एनके सिंह: भारत जैसी किसी शासन पद्धति में, जो एडवर्सेरियल डेमोक्रेसी (द्वंद्वात्मक प्रजातंत्र) की अवधारणा पर आधारित हो, विपक्ष की अहम भूमिका होती है। अगर जन-धरातल में विपक्ष का यह स्थान कम होता जाए तो उससे प्रजातंत्र की गुणवत्ता पर असर पड़ता है। चूंकि सत्ता की प्रकृति ही इस पर काबिज लोगों को भ्रष्ट करने व अधिनायकवादी बनाने की होती है, इसलिए विपक्ष और मजबूत मीडिया अच्छे शासन को सुनिश्चित करने के लिए अपरिहार्य कारक हैं। आज देश की 62 प्रतिशत आबादी पर भाजपा का अपनी राज्य सरकारों के जरिये शासन है और यह बढ़ता जा रहा है। देश की सबसे पुरानी पार्टी कांग्रेस सिमटकर मात्र आठ प्रतिशत आबादी पर शासन में है।
राष्ट्रपति और उपराष्ट्रपति के चुनाव परिणाम आ चुके हैं। विपक्ष और उसकी एकता मात्र एक छलावा बनकर रह गयी है और इस एकता का मुजाहरा गाहे-बगाहे संसद में हंगामा करने तक ही महदूद रह गया है। भारत में बीते कुछ वर्षों में विपक्ष कमजोर ही नहीं हुआ, बल्कि लकवाग्रस्त सा लग रहा है। अमेरिका और ब्रिटेन जैसे दुनिया के अन्य प्रजातांत्रिक देशों से अलग भारत के संदर्भ में इसका मतलब बिलकुल जुदा होता है। इन दोनों देशों में मूलत: द्वि-दलीय व्यवस्था है (हाल में ब्रिटेन में भले ही एक तीसरा दल भी सियासी धरातल पर काबिज हुआ है)। भारत में समाज के सैकड़ों पहचान समूह में बंटे होने के कारण यह संभव नहीं है, लेकिन मुश्किल यह है कि ये पहचान समूह किसी कल्याण के तार्किक भाव के कारण नहीं पैदा हुए बल्कि जाति, संप्रदाय, क्षेत्रीयता व भावनात्मक अतिरेक की उपज हैं। भारत में फर्स्ट-पास्ट-द-पोस्ट (जिसको ज्यादा वोट, वो जीता) चुनाव पद्धति के कारण सियासी वर्ग को यह आसान लगता है कि समाज को इसी तरह के पहचान समूहों में बांटकर वोट हासिल करें। इसके कारण मुख्य दल कांग्रेस सिकुड़ने लगा, क्योंकि उसके पास जातिवाद की कोई काट नहीं थी।
धर्मनिरपेक्षता कांग्रेस के लिए महज मुसलमानों के वोट की खातिर एक नारा था। इस वोट बैंक में भी इन जातिवादी पार्टियों ने सेंध लगायी। होना तो यह चाहिए था कि पार्टियां अपनी विचारधारा बनायें और उनसे जनता को प्रभावित करें, पर इसकी जहमत कौन ले। लिहाजा जब भाजपा ने वर्ष 1984 में अपने सहोदर धार्मिक संगठन विश्व हिंदू परिषद के जरिए राम मंदिर का मुद्दा उठाया और उसी साल कांसीराम ने दलितों के नाम पर बहुजन समाज पार्टी बनाई तो अगले चार वर्षों मे भारतीय समाज को तोड़ने के लिए तत्कालीन सत्ता पक्ष (वीपी सिंह के प्रधानमंत्रित्व में) पिछड़ी जातियों के लिए मंडल आयोग की सिफारिशें लाया, जिसमें आरक्षण के जरिये सरकारी नौकरियों में पिछड़ों को भी शामिल करने की अनुशंसा थी।
अगले दो साल में तमाम राज्यों में सामाजिक न्याय की ताकतों के रूप में कोई लालू यादव और कोई मुलायम सिंह यादव उभरने लगे। कारण था कि उत्तर भारत के इन दो राज्यों उत्तर प्रदेश और बिहार में यादव का प्रतिशत क्रमश: 10 और 16 तथा मुसलमानों का 18.6 और 10.2 प्रतिशत है और यादव अन्य पिछड़ी जातियों के मुकाबले आक्रामक भी अधिक थे। जब भी किसी मायावती, (स्वर्गीय) जयललिता, मुलायम सिंह यादव या लालू यादव पर भ्रष्टाचार का आरोप लगा तो अगले चुनाव में उनके वोट बढ़ गये और अधिकांश अवसरों पर ये सत्ता पर काबिज हो गये। दरअसल भारत में प्रजातंत्र की नियति ही उल्टी है। वोटर के संकीर्ण पहचान समूहों में बंटे रहने के कारण अपने भ्रष्ट नेता में उसे अपना असली रॉबिनहुड नजर आता है।
