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झारखंड में महागठबंधन की सरकार मुकम्मल तौर पर अभी आकार नहीं ले सकी है। महागठबंधन की दूसरी सबसे बड़ी पार्टी कांग्रेस की उबाल लेती महात्वाकांक्षाओं ने सरकार के मुखिया हेमंत सोरेन के सामने कुछ असहज स्थिति उत्पन्न कर दी है। मंत्रियों की संख्या और विभागों के बंटवारे को लेकर कांग्रेस की ओर से पेश की जा रही डिमांड के बीच हेमंत सोरेन की चुनौती इस बात को लेकर है कि वे कैसे संतुलन साधते हैं। हालांकि हेमंत अब राजनीति के परिपक्व खिलाड़ी हैं और उम्मीद यही है कि वे इस गतिरोध का बेहतर समाधान निकाल भी लेंगे। बहरहाल, कांग्रेस नेताओं की महत्वाकांक्षा की वजह से मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन के समक्ष खड़ी हुई चुनौतियों पर बारीक निगाह डालती दयानंद राय की रिपोर्ट।

विजय प्रताप देव
गढ़वा। विश्रामपुर-मझिआंव विधान सभा क्षेत्र से इस बार पुन: निर्वाचित हुए पूर्व स्वास्थ्य मंत्री रामचंद्र चंद्रवंशी चौथी बार इस क्षेत्र से जीतकर भाजपा विधायक बने हैं। प्रदेश के सफल राजनीतिज्ञों में से एक माने जानेवाले रामचंद्र चंद्रवंशी सर्वप्रथम 1995 में सरकारी नौकरी छोड़कर राजनीति में कूदे थे। उस समय उन्होंने आरजेडी से टिकट लेकर उस समय के कद्दावर कांग्रेसी नेता ददई दुबे को पराजित कर एकीकृत बिहार में पहली बार विधायक बने थे। जिसमें उन्हें लालू सरकार में राज्यमंत्री बनने का गौरव प्राप्त हुआ। बाद में वे वर्ष 2005 में पुन: आरजेडी के टिकट से ही विधायक चुने गये। इसके बाद वर्ष 2014 में भाजपा के टिकट पर लड़कर विधान सभा पहुंचे और प्रदेश के स्वास्थ्य मंत्री बनाये गये। इस बार वर्ष 2019 में हुए विधान सभा चुनाव में जनता ने एक बार फिर इस क्षेत्र के विकास करने की जिम्मेवारी उनके कंधे पर सौंपी है। हालांकि उनका मानना है कि इस बार के चुनाव में जनता ने उनके विकास कार्यों को दरकिनार किया। वे पिछड़े, अल्पसंख्यक एवं अकलियतों के वोट से जीतकर विधान सभा पहुंचे हैं। इस संबंध में उनसे हुई बातचीत के प्रमुख अंश:

धारा के साथ बहकर किसी मुकाम पर पहुंचने वाले तो बहुतेरे होते हैं, लेकिन ऐसे लोग विरले होते हैं जो धारा के प्रतिकूल चलने का हौसला रख पाते हैं। अगर ऐसा हौसला हो भी तो लक्ष्य को वेध पाना आसान नहीं होता। प्रतिकूल धाराओं में कश्तियों के डूब जाने और खुद के मिट जाने का खतरा कदम-कदम पर होता है। लेकिन, जो लोग आंधियों के बीच से कश्तियां निकाल लेते हैं, इतिहास खुद उनके नाम अपने पन्नों पर सहेज लेता है। झारखंड की सियासत में सरयू राय का नाम ऐसे ही वीर पुरुष के रूप में दर्ज हो गया है, जिन्होंने सत्ता की धारा का रुख पलट दिया। हाल में संपन्न हुए झारखंड विधानसभा के चुनाव में सत्ता के शीर्ष पुरुष को उनके ही किले में घेरकर पराजित करने का जो पराक्रम उन्होंने दिखाया है, उससे उनका नाम राष्ट्रीय स्तर पर सुर्खियों में छा गया। सरयू राय दशकों से भाजपा में थे, सत्ता के साथ थे, अब निर्दलीय हैं। यानी आज वह एक तरह से अकेले हैं, लेकिन हकीकत में भाजपा के साथ और सत्ता के साथ रहते हुए भी वह अकेले ऐसे शख्स थे, जिन्होंने सत्ता के गलत फैसलों को गलत कहने का साहस दिखाया। वह अकेले मंत्री थे, जिन्होंने सरकार के भीतर रहकर भी सरकारी तंत्र की गड़बड़ियों के खिलाफ आवाज उठायी। उन्होंने बीते पांच साल में जो सवाल उठाये, उसका जायजा लेती आजाद सिपाही पॉलिटिकल ब्यूरो की यह विशेष रिपोर्ट।

24 सितंबर 2006 को जब भाजपा से अलग होकर बाबूलाल मरांडी ने अपनी पार्टी झारखंड विकास मोर्चा प्रजातांत्रिक का गठन किया था, तभी से भाजपा को यह महसूस होने लगा था कि बाबूलाल को उचित तवज्जो और उनके विचारों को महत्व न देकर पार्टी ने गलती की है। इसके बाद भाजपा ने अपनी भूल सुधारने की लगातार कोशिश की और बाबूलाल मरांडी को पार्टी में वापस लाने की कोशिशें चलती रहीं। भाजपा की इन कोशिशों का नतीजा तब निकला, जब झारखंड विधानसभा चुनाव के परिणाम आने पर भाजपा सत्ता से बेदखल हो गयी। इसके बाद पार्टी के आलाकमान ने बाबूलाल को न सिर्फ मना लिया, बल्कि पार्टी में उनके आने की सूचना अर्जुन मुंडा सरीखे पार्टी के वरीय नेताओं को भी दे दी। अब खरमास के बाद बाबूलाल भाजपा के नेता के रूप में दिखेंगे। बाबूलाल की भाजपा में वापसी और झारखंड की राजनीति में उनकी अहमियत की पड़ताल करती दयानंद राय की रिपोर्ट।

