्यकलाप में दलीय प्रतिबद्धता दिखती है। दरअसल संसद या विधानसभा में जो हो रहा, वह जनतंत्र नहीं है। वह दलतंत्र है। मौजूदा हालत यह है कि संसद हो या विधानसभा यहां जनतंत्र पर दलतंत्र भारी है। इसके लिए केवल सत्ता पक्ष ही नहीं, विपक्ष भी उतना ही जिम्मेदार है। सत्ता पक्ष को भी कभी विपक्ष में बैठना पड़ता है और विपक्ष को भी कभी न कभी सत्ता मिलती है। पर स्थिति नहीं बदलती। विधायी संस्थाएं मनमानी का अड्डा ही रह जाती हैं। महाभारत में द्रौपदी का चीरहरण भरी सभा में हुआ था। उस समय विदुर की कही बात संसदीय व्यवस्था के लिए सही लगती है। विदुर ने कहा था, ‘सभा में हुए पाप का आधा भाग सभाध्यक्ष पर, एक चौथाई पाप कर्मियों पर और शेष एक चौथाई पाप मौन रहनेवालों पर लगता है।’ महाभारत में यह सब इसलिए हुआ था, क्योंकि सभा ने अपनी नैतिक शक्ति खो दी थी। हमारे देश में दलीय प्रतिबद्धता के आगे संसद और विधानसभा के कदम नैतिक शक्ति खोने की ओर बढ़ रहे। इस विषय पर सोचने की जरूरत है। संसद और विधानसभा में सदस्यों के व्यवहार, वहां की कार्यप्रणाली और दलबदल मामले को खंगालती आजाद सिपाही के राजनीतिक संपादक प्रशांत झा की रिपोर्ट।

    जब से राष्ट्र का निर्माण हुआ, संभवत: तब से यह देखने-सुनने और राजनेताओं को समझाने का प्रयास चल रहा है कि संसद और विधानसभा लोकतंत्र का मंदिर है। आमतौर पर सदन के अंदर सांसद और विधायक अपनी बातों को रखते हुए इस बात का जिक्र करने से नहीं चूकते हैं। संभव है कि पूर्व में यह एक मंदिर रहा हो और लोकतंत्र के इस मंदिर की एक आदर्श स्थिति रही हो। लेकिन बीते कुछ वर्षों में जो बदलाव आये हैं, उसमें संसद या विधानसभा को लोकतंत्र का मंदिर कहना वस्तुत: लोकतंत्र और मंदिर, दोनों का अपमान है। लोकतंत्र में किसी को मनमानी करने का अधिकार नहीं होता। फिलहाल संसद और विधानसभाओं में इसी अधिकार का प्रदर्शन हो रहा है। खुद सदस्य ही अपने आचरण से सदन की गरिमा गिरा रहे हैं। उन्हें जब इच्छा होती ह,ै पाला बदल लेते हैं। सदन के अंदर सदस्यों के व्यवहार पर भी सवाल खड़े होते रहे हैं। एक बात समझने की जरूरत है कि जो आज सत्ता में हैं, वह कभी विपक्ष में थे और फिर विपक्ष में जा सकते हैं। जो अभी विपक्ष में है, वह कभी सत्ता में थे और फिर एक बार उन्हें सत्ता मिल सकती है। इसलिए संसद या विधानसभा सर्वोपरि है। कम से कम यहां दलगत राजनीति से हट कर काम होना चाहिए।

    सेवा का नहीं, सत्ता का महत्व
    पहले कहा जाता था कि राजनीति सेवा का माध्यम है। अब सेवा भावना की बात कहना बेइमानी है। किसी तरीके से सत्ता पाना सबसे बड़ा मुद्दा है। सत्ता के लिए साम, दाम, दंड, भेद सभी तरीके जायज हो गये हैं। इसी का परिणाम है कि जनता के मुद्दे खो रहे हैं। संसद हो या विधानसभा सत्ता पक्ष की मनमानी और विपक्ष का बायकॉट आम बात हो गयी है। दोनों ही पक्ष चहता है कि किसी विषय पर बहस कम ही हो। आज की राजनीति देख कर समझ नहीं आता कि जनता की सेवा करने के लिए क्या इस तरह की राजनीतिक उठापटक जरूरी है। क्या जनता की सेवा के लिए चुनाव के बाद दल-बदल जरूरी है। क्या जनता की सेवा करने के लिए इस तरह के राजनीतिक दांव-पेंच जरूरी हैं। राजनेता सत्ता बचाने और सत्ता छीनने के खेल से देश की सेवा किस तरह करेंगे, यह समझना मुश्किल है। तमाम बातों को देख कर एक बात स्पष्ट है कि इसी सत्तालोलुपता और सुख-सुविधा और महत्वाकांक्षा के कारण दलबदल का बीजारोपण होता है। इसमें जनता की कोई सहमति या असहमति नहीं होती। सेवा भावना की कई जगह नहीं होती है।

