विशेष
झारखंड में अगर सफल होना है तो झारखंडी चेहरों को आगे करना होगा
नमस्कार। आजाद सिपाही विशेष में आपका स्वागत है। मैं हूं राकेश सिंह।
झारखंड विधानसभा चुनाव में लगातार दूसरी बार पराजित हो चुकी भारतीय जनता पार्टी आज ऐसे दोराहे पर खड़ी है, जहां से उसे न आगे का सही रास्ता नजर आ रहा है और न ही पुराने दिनों की तरफ लौटने का कोई जरिया। एक पखवाड़े पहले संपन्न हुए विधानसभा चुनाव में भाजपा की पराजय आंकड़ों की दृष्टि से तो सबसे बड़ी है ही, झारखंड में अब तक की सबसे खराब भी है। इस पराजय के बाद अब झारखंड की हवा में यह सवाल तैरने लगा है कि प्रदेश भाजपा के सामने अब कौन सा रास्ता बचा है। पार्टी अब क्या करेगी। यह सवाल इसलिए भी उठ रहा है, क्योंकि यह पहली बार है, जब झारखंड भाजपा अपने विधायक दल के नेता का चुनाव करने के लिए विधायकों की बैठक तक नहीं बुला पा रही है। नयी विधानसभा का पहला सत्र सोमवार से शुरू हो रहा है, लेकिन इसमें कोई नेता प्रतिपक्ष नहीं होगा। झारखंड भाजपा अपनी हार के कारणों की तलाश में जुटी है, लेकिन उसने उन चूकों की तरफ ध्यान नहीं दिया है, जो हार का कारण बन गयीं। अपने कोर वोटरों और स्थानीय नेतृत्व की उपेक्षा के अलावा भाजपा ने कुछ ऐसी गलतियां भी की, जो उसकी दुर्गति का कारण बन गयी। पार्टी जब तक इन गलतियों से सीख नहीं लेगी और पुरानी नीतियों पर चलती रहेगी, तब तक कम से कम झारखंड में उसका बेड़ा पार लगना फिलहाल मुश्किल दिखाई पड़ रहा है। क्या है झारखंड भाजपा की दुविधा और चुनाव के दौरान उसके द्वारा की गयी गलतियों का असर, बता रहे हैं आजाद सिपाही के विशेष संवाददाता राकेश सिंह।
झारखंड का सियासी माहौल अब शांत हो चुका है। विधानसभा चुनाव संपन्न होने के बाद नयी सरकार ने कामकाज संभाल लिया है और नयी विधानसभा का पहला सत्र भी नौ दिसंबर से शुरू हो रहा है। शांत हो चुके इस सियासी माहौल में एक सवाल, जो सबको परेशान कर रहा है, वह यह है कि झारखंड भाजपा अब आगे क्या करेगी। प्रदेश में दोबारा खड़ा होने के लिए उसके पास कौन से रास्ते हैं। यह सवाल इसलिए भी उठ रहा है, क्योंकि चुनावी हार के बाद पार्टी का हौसला बुरी तरह पस्त दिखाई दे रहा है। हालत यह है कि पार्टी अपने विधायक दल के नेता का चुनाव भी नहीं करा पा रही है, ताकि उसे विधानसभा में नेता प्रतिपक्ष बनाया जा सके। महज एक चुनावी हार ने भाजपा को भीतर तक हिला दिया है। उसके नेता कुछ भी कहने की स्थिति में नहीं हैं। लेकिन अहम सवाल यही है कि भाजपा आगे क्या करेगी। भाजपा की इस पराजय का एक कड़वा सच यह भी है कि आदिवासी वोटर अब उससे पूरी तरह कट चुके हैं। झारखंड के निर्माण में भाजपा की भले भूमिका रही हो, लेकिन राज्य के लिए उसकी नीतियां अब यहां के आदिवासियों को पसंद नहीं आ रहीं।
