अजय कुमार: उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव की सरगर्मी लगातार बढ़ती जा रही है। सबके अपनी-अपनी जीत के दावे हैं। दावों को मजबूती प्रदान करने के लिये तमाम तरह के तर्क भी दिये जा रहे हैं। इन तर्कों के पीछे मतदाताओं को अपनी तरफ खींचने का ‘खाका’ छिपा हुआ है। आरोप-प्रत्यारोप को चुनावी सीढ़ी की तरह इस्तेमाल किया जा रहा है। आज स्थिति यह है कि सभी दलों के नेताओं के पास विरोधियों के लिये तो कहने को बहुत कुछ है, लेकिन अपने बारे में बोलते समय कहीं न कहीं इनकी जुबान अटक जाती है। कोई भी दल ऐसा नहीं है जिसे पाक-साफ करार दिया जा सकता हो। समाजवादी पार्टी कुनबे के झगड़े में उलझी हुई है तो बसपा में नेताओं की भगदड़ मची हुई है। बीजेपी मोदी के सहारे अपनी नैया पार करने की कोशिश में है। उसको कोई ऐसा चेहरा नहीं मिल रहा है, जिसे वह प्रदेश में मुख्यमंत्री के रूप में प्रोजेक्ट कर सके। कांग्रेस के लिये समस्या यह है कि उसके युवराज राहुल गांधी अपने भाषणों से सिर्फ अपने भीतर ही ऊर्जा और जोश भर पाते हैं। न तो उनकी बातों से वोटर प्रभावित होते हैं, न ही कार्यकतार्ओं में किसी तरह का जोश देखने को मिलता है।
कहने को कांग्रेस ने ब्राह्मण नेता और दिल्ली की पूर्व सीएम शीला दीक्षित को यूपी का भावी सीएम प्रोजेक्ट कर दिया है, लेकिन शीला जी को यही नहीं पता है कि अगर कांग्रेस का सपा से चुनावी तालमेल हो जायेगा तो चुनाव में उनकी क्या हैसियत रहेगी। बात सबसे पहले सपा की। सपा नेता और सीएम अखिलेश यादव का अपना दामन तो पाक-साफ है, लेकिन उनकी सरकार के कई दंबग, बदजुबान और माफिया टाइप के मंत्री और पार्टी के नेता उनके लिये सिरदर्द बने हुए हैं। सपा नेताओं/कार्यकतार्ओं की गुंडागर्दी और अखिलेश सरकार के समानांतर चलता गुंडाराज विरोधियों के सिर चढ़कर बोल रहा है। सपा राज में गुंडागर्दी पर लगाम लगाया जाना मुश्किल है, इसका ताजा उदाहरण है बाहुबली अतीक अहमद के गुर्गों द्वारा इलाहाबाद के एक शिक्षण संस्थान में जाकर सुरक्षा कर्मियों के साथ मारपीट और शिक्षकों के साथ अभद्रता किया जाना। अतीक के गुर्गे उत्पात मचाते रहे और पुलिस घटना स्थल पर तब पहुंची जब अतीक अपने समर्थकों के साथ चला गया।
अखिलेश को अतीक पसंद नहीं है, लेकिन वह चचा के चलते मजबूर हैं। चचा को अतीक और मुख्तार जैसे दबंग ही पसंद आते हैं। अखिलेश के हाथ बांध दिये गये हैं तो पार्टी का शीर्ष नेतृत्व पार्टी नेताओं की दबंगई के मसले में चुप्पी साधे रहता है। पार्टी ही नहीं परिवार का भी बुरा हाल है। सपा में अंकल, चाचा?भतीजे की जंग कभी थमती दिखायी देती है तो कभी यह ‘आग का दरिया’ बन आती है। सपा परिवार में टिकट वितरण के साथ फिर से मनमुटाव सामने आने लगा है। हाल ही में आया अखिलेश का बयान, ‘चाचा-अंकल हो न हों, जनता हमारे साथ है’, काफी कुछ कहता है। उधर, नेताजी मुलायम सिंह यादव को समझ में ही नहीं आ रहा है कि वह करें तो क्या करें। अखिलेश को मनाते हैं तो शिवपाल नाराज हो जाते हैं और शिवपाल को मनाते हैं तो अखिलेश खेमा आंख दिखाने लगता है। अब अखिलेश और शिवपाल की उम्मीदवारों की अपनी अपनी सूची को लेकर बवाल मचा है। अमर सिंह एक बार फिर नेताजी की परेशानी बन गये हैं। मुलायम सिंह और पार्टी नोटबंदी के खिलाफ मोर्चा खोले है वहीं अमर सिंह नोटबंदी को सही ठहराने में जुटे हैं।