    दलबदल का इतिहास है पुराना
    भारतीय राजनीति में दल-बदल काफी प्रचलित है। सांसद और विधायक अपने राजनीतिक और निजी लाभ के लिए दल बदलते रहते हैं। आजाद भारत के लोकतांत्रिक इतिहास में दल बदल शुरू से होता आ रहा है। इतिहास को देखें, तो 1957 से 1967 तक की अवधि में 542 सांसदों और विधायकों ने दलबदल किया था। जुलाई 1979 में जनता पार्टी में दल-बदल के कारण चौधरी चरण सिंह प्रधानमंत्री पद पर आसीन हो गये थे। जनवरी 1980 के लोकसभा निर्वाचन के बाद कर्नाटक की कांग्रेस और हरियाणा की जनता पार्टी की सरकार दल बदल के कारण रातोंरात बन गयी थी। पहला बड़ा दलबदल 1980 में हरियाणा के तत्कालीन मुख्यमंत्री भजन लाल द्वारा कराया गया था। वह रातोंरात जनता पार्टी विधायक दल को कांग्रेस में लेकर आ गये थे। इसके बाद दल बदल के खेल ने रफ्तार पकड़ ली। हालांकि दलबदल कानून लागू होने के बाद यह उतना आसान नहीं रहा, जितना पहले था। लेकिन माननीयों को लालच देकर या भावनाओं में बहा कर सरकार बनाने या गिराने का सिलसिला आज भी जारी है। गोवा, कर्नाटक, मध्यप्रदेश इसकी मिसाल हैं।

    झारखंड भी नहीं है अछूता
    दलबदल से झारखंड भी अछूता नहीं है। चुनाव से पहले तो यह आम बात है, लेकिन चुनाव के बाद भी दल बदलने का मामला चला है। चौथी और पांचवीं दोनों विधानसभा में दल बदल का मामला हुआ। चौथी विधानसभा में भाजपा की सरकार थी। चुनाव के बाद झाविमो के छह विधायक भाजपा में शामिल हो गये। पांच साल विधानसभा न्यायाधिकरण में मामला चला और अंत में उनके दलबदल को सही ठहराया गया। जब फैसला आया, तो विधानसभा का कार्यकाल समाप्त होने पर था। पंचम विधानसभा में झाविमो का विलय भाजपा में हुआ। एक विधायक बाबूलाल मरांडी भाजपा में गये। दो विधायक प्रदीप यादव और बंधु तिर्की ने कांग्रेस का दामन थामा। इन तीनों विधायकों को अभी तक दूसरे दल में शामिल होने को विधानसभा ने नहीं माना है। विधानसभा न्यायाधिकरण में तीनों विधायकों का मामला चल रहा है।

    कार्यप्रणाली में सुधार की है जरूरत
    सदन में अगर सदस्यों के आचरण पर सवाल खड़े होंगे। सत्ता पक्ष और विपक्ष अपनी-अपनी जिम्मेदारी नहीं निभायेगा। सदन के अंदर शोर-शराबा, मारपीट, तोड़फोड़, अभद्रता होगी। सत्ता पक्ष की मनमानी चलेगी और विपक्ष के हर मुद्दे पर केवल विरोध और बायकॉट होगा, तो सदन की गरिमा पर सवालिया निशान लगेंगे ही। कहने को संसद या विधानसभा में अध्यक्ष को सर्वोच्च माना गया है। उन्हें असीम शक्ति दी गयी है। संसद या विधानसभा की व्यवस्था को बनाये रखने की जिम्मेदारी इन पर होती है। दलबदल को देखना और सही निर्णय लेने का अधिकार इनके पास है। पर भारत में ब्रिटिश संसदीय परंपरा वाले अध्यक्ष का विकास नहीं हुआ है। ब्रिटिश लोकसभा का अध्यक्ष चुने जाते ही दल छोड़ देता है। यहां विट्ठल भाई जे पटेल 1925 में केंद्रीय विधानसभा के अध्यक्ष चुने गये। उन्होंने अपनी स्वराज पार्टी छोड़ दी। संसद हो या विधानसभा, जिन्हें अध्यक्ष बनाया जाता, वह पार्टी नहीं छोड़ते। वह कहीं न कहीं दल से बंधे होते हैं। दल के प्रति उनकी निष्ठा कमोबेश बनी रहती है। यही कारण है कि सदन की कार्यवाही हो या दलबदल का मामला हर फैसले में परोक्ष रूप से सत्ता पक्ष का हाथ ऊपर रहता है। यही कारण है कि दलबदल के लिए बने कानून 10वीं अनुसूची को अपने-अपने तरीके से व्याख्या कर मामले को लटकाया जाता है। जैसा झारखंड विधानसभा में पूर्ववर्ती सरकार ने लटकाया, अब मौजूदा सरकार में मामला लटका हुआ है। संसद की चर्चा करें तो वहां भी हाल में लोजपा को टूटने पर दूसरे पक्ष की राय लिये बिना एक पक्ष को संसदीय दल के नेता की मान्यता दे दी गयी। लोकसभा ने लोजपा के अध्यक्ष चिराग पासवान की बात तक नहीं सुनी।

    बदलाव की है जरूरत
    यहां एक बार फिर पूर्व में महाभारत के विदुर की बात की चर्चा करूंगा। विदुर ने कहा था ‘पाप में एक चौथाई हिस्सा मौन रहनेवालों पर होता है।’ देश के गिरते राजनीतिक स्तर, संसदीय व्यवस्था में गिरावट दल बदल इन मुद्दों पर हर नागरिक को सोचना चाहिए। क्योंकि अगर वह चुप रहेगा, तो वह भी इसका हिस्सेदार होगा। यह मामला हमारे भविष्य से जुड़ा हुआ है। इसलिए जरूरी है कि राजनीति में नैतिकता के महत्व को समझा जाये और यह जो नये तरीकों से सत्ता में आने की राजनीति चल रही है, उसे हतोत्साहित किया जाये। अगर कोई विधायक दल बदल करता है, तो क्षेत्र के मतदाता उसका बहिष्कार करें।

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