विशेष
-पलायन, भ्रष्टाचार और पिछड़ेपन जैसे बड़े मुद्दों से होगा प्रत्याशियों का सामना
-2019 में ध्वस्त हो चुके गढ़ को फिर हासिल करने की है झामुमो को चुनौती
-भाजपा के लिए आसान नहीं है इस सीट को फिर से अपनी झोली में ले आना
-बड़ा सवाल : क्या इस बार सोरेन परिवार का कोई नया सदस्य मैदान में उतरेगा
झारखंड की उप राजधानी दुमका का संसदीय क्षेत्र प्रशासनिक रूप से जितना पिछड़ा है, राजनीतिक रूप से उतना ही संवेदनशील है। झारखंड के 14 लोकसभा निर्वाचन क्षेत्रों में से एक इस संसदीय क्षेत्र में जामताड़ा, दुमका और देवघर जिले के विधानसभा क्षेत्रों को समाहित किया गया है। यहां पर खनन में प्राप्त पाषाणकालीन औजार इस क्षेत्र की ऐतिहासिकता की गवाही देते हैं। राजमहल की पहाड़ियों से घिरे होने के कारण यह क्षेत्र बेहद दुर्गम रहा है। यही ‘दुर्गम’ शब्द आगे चल कर ‘दुमका’ हो गया। 1539 में चौसा के युद्ध में शेरशाह सूरी की जीत के बाद यह क्षेत्र अफगानों के कब्जे में आ गया। बाद में यह इलाका मुगल सम्राट अकबर के प्रभुत्व में आ गया। बासुकिनाथ धाम यहीं पर है। भगवान भोलेनाथ धाम के नाम से इसे पूरे देश में जाना जाता है। सावन महीने में यहां पूरे देश से हिंदू धर्म के लोग कांवर लेकर पहुंचते हैं। दुमका सीट को झामुमो का गढ़ कहा जाता है, लेकिन 2019 में यह गढ़ ध्वस्त हो गया। झारखंड के सबसे बड़े राजनीतिक शख्सियत शिबू सोरेन की कर्मभूमि पर वह भाजपा के प्रत्याशी सुनील सोरेन से पराजित हो गये। हालांकि यह पहली बार नहीं था। दुमका में झामुमो की जीत का पहिया लगातार घूमता रहा है। 1998 में भी भाजपा के बाबूलाल मरांडी ने जेएमएम के इस गढ़ को भेदा था। वर्ष 2002 के मध्यावधि चुनाव से 2014 तक शिबू सोरेन ने इस सीट पर लगातार चार बार जीत हासिल की। दुमका सीट से जीत-हार की राजनीति का गणित बदलता रहा है। इस बार यहां पलायन और भ्रष्टाचार के अलावा पिछड़ेपन जैसे गंभीर मुद्दे तो हैं, लेकिन इनकी बात नहीं हो रही। लोग इसी चर्चा में व्यस्त हैं कि क्या इस बार झारखंड के पहले राजनीतिक परिवार का कोई नया सदस्य यहां उनकी नुमाइंदगी करने के लिए मैदान में उतरेगा। क्या है दुमका संसदीय सीट का इतिहास और 2024 में क्या हो सकते हैं मुद्दे, बता रहे हैं आजाद सिपाही के विशेष संवाददाता राकेश सिंह।
जल, जंगल और जमीन, आदिवासी इलाकों की बुनियाद इन्हीं तीन पैमानों पर टिकी होती है। झारखंड का दुमका एक आदिवासी बहुल क्षेत्र है। दुमका यानी विशाल पहाड़ियों और जंगल के अंदर स्थित जगह, जो प्राकृतिक संसाधनों के मामले में काफी समृद्ध है। दामिन-ए-कोह की पहाड़ियों के ऊपर बसा यह क्षेत्र कई पर्वत, नदियों और घाटियों से भरा हुआ है। वर्ष 2000 में नये झारखंड राज्य के गठन के बाद दुमका जिले को विभाजित किया गया और जमताड़ा उप-डिवीजन को अलग जिले के रूप में अपग्रेड किया गया। अपने पश्चिम में धार्मिक नगरी देवघर (शिव के द्वादश ज्योतिर्लिंगों में से एक बैद्यनाथ धाम) से सटे दुमका की सियासत के केंद्र में ‘गुरुजी’ रहे हैं। गुरुजी यानी शिबू सोरेन, जो पिछले चार चुनावों से यहां अजेय बने हुए थे। 1980 में पहली बार चुनाव जीतने वाले शिबू सोरेन का इस आदिवासी बहुल इलाके में मजबूत जनाधार है। पिछले चार दशक से यहां की सियासत उन्हीं के आगे-पीछे घूमती रही है। यहां तक की 2014 की मोदी लहर में भी गुरुजी का किला उनके पास बरकरार रहा। हां 2019 में उन्हें भाजपा के सुनील सोरेन ने शिकस्त दी। बता दें कि झारखंड मुक्ति मोर्चा सुप्रीमो तीन बार झारखंड के मुख्यमंत्री भी रह चुके हैं।