नये प्लान पर काम करेगी भाजपा
वर्ष 2019 के विधानसभा चुनाव में हार के बाद भाजपा ने बाबूलाल मरांडी को अपने पाले में लाकर नये प्लान पर काम करना शुरू किया था। उसे लगा था कि आदिवासी चेहरे को कमान सौंपने से उससे छिटक गये आदिवासी दोबारा उससे जुड़ जायेंगे। बाबूलाल मरांडी ने जम कर मेहनत की, पूरे प्रदेश की यात्राएं की और भाजपा के पक्ष में माहौल बनाने का प्रयास किया। लेकिन 2024 के चुनाव से ठीक पहले जिस तरह उन्हें दरकिनार कर दिया गया, वह बहुत से लोगों को रास नहीं आया। बाहरी नेताओं ने स्थानीय नेतृत्व को हाई जैक कर लिया था। इसलिए अब अनुमान लगाया जा रहा है कि भाजपा झारखंड में खुद को दोबारा खड़ा करने के लिए नये प्लान पर काम करेगी। इसके तहत स्थानीय नेतृत्व को कमान सौंपना और नेताओं के बीच की प्रतिद्वंद्विता को खत्म करना शामिल है। सवाल यह भी है कि क्या भाजपा आदिवासी वोटों का मोह छोड़कर नये सिरे से नया नेतृत्व तलाश करे। इसका जवाब शायद नहीं है, क्योंकि यदि बाबूलाल मरांडी नहीं होते, तो भाजपा की हालत और बुरी हो सकती थी, ऐसा लोगों का मानना है।
दूर जा चुके हैं आदिवासी वोटर
अब भाजपा को यह स्वीकार करने में तनिक भी संकोच नहीं करना चाहिए कि झारखंड का आदिवासी समाज उससे लगातार कटता रहा है। इसे समझने के लिए सिर्फ एक उदाहरण काफी है। इस साल हुए लोकसभा चुनाव में भाजपा आदिवासियों के लिए आरक्षित सभी पांच सीटें हार गयी। इन्हीं पांच सीटों के अंतर्गत विधानसभा की 28 आरक्षित सीटें आती हैं। 2019 के चुनाव में भाजपा को आदिवासियों के लिए आरक्षित 28 विधानसभा सीटों में 26 पर हार मिली थी। इस बार तमाम तिकड़म के बावजूद भाजपा की झोली में सिर्फ एक आदिवासी सीट मिली है। झामुमो छोड़ कर भाजपा में आये पूर्व सीएम चंपाई सोरेन ने अपनी आदिवासी सीट जीत कर भाजपा की लाज बचायी है।
भाजपा से क्यों कटे आदिवासी
भाजपा में अपनी बुरी हार पर मंथन जरूर होगा। कारणों की पड़ताल की जायेगी कि भाजपा की यह दुर्गति अपने ही बनाये झारखंड में क्यों हो गयी। भाजपा के इस हाल में पहुंचने की पटकथा 2014 में लिखी गयी, जब झारखंड की जनता ने देश की तरह नरेंद्र मोदी पर भरोसा कर भाजपा को स्पष्ट बहुमत दिया था। भाजपा ने पहली चूक रघुवर दास को सीएम बना कर की। इससे पहले आदिवासी समाज से बाबूलाल मरांडी और अर्जुन मुंडा को भाजपा ने सीएम बनाया था। पहली बार भाजपा ने झारखंड में गैर आदिवासी सीएम का प्रयोग किया। तत्कालीन विपक्ष ने उन्हें बाहरी और गैर-आदिवासी बता कर आदिवासी समाज की गोलबंदी शुरू की। इस बीच पत्थलगड़ी और सीएनटी-एसपीटी एक्ट पर सरकार के कदम से भी आदिवासी समाज को गोलबंद करने का विपक्ष को मौका मिला।
स्थानीय नेतृत्व पर हाशिये पर रहा
