ग्रामीण अर्थव्यवस्था और छोटे व्यवसाय को प्राथमिकता देनी होगी
कोरोना के खिलाफ जंग के कारण पौने दो महीने के लॉकडाउन के अखिरी सप्ताह तक पहुंचने के साथ ही अब यह साफ हो गया है कि झारखंड के लिए असली चुनौती अब शुरू होनेवाली है। सीमित संसाधनों के बावजूद सरकार के संकल्प और लोगों के जज्बे ने राज्य में कोरोना के संक्रमण की स्थिति को भयावह रूप अख्तियार करने से अब तक रोक रखा है। इसके अलावा यह बेहद संतोष की बात है कि कोरोना जानलेवा नहीं हो पा रहा है, क्योंकि झारखंड के पास इससे लड़ने की क्षमता है। लेकिन झारखंड के लिए असली चुनौती तो तब शुरू होगी, जब बाहर से लौटे लोग घरों से बाहर निकलेंगे और काम-धंधे की तलाश शुरू करेंगे। देश के दूसरे हिस्सों से लौटनेवाले झारखंडी अगले एक साल तक शायद ही दोबारा बाहर जायें। उस स्थिति में उनको काम देना बेहद कठिन होगा। यहां यह याद रखना चाहिए कि लौटनेवाले 10 लाख लोगों में से अधिकांश अकुशल श्रमिक हैं। इन्हें खेती-किसानी के अलावा छोटा-मोटा व्यवसाय करना ही आता है। कुशल श्रमिकों को तो काम मिल जायेगा, लेकिन अकुशल लोगों को काम देने के लिए ग्रामीण अर्थव्यवस्था पर अधिक ध्यान देना होगा। यह चुनौती अगले एक साल से भी अधिक समय तक चलनेवाली है और उम्मीद की जा रही है कि जिस तरह कोरोना के खतरे की आहट हेमंत सोरेन सरकार ने पहले ही सुन ली थी, इस चुनौती को भी वह अच्छी तरह समझ रही होगी और उससे निबटने के तरीकों पर काम भी कर रही होगी। उत्तर कोरोना काल की चुनौतियों और इससे निबटने की हेमंत सोरेन सरकार की संभावित रणनीति का विश्लेषण करती आजाद सिपाही ब्यूरो की खास रिपोर्ट।
वैश्विक महामारी कोरोना के खिलाफ जंग का निर्णायक दौर अब शुरू होनेवाला है। इस दौर में झारखंड को बाहर से लौटनेवाले श्रमिकों पर सबसे अधिक ध्यान देना है। पिछले दो महीने में झारखंड ने कोरोना के संक्रमण को जिस संकल्प और जज्बे के साथ खतरनाक रूप नहीं लेने दिया, उसी तरह के प्रयास को जारी रखने का समय अब आनेवाला है। बाहर से लौटनेवाले प्रत्येक व्यक्ति की पक्की जांच और उन्हें तब तक क्वारेंटाइन में रखने की चुनौती बड़ी है, जब तक कि वे संक्रमण के खतरे से बाहर नहीं निकल जाते। झारखंंड की स्वास्थ्य मशीनरी पूरी ताकत से इस चुनौती का सामना कर रही है।
लेकिन हेमंत सोरेन सरकार की असली परीक्षा तो तब शुरू होगी, जब बाहर से लौटे लोग कोरोना संक्रमण के खतरे से बाहर निकलने के बाद काम की तलाश करेंगे। मोटे अनुमान के अनुसार करीब 10 लाख लोगों को काम की दरकार होगी, क्योंकि इनमें से तीन चौथाई लोग अगले एक साल तक शायद ही बाहर जाने की स्थिति में होंगे। उस स्थिति में इन सभी के लिए काम देना बेहद कठिन होगा, क्योंकि राज्य की अर्थव्यवस्था पहले से ही खस्ताहाल है। घर लौटनेवाले इन लोगों के लिए खाने की व्यवस्था तो हेमंत सोरेन सरकार कर रही है और आगे भी करती रहेगी, लेकिन रोजगार देने के लिए आर्थिक गतिविधियों को सुदृढ़ करना होगा।
विशेषज्ञ कहते हैं कि घर लौटनेवाले प्रवासी श्रमिकों में से केवल 15 प्रतिशत ही कुशल हैं। बाकी के पास कौशल के नाम पर कुछ नहीं है। वे या तो खेतिहर मजदूर बन सकते हैं या फिर हजार-दो हजार की पूंजी लगाकर छोटा-मोटा व्यवसाय कर सकते हैं। झारखंड में खेती की हकीकत बहुत अधिक उजली नहीं है।
इस स्थिति में हेमंत सरकार को हर हाथ को काम भी देना है और अर्थव्यवस्था की गाड़ी पटरी पर भी लानी है। मौजूदा समय में इससे उबरने का सबसे बेहतर विकल्प कृषि और उससे संबद्ध क्षेत्र ही हो सकते हैं। परंपरागत कृषि की सोच से उबरते हुए हमें इस क्षेत्र में कुछ नये प्रयोग करने की आवश्यकता है। कृषि वानिकी को बढ़ावा देना होगा। राज्य सरकार ने इस दिशा में सराहनीय पहल भी की है। यह कड़वी हकीकत है कि झारखंड में कृषि वानिकी को बढ़ावा देने को लेकर सरकारों का रवैया अब तक उदासीन ही रहा है। नतीजा यह है कि झारखंड की अधिसंख्य