झारखंड के चेहरे पर पिछले एक-डेढ़ महीने के दौरान जिन घटनाओं ने राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर दाग लगाया है, उनमें एक खास तरह का पैटर्न नजर आता है। यही कारण है कि अब यह संदेह होने लगा है कि कहीं इन घटनाओं का मकसद मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन को घेरना तो नहीं है, कहीं उन्हें राजनीतिक और प्रशासनिक रूप से अक्षम-कमजोर साबित करना तो नहीं है, ताकि झारखंड की सियासत की गाड़ी को अपनी मर्जी के अनुरूप हांका जा सके। झारखंड में हो रही घटनाओं का पैटर्न देखने पर सहज ही यह समझ में आ जाता है कि इन घटनाओं को एक खास मकसद के लिए अंजाम दिया जा रहा है, एक खास नैरेटिव सेट करने के लिए इन्हें सुर्खियों में लाया जा रहा है। यह अभियान पिछले डेढ़ महीने में नहीं, बल्कि 2019 के विधानसभा चुनाव के तत्काल बाद हेमंत सोरेन सरकार द्वारा सत्ता संभालने के बाद ही शुरू हो गया था, लेकिन वैश्विक महामारी कोरोना के कारण उसमें बहुत धार नहीं दी जा सकी थी। लोहरदगा से लेकर गढ़वा और संथाल परगना की घटनाएं साबित करती हैं कि इन सबके पीछे एक खास मकसद है और वह है झामुमो के गढ़ रहे या बन रहे इलाकों में झारखंड की सबसे ताकतवर क्षेत्रीय पार्टी को कमजोर करना और इसके जरिये हेमंत सोरेन को बदनाम करना। इस साजिश में किसी दल या संगठन का ही हाथ नहीं हो सकता है, बल्कि ऐसे लोग भी शामिल हो सकते हैं, जो अपने मकसद के लिए झामुमो के इर्द-गिर्द हों। झारखंड की इस साजिश के कारणों का विश्लेषण कर रहे हैं आजाद सिपाही के विशेष संवाददाता राकेश सिंह।

पिछले 5 सितंबर को झारखंड विधानसभा के एक दिवसीय विशेष सत्र के बाद राजधानी रांची के एक प्रबुद्ध व्यक्ति ने टिप्पणी की कि यह सारा प्रकरण केवल एक व्यक्ति को नकारा साबित करने के लिए हो रहा है और उस व्यक्ति का नाम है हेमंत सोरेन। इस टिप्पणी पर चौंकना स्वाभाविक था, क्योंकि वह व्यक्ति झामुमो विरोधी स्टैंड के लिए जाना जाता है। जब उनसे सवाल किया गया कि क्या वाकई हेमंत सोरेन नकारा हैं, तो उनका जवाब था: नहीं, वह नकारा नहीं हैं। इसलिए तो उनके खिलाफ यह सब साजिश रची जा रही है। काफी विस्तार से चर्चा हुई और तब कहीं न कहीं यह आभास हुआ कि उस व्यक्ति की टिप्पणी बहुत गलत नहीं थी।

झारखंड में पिछले विधानसभा चुनाव के बाद हेमंत सोरेन के नेतृत्व में सरकार बनने के बाद की घटनाओं को याद कीजिए। एक-एक कर घटनाओं का खुली आंखों और दिमाग से विश्लेषण कीजिए, खुद-ब-खुद पता चल जायेगा कि इन सभी का एक खास पैटर्न रहा है। बहुत पीछे की घटनाओं को छोड़ भी दिया जाये, तो हाल की घटनाओं का ही उदाहरण लिया जा सकता है। कोयला से लेकर बालू और पत्थर तस्करी से लेकर मानव तस्करी की घटनाओं के केंद्र में कौन से इलाके रहे हैं। इतना ही नहीं, सांप्रदायिक टकरावों का घटनास्थल कौन सा रहा है। स्कूलों में रविवार की जगह शुक्रवार को छुट्टी की खबरें किस इलाके से आयीं और कहां एक खास समुदाय द्वारा उत्पात किये जाने के समाचार आये। कथित लव जिहाद और लड़कियों-महिलाओं के खिलाफ अपराध की सबसे अधिक वारदात किन इलाकों में हुई हैं। इन सारे सवालों का जवाब एक ही है। इन सारी घटनाओं के केंद्र में वे इलाके रहे हैं, जहां या तो झामुमो राजनीतिक रूप से मजबूत हुआ है या फिर सोरेन परिवार वहां से सीधे जुड़ा हुआ है। आखिर दूसरे इलाकों से इस तरह की किसी घटना की खबर क्यों नहीं मिल रही है। यह सोचनेवाली बात है।

तो फिर क्या वाकई झारखंड में एक नैरेटिव सेट किया जा रहा है कि एक मुख्यमंत्री के रूप में हेमंत सोरेन नकारा हैं और उनकी सरकार में एक खास समुदाय को कानून का डर नहीं रह गया है। यह सवाल इसलिए महत्वपूर्ण हो जाता है, क्योंकि हाल के दिनों में हेमंत सोरेन राजनीतिक रूप से पहले से कहीं अधिक मजबूत हुए हैं। उन्होंने दिखा दिया है कि वह इस मनोवैज्ञानिक या दिमागी खेल को अच्छे से खेल सकते हैं और अपने राजनीतिक विरोधियों को इस स्थिति में रख सकते हैं कि वे अनुमान ही लगाते रह जायें।