जिस पार्टी के पांच विधायक हों और वे घट कर दो रह जायें, तो यह समय उस पार्टी के लिए आत्ममंथन का होता है। और यही समय झारखंड में आजसू के लिए इस वक्त है। झारखंड विधानसभा चुनाव के नतीजे आने के बाद पार्टी अपनी हार के कारणों पर विचार कर रही है। इससे उसे किसी नतीजे पर पहुंचने में तो मदद मिलेगी ही, हार की समीक्षा कर आगे की राह तय करने में भी मदद मिलेगी। यह जाहिर हो चुका है कि भाजपा की तरह ही विधानसभा चुनाव में आजसू को अपेक्षित सफलता न मिलने के एक नहीं कई कारण थे। और उन कारणों का सामूहिक प्रभाव यह हुआ कि आजसू की सीटें राज्य में घटीं। विधानसभा चुनाव में आजसू की सीटें घटने और पार्टी सुप्रीमो सुदेश महतो की जीत के कारणों की विवेचना करती दयानंद राय की रिपोर्ट।

विजय प्रताप देव
गढ़वा। गढ़वा विधानसभा क्षेत्र के नवनिर्वाचित झामुमो विधायक मिथिलेश ठाकुर सियासत के दमदार योद्धा के रूप में उभरकर सामने आये हैं। वह पार्टी के केंद्रीय महासचिव भी हैं। पार्टी की रणनीति तय करनेवाली शीर्ष टीम का हिस्सा माने जाते हैं। हेमंत सोरेन की सरकार में मंत्री पद के लिए भी उनकी प्रबल दावेदारी है, क्योंकि पलामू प्रमंडल में पार्टी संगठन के विस्तार में उनकी बेहद महत्वपूर्ण भूमिका रही है। हेमंत सोरेन के विश्वस्त सिपहसालारों में शुमार मिथिलेश से गढ़वा के लोगों को भी काफी उम्मीदें हैं। गढ़वा के भाजपा विधायक सत्येंद्रनाथ तिवारी को शिकस्त देकर विधानसभा पहुंचे झामुमो के कद्दावर नेता से आजाद सिपाही की बातचीत के कुछ अंश:

जैसा कि हारने के बाद अमूमन राजनीतिक पार्टियोें में होता है, भाजपा में भी सन्नाटा पसरा हुआ है। पार्टी के नेता और कार्यकर्ता हार के कारणोें पर चर्चा निजी तौर पर कर रहे हैं, पर साफ तौर पर कोई कुछ बोलने को तैयार नहीं है। पार्टी आलाकमान कह रहा है कि वह हार की समीक्षा करेगा, पर झारखंड में हार की समीक्षा के लिए कोई बैठक अभी तक नहीं हुई है। हालांकि रघुवर दास ने हार की जिम्मेवारी ली है और अमित शाह भी झारखंड में भाजपा को मिली हार की जिम्मेवारी खुद ले चुके हैं, पर सच्चाई तो यह है कि ऐसी जिम्मेवारी उठाने से भाजपा को कोई फायदा नहीं होनेवाला, क्योंकि पार्टी की झारखंड में हार के एक नहीं कई कारण हैं और इन सब कारणों का सामूहिक नुकसान पार्टी को उठाना पड़ा है। भाजपा की झारखंड विधानसभा चुनाव में हुई हार के कई कारण सतह पर हैं और वे आसानी से दिखाई भी दे रहे हैं, पर कई कारण ऐसे हैं, जिनकी ओर न तो पार्टी का ध्यान है और न कार्यकर्ता और नेता ही इस ओर सोच पा रहे हैं। झारखंड विधानसभा चुनाव मेें 65 प्लस सीटें जीतने का लक्ष्य लेकर उतरी भाजपा की चुनाव में हुई दुर्गति के कारणों की विवेचना करती दयानंद राय की रिपोर्ट।

भारतीय राजनीति की शायद यह विडंबना रही है कि यहां राजनीतिक दल और नेता अक्सर किसी न किसी अदालती मामले में फंसते ही रहे हैं। दूसरे शब्दों में कहें तो भारत में राजनीति और अदालत का चोली-दामन का साथ है। वैसे भारत की लोकतांत्रिक शासन व्यवस्था में न्यायपालिका पूरी तरह स्वतंत्र है और अदालती फैसलों पर टिप्पणी नहीं की जा सकती, लेकिन राजनीतिक मामलों में अक्सर अदालती फैसलों को परीक्षा के दौर से गुजरना पड़ता है। साल 1975 में तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के खिलाफ इलाहाबाद हाइकोर्ट का वह ऐतिहासिक फैसला इसका जीता-जागता उदाहरण है, जिसने पूरे देश की राजनीति को न केवल प्रभावित किया, बल्कि इसे एक नयी दिशा भी दी। झारखंड इसका अपवाद नहीं है। बीते दो साल में राज्य के कम से कम पांच ऐसे मामले सामने आये हैं, जिन्होंने न केवल सूबे की राजनीति को प्रभावित किया, बल्कि उनकी व्यापक परीक्षा भी हुई। आज के विशेष में इन पांच मामलों पर एक नजर।