दुमका सीट की खासियत
खनिजों की मौजूदगी से दुमका देश की अर्थव्यवस्था में अहम योगदान दे रहा है। इसके अलावा भवन निर्माण सामग्री यहां प्रचुर मात्रा में मिल रही है, जो औद्योगिक दृष्टिकोण से प्रमुख भूमिका निभा सकती है। जिले का 30 फीसदी से अधिक वन क्षेत्र है और यह औषधीय पौधों और पेड़ों से भरा हुआ है। जंगल आधारित उद्योगों के लिए लंबे बांस के पेड़ बड़ा जरिया बन सकते हैं। यह जिला धार्मिक दृष्टिकोण से काफी अहम है। बाबा बासुकीनाथ मंदिर और मलूटी मंदिर श्रद्धालुओं को आकर्षित करते हैं।
दुमका की सीट झारखंड की राजनीति और बड़े नेताओं की साख से जुड़ी रही है। यह झारखंड की राजनीति का रुख बदलनेवाली सीट रही है। 80 के दशक में झामुमो सुप्रीमो शिबू सोरेन ने झामुमो का खूंटा संताल परगना में इसी सीट के सहारे गाड़ा था। यहां से शिबू सोरेन ने आठ बार चुनाव जीत कर इस सीट को झामुमो का अभेद्य किला बनाया था। वर्ष 1989, 1991 और 1996 के तीन चुनाव में शिबू सोरेन की लगातार जीत हुई। इस सीट पर झामुमो की जीत का पहिया लगातार घूमता रहा है। वर्ष 2002 के मध्यावधि चुनाव से 2019 तक शिबू सोरेन ने इस सीट पर लगातार चार बार जीत हासिल की। दुमका सीट से जीत-हार की राजनीति का गणित बदलता रहा है। 1998-99 में पहली बार भाजपा ने बाबूलाल मरांडी के सहारे इस सीट पर जीत का झंडा गाड़ा और शिबू सोरेन को शिकस्त देनेवाले बाबूलाल भाजपा का बड़ा चेहरा बन कर उभरे। तब अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार में वन और पर्यावरण राज्यमंत्री बनाये गये। भाजपा के लिए यह जीत संताल परगना में पैर पसारने की जगह तैयार करनेवाली थी।
क्या है वर्तमान स्थिति
दुमका संसदीय सीट अनुसूचित जनजाति के लिए आरक्षित है। इस लोकसभा क्षेत्र में कुल छह विधानसभा सीटें आती हैं। शिकारीपाड़ा (एसटी), जामताड़ा, दुमका (एसटी), नाला, सारथ और जामा (एसटी) विधानसभा क्षेत्र इसके तहत आते हैं। दुमका लोकसभा सीट पर आदिवासी मतदाता ही तुरुप का इक्का रहे हैं। 1980 में जब सोरेन पहली बार जीते थे, तो अंतर चार हजार से भी कम था, लेकिन आदिवासियों में मजबूत पकड़ की बदौलत गुरुजी की जीत का अंतर 1989 में 1.10 लाख तक पहुंच गया। 1996 में कांटे के मुकाबले में उन्होंने बाबूलाल मरांडी को करीब साढ़े पांच हजार वोटों से शिकस्त दी थी। अगले दो लोकसभा चुनाव को छोड़ कर 2002 के उपचुनाव के बाद से 2019 तक यह सीट लगातार शिबू सोरेन के पास ही रही।
दुमका संसदीय क्षेत्र का जातीय गणित
2011 की जनगणना के मुताबिक दुमका जिले की आबादी 13 लाख 21 हजार 442 है। इसमें से 6.68 लाख से अधिक पुरुष और 6.52 लाख से अधिक महिलाएं हैं। जिले की 93.18 फीसदी आबादी ग्रामीण इलाकों में रहती है, वहीं शहरी इलाकों में रहनेवालों की तादाद 6.82 फीसदी है। दुमका आदिवासी बहुल जिला है और यहां उनकी जनसंख्या 5.71 लाख यानी 43.21 फीसदी है। इसके अलावा जिले में 1.06 लाख (8.09 प्रतिशत) मुस्लिम और 86 हजार (6.54 प्रतिशत) इसाई आबादी निवास करती है।