इस बार बाहर के गैर-आदिवासी चुनाव प्रभारी आये, तो उन्होंने स्थानीय नेतृत्व को इस कदर किनारे रखा कि उनकी कोई पहचान ही नहीं बन पायी। बाबूलाल मरांडी प्रदेश अध्यक्ष और भाजपा के संभावित सीएम फेस होते हुए भी महाराष्ट्र के देवेंद्र फडणवीस की भूमिका में नहीं आ पाये। नतीजा सबके सामने है। भाजपा अगर किसी आदिवासी का सीएम फेस सामने रखती, तो इस बार भले उसे भरोसा जीतने में आंशिक सफलता मिलती, लेकिन अगली बार के लिए यह उसके हित में ही साबित होती।
अब ओबीसी और पिछड़े भी छिटकने लगे
झारखंड में भाजपा के तीन बड़े परंपरागत वोट बैंक थे- ओबीसी, कुर्मी और सवर्ण। लेकिन पूरे चुनाव में तीनों समुदायों का कोई चेहरा नहीं दिखा। भाजपा ने पूरी तरह छिटक चुके आदिवासी वोटरों का विश्वास जीतने में दिन-रात एक कर दिया। वह तो ठीक था, लेकिन कोर वोटर लगभग अनदेखा कर दिया। परिणाम हुआ कि न खुदा ही मिला न विसाले-सनम। भाजपा को पता है कि झारखंड में आदिवासी समाज का बहुत बड़ा हिस्सा शिबू सोरेन के झामुमो के साथ है। कई बार की कोशिशों के बावजूद भाजपा उसे पूरी तरह हिला नहीं सकी। इसीलिए दस साल पहले भाजपा ने वहां ओबीसी कार्ड खेला था और इसी फार्मूले पर रघुवर दास चेहरा बनकर उभरे थे। आदिवासियों के बाद झारखंड में सबसे बड़ा वोट बैंक कुर्मियों का है। इस समूह से भाजपा के पास कभी शैलेंद्र महतो, आभा महतो एवं रामटहल चौधरी सरीखे स्थापित नेता हुआ करते थे। लेकिन आज भाजपा इस मामले में भी कमजोर है।
झारखंड भाजपा की दूसरी चिंता इसी बात को लेकर है कि आदिवासियों के साथ अब उसके कोर वोटर भी उससे छिटकने लगे हैं। आदिवासी वोटर तो भाजपा से पूरी तरह छिटक ही चुके हैं, लेकिन कुर्मी और ओबीसी वोटरों का छिटकना भाजपा के लिए घातक हो सकता है। देवघर, छतरपुर और कांके जैसी अनुसूचित जाति के लिए आरक्षित सीटों पर भाजपा की हार से यह बात साफ हो गयी है कि अनुसूचित जाति का बड़ा वर्ग भी अब भाजपा को पसंद नहीं कर रहा है। भाजपा को इस संकट से पार पाने के लिए अब नये नेतृत्व को सामने लाने पर फोकस करना होगा।
पार्टी का झारखंडीकरण करना जरूरी
भाजपा के साथ एक और बड़ी समस्या यह है कि वह अब तक खुद को झारखंडी नहीं बना सकी है। मन-मिजाज और कार्यशैली से ही किसी पार्टी की पहचान बनती है और लोग उससे जुड़ते हैं। लेकिन यह एक हकीकत है कि भाजपा 24 साल बाद भी झारखंड को आत्मसात नहीं कर सकी है। झारखंडी अस्मिता पर भाजपा का कोई स्पष्ट फार्मूला नहीं बना है। भाजपा का नेतृत्व अब भी प्रवासियों के हाथ में है, जिसे आदिवासी-मूलवासी मानने को तैयार नहीं हैं। भाजपा के पास ऐसा कोई नेता नहीं है। जो किसी आदिवासी के गांव में चला जाये और स्थानीय भाषा में बात करे। इस चुनाव में यह बात साफ दिखी। इसलिए पार्टी को अब खुद का झारखंडीकरण करना होगा। उसे अपने झंडे में हरे रंग का आकार बढ़ाना होगा।