भूमि में एक फसलीय खेती होती रही है और काम के अभाव में लोग दूसरे राज्यों की ओर पलायन करते रहे हैं। जीडीपी के मानक भी इसकी पुष्टि करते हैं। राज्य की जीडीपी में कृषि का योगदान महज 14-15 फीसदी ही है। आदर्श स्थिति यह होनी चाहिए थी कि कृषि और इससे जुड़े संबद्ध क्षेत्रों का जीडीपी में योगदान 25-30 फीसदी होता। झारखंड में फसल घनत्व 120 है, अर्थात खरीफ फसल में तो शत प्रतिशत कृषि संसाधनों का उपयोग होता है, लेकिन रबी में महज 20 प्रतिशत। झारखंड में एक फसलीय खेती होने के कारण उत्पादकता करीब दो टन प्रति हेक्टेयर है। झारखंड में खरीफ के चार-पांच माह छोड़ दें तो अन्य शेष माह जमीन खाली पड़ी रहती है। लोग इससे ऊब जाते हैं और रोजी-रोजगार के लिए दूसरे राज्यों का रुख करते हैं। आज भी खाली जमीन बहुत है, लेकिन लोगों के पास रोजगार नहीं है। अब समय आ गया है कि हमें वृक्ष आधारित खेती की ओर देखना होगा। यह झारखंड के अनुकूल भी होगी और यहां के लोगों की आय का साधन बनकर उन्हें अपने प्रदेश में रोक कर भी रखेगी। यह अच्छी बात है कि राज्य सरकार ने वर्तमान संदर्भ में कृषि वानिकी के महत्व को समझा है और इसकी एक विस्तृत कार्य योजना तैयार की है।
इसके माध्यम से न सिर्फ रोजगार का सृजन होगा, बल्कि राज्य के लिए हरित परिसंपत्ति भी तैयार होगी। इसके अलावा झारखंड की भूमि बागवानी के लिए उपयुक्त है। कृषि वानिकी को बढ़ावा देकर प्रति हेक्टेयर उत्पादकता को प्रति हेक्टेयर दो टन से बढ़ा कर आठ टन तक ले जाया जा सकता है। ऐसा हुआ तो जीडीपी के आकड़े स्वत: बदल जायेंगे। हेमंत सोरेन सरकार द्वारा शुरू की गयी बिरसा हरित ग्राम योजना को लेकर जो खाका बुना गया है, वह एक अच्छी पहल है। मनरेगा के साथ इस योजना को जोड़कर फलदार वृक्ष बड़े पैमाने पर लगाये जायेंगे। इससे भूमि और पानी की उत्पादकता बढ़ेगी। वर्ष भर रोजगार मुहैया होंगे और इसकी लागत का रिटर्न भी अच्छा मिलेगा। योजना के तहत पांच करोड़ पौधे पांच सालों में रोपे जाने हैं। पहले वर्ष एक करोड़ पौधे रोपे जायेंगे। हालांकि योजना को अमली जामा पहनाने में कुछ चुनौतिया भी हैं। कृषकों में कृषि वानिकी के अनुभव की कमी है। हमारे यहां से पलायन करने वाले लोग अच्छे श्रमिक तो हो सकते हैं, लेकिन वे बागवानी के जानकार नहीं हैं। उन्हें लगातार प्रशिक्षण की जरूरत है, जिससे वे इसे आजीविका के स्तर पर शुरूआत कर व्यावसायिक स्तर तक पहुंच सकें। सरकार को उनका कौशल बढ़ाने के लिए लगातार प्रयास करने होंगे। कृषि-बागवानी का कौशल, खाद्यान्न उत्पादन के कौशल से इतर और थोड़ा ऊपर दर्जे का होता है। ग्राम सभा के स्तर पर बागवानी मित्र जैसे लोगों की जरूरत पड़ेगी, जो बता सकें कि बागवानी कैसे करनी है। अच्छे पौधों की उपलब्धता भी एक बड़ी चुनौती है। इसके अलावा झारखंड ने पशुपालन, डेयरी और मछली पालन में हाल के वर्षों में उल्लेखनीय उपलब्धियां हासिल की हैं। इनको बढ़ावा दिये जाने से काम के अवसर पैदा होंगे। झारखंड में दलहन की फसल के लिए उपयुक्त जमीन है। यहां दलहन की उत्पादकता राष्ट्रीय औसत से काफी अधिक है। रबी के मौसम में सिंचाई की व्यवस्था हो जाने से यहां दलहन और तेलहन उत्पादन की काफी संभावना है। एक संतोषजनक बात यह है कि झारखंड कृषि और उससे जुड़े उत्पादों के मामले में राष्ट्रीय सूचकांक में थोड़ा पीछे है। इस कारण इस क्षेत्र में निवेश की अपार संभावना है। झारखंड में सिंचाई की समुचित व्यवस्था हो जाये तो कृषि उत्पादन बेहतर होगा।
हेमंत सोरेन सरकार को अब अगले एक साल के लिए एक कार्य योजना तैयार करनी होगी, ताकि आनेवाली चुनौतियों का सामना किया जा सके। लगभग खाली हो चुके खजाने को भरने के साथ इस चुनौती का सामना हेमंत सोरेन कैसे कर पाते हैं, यह देखना दिलचस्प होगा। इसके लिए उन्हें छोटी-छोटी आर्थिक गतिविधियों को प्रोत्साहन देना होगा और साथ ही मध्यम दर्जे के घरेलू उद्योगों को भी मदद करनी होगी।