ऐसा इसलिए होता है कि अर्द्धशिक्षित, अभावग्रस्त और कोउ नृप होहिं हमें का हानि के शाश्वत भाव से अर्धमूर्च्छा की स्थिति में जीने वाले भारतीय समाज के बड़े तबके की तर्कशक्ति क्षीण होती है और वह इतने से ही संतुष्ट हो जाता है कि उनकी जाति का व्यक्ति भी सदियों से शोषक रहे उच्च वर्ग की भाषा बोलता है और वैसा ही भ्रष्टाचार भी करता है। शहाबुद्दीन सरीखे अपराधियों को भी (आज भी भारतीय संसद में लगभग एक-तिहाई माननीयों पर आपराधिक मुकदमे हैं) इसलिए चुनता है कि राज्य, उसके अभिकरणों या कानून-व्यवस्था पर उसका विश्वास कम होता जा रहा है और अपराधियों में उस न्याय की उम्मीद दिखती है।
बिहार का सियासी परिदृश्य देश के प्रजातंत्र की इसी बिगड़ती सेहत का परिचायक है। मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने कहा कि जनता के सामने उपमुख्यमंत्री तेजस्वी यादव अपनी बेगुनाही सिद्ध करें। हालांकि यह खेल समाप्त हो गाया मगर संवैधानिक स्थिति यह है कि अनुच्छेद 162(2) के सामूहिक जिम्मेदारी के सिद्धांत के तहत मुख्यमंत्री को अपने मंत्री से यह कहना था कि आप मुझे अपनी बेगुनाही के सबूत दें। जनता अदालत होती तो इस उपमुख्यमंत्री के पिता लालू यादव 20 साल तक देश की छाती पर मूंग दलते हुए हर चुनाव में जीत के बाद संविधान में निष्ठा और विश्वास की शपथ लेते हुए भ्रष्टाचार में लिप्त न रहते। बहरहाल, बिहार की राजनीतिक परिणति से तय हो गया कि नीतीश अपनी राजनीतिक निष्ठा को लेकर पाला बदलने की क्षमता की धमक के साथ एक बार फिर से सत्ता में बने रहने का सौभाग्य वाया वीजेपी पा सके।
दूसरा, तेजस्वी का जाना तय है। खबर यह है कि लालू यादव गरीबों व मजलूमों की आवाज उठाए रखने के लिए अपनी सात बेटियों में से मुंबई-स्थित तीसरी बेटी को मंत्री पद की शपथ दिलाएंगे, यानी ‘संविधान में निष्ठा व विश्वास की एक बार फिर शपथ। इस प्रक्रिया से लालू के हाथ में राज्य की सत्ता भी बनी रहेगी और नीतीश की इमेज भी।
राजनेताओं पर भ्रष्टाचार के मामले प्रजातंत्र के घाव से बहते उस मवाद का संकेत देते हैं जिसकी सड़ांध चीख-चीख कर समाज के कैंसर के मेटास्टेसिस स्टेज (जब बीमारी शरीर के बाकी हिस्सों में फैलने लगती है) के खतरे की ओर इंगित करती है। यदि ऐसे राजनेता दसियों साल तक वोट भी पाते रहते हैं, तो गलती नेता की नहीं जनता की समझ की है।
अगर विपक्ष को मजबूत होना है तो कांग्रेस को सौरमंडल के उस मुख्य सूर्य की तरह बनना पड़ेगा, जिसके इर्द-गिर्द ग्रह की तरह तमाम क्षेत्रीय दल रहें। उसे अपने कैडर को वैचारिक रूप से मजबूर करना होगा ताकि वह छद्म-धर्मनिरपेक्षता से हटकर वास्तविक मुद्दे पर जनचेतना जगाए। यह तब तक नहीं हो सकता, जब तक जाति समूहों में बंटे लोगों की चेतना में यह बात नहीं बैठेगी कि ये लालू-मुलायम-मायावाती उनके कल्याण से ज्यादा अपने व अपने परिवार के कल्याण में लगे हैं। और यह काम भी या तो कांग्रेस कर सकती है या फिर भाजपा। और अभी तक तो भाजपा ही इसमें भी आगे दिख रही है। और यही वजह है कि बिहार और उत्तर प्रदेश में भी इस सांप्रदायिक समझी जाने वाली पार्टी को यादवों और अन्य पिछड़ों के वोट मिलने लगे हैं, जबकि ‘सेक्युलर कांग्रेस को नहीं।