यह बात सही है कि झारखंड की वर्तमान राजनीतिक और प्रशासनिक परिस्थितियां करीब तीन साल पुरानी हेमंत सोरेन सरकार के सामने सबसे बड़ी चुनौतियों में से एक है, जिसका सामना सोरेन ने अपने अब तक के राजनीतिक जीवन में अभी तक नहीं किया था। लेकिन इन कठिन चुनौतियों और तनाव भरे समय में भी हेमंत सोरेन शांत बने हुए हैं, तो इसके पीछे के कारणों को जानना और भी दिलचस्प हो सकता है।
लेकिन हेमंत सोरेन को एक पल के लिए किनारे रखते हैं। बात करते हैं झारखंड के व्यापक हितों की। क्या झारखंड की सवा तीन करोड़ आबादी को याद है कि 2019 से पहले कभी झारखंड के हितों की बात की गयी थी। झारखंड अलग राज्य बनने के बाद से ही लगातार यह बात कही जाने लगी थी कि यह एक फेल्योर स्टेट है। लेकिन हेमंत सोरेन ने बहुत सारे ऐसे फैसले लिये, जिनसे उन्हें राजनीतिक ही नहीं, प्रशासनिक ताकत भी मिली। संथाल परगना के अपने मजबूत और लगभग अभेद्य किले से निकल कर झारखंड के इस पहले राजनीतिक परिवार के उत्तराधिकारी ने आदिवासियों को जो पहचान दी, वह बहुतों से हजम नहीं हो पा रहा।

यही कारण है कि गड़बड़ियां सबसे पहले संथाल परगना से शुरू हुईं। फिर सूची में नाम जुड़ा गढ़वा का, जो आम तौर पर अभावग्रस्त इलाका माना जाता था। कम बारिश के बावजूद यह इलाका राजनीतिक नजरिये से करवट ले रहा था। झामुमो को पहली बार यहां सेबड़ी कामयाबी मिली। लेकिन पिछले करीब तीन साल के दौरान हुई वारदातों ने साफ कर दिया है कि सब कुछ सुनियोजित तरीके से हो रहा है।

अब एक नजर इन वारदातों के प्रति राजनीतिक दलों की प्रतिक्रियाओं पर डालते हैं। क्या यह बात महत्वपूर्ण नहीं है कि वारदात वाले इलाकों के लिए प्रभारी मंत्री बनाये गये हैं और उन्हें वहां जाकर पीड़ितों-प्रभावितों से मिलना चाहिए। यदि मंत्री नहीं भी हैं, तो भी संबंधित इलाके के जनप्रतिनिधियों को तो तत्काल मौके पर पहुंचना जरूरी माना जाता है। फिर क्या कारण है कि दुमका की अंकिता सिंह के घर न तो आलमगीर आलम जाते हैं और न बादल पत्रलेख, जबकि ये दोनों उसी इलाके से आते हैं। इनका कोई बयान भी सामने नहीं आता है। गढ़वा में लव जिहाद की घटन् चार साल पुरानी है, लेकिन एक हफ्ते के भीतर उसे इस तरह परोसा गया, मानो अभी-अभी ऐसा हुआ है। यह सब गहन जांच का विषय हो सकता है। लेकिन इतना जरूर है कि इन सबके पीछे एक खास मकसद काम कर रहा है, जिसके निशाने पर केवल एक व्यक्ति है और वह है हेमंत सोरेन। इसलिए अब हेमंत सोरेन को न केवल अपने विरोधियों से, बल्कि अपने इर्द-गिर्द रह रहे वैसे लोगों से भी चौकस रहना होगा, जो खाते तो उनकी थाली में हैं, लेकिन बाद में उसी में छेद करने के लिए उद्यत रहते हैं। जो अपने राजनीतिक लाभ के लिए चुनाव तो उनके साथ लड़ते हैं, लेकिन जब हेमंत सोरेन के खिलाफ राजनीतिक हमला होता है, तो वे किनारा कर लेते हैं। एक खास वर्ग के लोग जब घटनाओं को अंजाम देते हैं, तो हेमंत सोरेन सरकार के सहयोगी एक बार भी घटनाओं की भर्त्सना-निंदा नहीं करते। लेकिन जब पुलिस उस पर एक्शन लेती है, तो वे मांग करने लगते हैं कि इस अधिकारी को बदलो, उस अधिकारी को बदलो। दबाव बनाने के लिए प्रतिनिधियों का रेला लग जाता है। याद कीजिए, जब रांची की घटना हुई, पुलिस को निशाना बनाया गया, तो क्या हेमंत सरकार के सहयोगी दल के किसी नेता या मंत्री का यह बयान आया कि ऐसा नहीं होना चाहिए। लेकिन जैसे ही पुलिस प्रशासन ने एक्शन लेना शुरू किया, एक खास वर्ग के लोगों ने तूफान खड़ा कर दिया। पिछले चार दिनों से ओरमांझी के एक स्कूल में घटना घटी। इस घटना ने हेमंत सोरेन की सरकार की साख पर बट्टा लगाया है। लेकिन इसका सबसे आश्चर्यजनिक पहलू यह है कि अब तक किसी भी बुद्धिजीवी या सामाजिक कार्यकर्ता ने इस घटना की भर्त्सना नहीं की है। नरकोपी से लेकर, लोहरदगा, बरही से लेकर गढ़वा तक की घटनाओं में एक समुदाय विशेष का हाथ रहा है, लेकिन उस समुदाय विशेष के जिम्मेदार लोगों ने एक बार भी नहीं कहा कि इस तरह की घटनाओं पर रोक लगनी चाहिए। बुद्धिजीवियों और समाजसेवियों की यह चुप्पी झारखंड के लिए खतरनाक है।

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