दुमका का सियासी समीकरण
पिछले चुनाव में भाजपा प्रत्याशी सुनील सोरेन ने शिबू सोरेन को हराया था। इस बार के चुनाव में स्वास्थ्य कारणों से शिबू सोरेन के मैदान में उतरने की संभावना कम है, लेकिन झामुमो के लिए इसे दोबारा जीतना आसान नहीं होगा। पिछड़ेपन, भ्रष्टाचार और पलायन जैसे मुद्दे भाजपा से अधिक झामुमो के सामने चुनौती बन कर खड़े हैं। दुमका में जीत-हार आदिवासी मतदाताओं पर निर्भर है, लेकिन इसके अलावा करीब 14.5 प्रतिशत मुस्लिम और इसाई वोट बैंक भी जीत-हार में निर्णायक हो सकता है।
जहां तक 2024 के चुनाव में सीट की दावेदारी का सवाल है, दुमका में विपक्षी गठबंधन में तस्वीर एकदम साफ है। इस सीट पर झामुमो का स्वाभाविक दावा है। झामुमो इस सीट पर शिबू सोरेन को उतारता रहा है। इस बार परिस्थिति बदलने के संकेत मिल रहे हैं। शिबू सोरेन की अस्वस्थता को देखते हुए सोरेन परिवार से किसी नये सदस्य के चुनाव लड़ने की चर्चा क्षेत्र में है। बहरहाल झामुमो ने इसको लेकर कोई संकेत फिलहाल नहीं दिये हैं, लेकिन दुमका का चुनावी रोमांच बढ़ गया है।
भाजपा के लिए भी यह अहम सीट
आनेवाले लोकसभा चुनाव में भी भाजपा और झामुमो की राजनीतिक ताकत इस सीट से तौली जायेगी। पिछले चुनाव में झामुमो के दिग्गज नेता शिबू सोरेन को मात देकर भाजपा के सुनील सोरेन चुनाव जीते थे। सुनील सोरेन के सामने पार्टी के अंदर और चुनावी जमीन पर कई चुनौतियां हैं। सुनील सोरेन की सक्रियता को लेकर पार्टी के अंदर सवाल उठते रहे हैं। कार्यकर्ताओं के एक वर्ग के नाराज होने की बात भी कही जा रही है। ऐसे में एक बार फिर दावेदारी को लेकर सुनील सोरेन को मशक्कत करनी पड़ सकती है। वहीं रघुवर सरकार में मंत्री रहीं लुइस मरांडी भी इस सीट से दावेदार बतायी जाती हैं। पिछले लोकसभा चुनाव में टिकट के लिए लुइस मरांडी ने अपनी ताकत लगायी थी। इस सीट पर जिलाध्यक्ष पारितोष सोरेन और जामा विधानसभा से चुनाव लड़नेवाले सुरेश मुर्मू भी समय-समय पर अपनी दावेदारी करते रहे हैं।
छह सीटों में चार पर झामुमो का कब्जा
दुमका संसदीय सीट में छह विधानसभा सीटें हैं। इसमें शिकारीपाड़ा, नाला, दुमका और जामा में झामुमो का कब्जा है। वहीं जामताड़ा कांग्रेस के पास है और सारठ से भाजपा जीत कर आयी है। दुमका संसदीय क्षेत्र की विधानसभा सीटों पर झामुमो का लंबे समय से बेहतर प्रदर्शन रहा है। आनेवाले चुनाव में भी भाजपा के सामने ये चुनौतियां होंगी।
दुमका के अब तक के सांसद
1957: देबी सोरेन (जेएचपी)
1962: सत्य चंद्र बेसरा (कांग्रेस)
1967: सत्य चंद्र बेसरा (कांग्रेस)
1971: सत्य चंद्र बेसरा (कांग्रेस)
1977: बटेश्वर हेमरम (भारतीय लोकदल)
1980: शिबू सोरेन (निर्दलीय)
1984: पृथ्वी चंद किस्कू (कांग्रेस)
1989: शिबू सोरेन (जेएमएम)
1991: शिबू सोरेन (जेएमएम)
1996: शिबू सोरेन (जेएमएम)
1998: बाबूलाल मरांडी (बीजेपी)
1999: बाबूलाल मरांडी (बीजेपी)
2002 उपचुनाव: शिबू सोरेन (जेएमएम)
2004: शिबू सोरेन (जेएमएम)
2009: शिबू सोरेन (जेएमएम)
2014: शिबू सोरेन (जेएमएम)
2019 का चुनाव परिणाम
नाम पार्टी प्राप्त मत
सुनील सोरेन भाजपा 484923
शिबू सोरेन झामुमो 437333
डॉ श्रीलाल किस्कू निर्दलीय 16562