अखिलेश की नाराजगी की परवाह न करते हुए मुलायम ने अमर सिंह को पार्टी का स्टार प्रचारक का दर्जा तक दे दिया है। चंद दिनों के निष्कासन के बाद सपा में वापस आने के बाद प्रोफेसर रामगोपाल यादव नये सिरे से अपनी जड़ें मजबूत करने में लगे हैं। सपा दो फाड़ों में बंटी हुई नजर आ रही है। पार्टी का एक धड़ा पुरानी परिपाटी पर चलते हुए मुस्लिम, पिछड़ा, यादव कार्ड खेल रहा है, वहीं सीएम अखिलेश यादव विकास के सहारे चुनाव जीतना चाहते हैं लेकिन जब उनका विश्वास हिचकोले खाता है तो 17 पिछड़ी जातियों को अनुसूचित जाति के आरक्षण कोटे में डालने का कारनामा (प्रस्ताव) भी कर डालते हैं। विकासवादी छवि बनाने के चक्कर में अखिलेश कई आधे-अछूरी योजनाओं का भी उद्घाटन करते जा रहे हैं। लखनऊ में मेट्रो ट्रेन और विधान भवन के सामने बने लोक भवन का मामला हो या फिर यमुना एक्सप्रेस वे का उद्घाटन इसी से जुड़ा मसला है। लोकभवन में तो फिर भी कामकाज शुरू हो गया है, लेकिन मेट्रो शुरू होने में तो अभी तीन माह का समय बाकी है और यमुना एक्सप्रेस वे कब आवागमन के लिये खुलेगा कोई नहीं जानता है।
इसीलिये अखिलेश, ‘बुआ’ और बसपा सुप्रीमो मायावती के निशाने पर भी हैं। वह अखिलेश के तीन सौ सीटें जीतने के दावे पर तंज कसते हुए कहती हैं कि यह बबुआ द्वारा कही गयी ‘बबुआ’ जैसी बाते हैं। आचार संहिता लागू होने की आहट के बीच सीएम ने अरबों करोड़ की हजारों नयी योजनाओं का उद्घाटन कर डाला। तमाम किन्तु-परंतुओं के बीच आश्चर्य होता है कि एक तरफ अखिलेश यादव को सपा अपना मुख्य ‘ब्रांड’ बताती है और दूसरी तरफ टिकट बंटवारे में अखिलेश को तवज्जो नहीं मिलती है। सपा में जिस तरह से प्रत्याशियों की घोषणा और उनमें बदलाव हो रहा है, उससे तो यही लगता है कि पार्टी के भीतर शह-मात का खेल रूकने वाला नहीं है।
इसी वजह से चुनाव की घोषणा के बाद तक प्रत्याशियों में व्यापक फेरबदल से इन्कार नहीं किया जा सकता है। संघर्ष टिकट बंटवारे के अधिकार को लेकर है, इसीलिये दागियों को टिकट से असंतुष्ट अखिलेश यह कह कर कि ‘टिकट तो अंतिम समय तक बदलते रहते हैं’ भविष्य में बदलावों को संकेत दे रहे हैं। सपा की आपसी कलह से सबसे अधिक मुस्लिम वोटर चिंतित हैं, जिन्होंने 2012 में सपा को सत्ता तक पहुंचाया था। कहने को तो मुसलमनों के पास बसपा का भी विकल्प मौजूद है लेकिन बसपा राज में मुस्लिमों के उतने हित नहीं सध पाते हैं जितने सपा राज में सध जाते हैं। सपा एक तरफ आपसी कलह से जूझ रही है तो दूसरी तरफ कांग्रेस के साथ गठबंधन को लेकर कोई फैसला नहीं किये जाने से भी सपा के मुस्लिम वोटर परेशान हैं। उन्हें डर सता रहा है कि कहीं 2014 के लोकसभा चुनाव जैसे हालात न पैदा हो जायें। 2014 के चुनाव में एक भी मुस्लिम नेता चुनाव नहीं जीत पाया था। किसी गलतफहमी की वजह से मुस्लिम वोट अगर सपा?बसपा के बीच बंटता है तो इसका कांग्रेस को तो कोई खास नुकसान नहीं होगा क्योंकि उसके पास यूपी में खोने के लिये कुछ ज्यादा नहीं है, लेकिन सपा की सियासी जमीन खिसक सकती है। उधर, मौके की नजाकत को भांप कर बसपा सुप्रीमो मायावती मुस्लिमों पर खूब डोरे डाल रही हैं। वह मुसलमानों को अपने काम गिनवाने के साथ?साथ मुस्लिम भाईचारा सम्मेलन के द्वारा भी लुभा रही हैं। बसपा ने विधानसभा चुनावों में मुसलमानों पर बड़ा दांव लगाते हुए करीब सवा सौ टिकट मुस्लिम उम्मीदवारों को दिए हैं। बसपा सुप्रीमो का गणित बिल्कुल साफ है।
उन्हें लगता है कि 18?19 फीसदी मुसलमान और 22?23 फीसदी दलित वोट बसपा की झोली में पड़ जाएं तो उसका बेड़ा पार हो जाएगा। मायावती के अलावा बसपा महासचिव नसीमुद्दीन सिद्दीकी और प्रदेश अध्यक्ष राम अचल राजभर भी ‘मुस्लिमों को सपा से आगाह कर रहे हैं। बसपा द्वारा जगह?जगह तमाम माध्यमों से बताया जा रहा है कि माया राज में उनके लिए क्या?क्या काम किए गये थे। तीन तलाक के मसले पर बसपा ने मुस्लिमों की भावना का आदर किया है। बसपा मुस्लिमों को यह भी बता रही है कि भाजपा और सपा में कितनी नजदीकियां हैं। भाजपा शासन में दलितों और मुसलमानों पर हुए अत्याचार को भी गिनाया जा रहा है। ताकि लोग भाजपा, सपा और बसपा में से अपने लिए बेहतर विकल्प चुन सकें।