25 सितंबर के बाद सब कुछ तय हो जायेगा : बाबूलाल मरांडी
विधानसभा चुनाव में झामुमो ही करेगा नेतृत्व : हेमंत सोरेन
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रांची, । मुख्यमंत्री रघुवर दास ने शिक्षक दिवस पर शिक्षकों को शुभकामनाएं दी हैं। मुख्यमंत्री ने कहा वन्दनीय हैं आप। शिक्षक…
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आइ डोनेशन अवेयरनेस क्लब की बैठक, नेत्रदान और नेत्र प्रत्यारोपण पर फोकस
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पाबंदी और सख्ती से घबराये साजिशकर्ता भड़का रहे लोगों को, बना रहे निर्दोषों को निशाना
सपना सिर्फ व्यक्ति नहीं देखते, पार्टियां भी देखती हैं। और झारखंड में सत्तारूढ़ भाजपा आनेवाले विधानसभा चुनावों के लिए दिन-रात यदि कोई सपना देखती है, तो वह झामुमो को उखाड़ फेंकने का है। पार्टी के 65 प्लस के लक्ष्य में कोई दल बाधक बन रहा है, तो वह मुख्यत: झामुमो और कांग्रेस ही है। इसलिए भाजपा की चुनावी रणनीति का पूरा फोकस झारखंड में इन दो दलों को तेजहीन करना है। इसमें कांग्रेस तो पहले ही तेजहीन सी हो चुकी है, पर झामुमो का दमखम अब भी बहुत हद तक बरकरार है। 2014 के विधानसभा चुनावों में भाजपा ने झारखंड में रघुवर दास के नेतृत्व में आजसू के सहयोग से मजबूत सरकार बनायी। पर मोदी लहर के बावजूद झामुमो 19 सीटें जीतने में सफल रहा। लोकसभा चुनावों में इन दोनों दलों को भाजपा ने कड़ा झटका दिया और ये एक-एक सीट जीतकर इज्जत बचाने में सफल हुए। अब भाजपा खासतौर से झामुमो को झारखंड से जड़ से उखाड़ने में जुटी हुई है। भाजपा का यह सपना कोई दिवास्वप्न नहीं है। ऐसा करने के लिए भाजपा दिन-रात एक किये हुए है। पर आनेवाले विधानसभा चुनावों में ऐसी कई सीटें हैं जो भाजपा की जीत की राह में कड़ी चुनौती पेश करेंगी। इन सीटों के बारे में दयानंद राय की एक रिपोर्ट।
रघुवर दास ने गुमला में बहायी विकास की बयार, 354 करोड़ की विकास योजनाओं का उद्घाटन, शिलान्यास और परिसंपत्ति का वितरण
हेमंत ने बरहेट से शुरू की बदलाव यात्रा, तो रघुवर ने इसे भेदने के लिए बरहेट से ही शुरू की चौपाल
हर दिन झारखंड में विपक्षी दलों के महागठबंधन की बात होती है। सुबह-सबेरे हर दल कभी न कभी इसकी चर्चा कर ही देता है। लेकिन इसकी सच्चाई यही है कि यहां कभी मजबूत महागठबंधन बना ही नहीं। चुनावी वैतरणी पार करने के लिए कुछ दलों की बैठक हुई और महागठबंधन शब्द का उच्चारण कर लिया गया। हां, भाजपा को जवाब देने के लिए जरूर महागठबंधन की रट लगायी जाती रही, लेकिन तल्ख सच्चाई यही है कि विपक्षी दलों के बीच कभी मजबूत गठबंधन हुआ ही नहीं। हां, गांठ-गांठ का बंधन जरूर हुआ। यानी साथ में दल तो बैठे, लेकिन दिल नहीं मिले। इसके पीछे का असली कारण यही है कि विपक्ष का कोई दल अपना नुकसान कर महागठबंधन को स्थापित करने की जोखिम नहीं उठाना चाहता। सभी चाहते तो हैं कि चुनाव में महागठबंधन का लाभ उन्हें मिले, लेकिन वे महागठबंधन में शामिल दलों को कैसे लाभ पहुंचायें, इस पर कभी कोई सीरियस नहीं हुआ। अब तो विधानसभा चुनाव सिर पर है। जैसे-जैसे दिन करीब आ रहे हैं, दलों की गांठ ज्यादा बड़े आकार में सामने आ रही है। करीब दो महीने में झारखंड में विधानसभा के चुनाव होने हैं। मगर महागठबंधन में शामिल दल अब भी अपने-अपने राग अलाप रहे हैं। लोकसभा चुनाव के समय एक कोशिश हुई थी कि महागठबंधन का प्रभाव देखने को मिले। लेकिन चुनाव बाद आये परिणाम ने एक दूसरे के सामने सबको नंगा कर दिया। महागठबंधन के नेता एक-दूसरे पर ही हार का ठिकरा फोड़ने लगे। यह सिर्फ दूसरे दलों तक सीमित नहीं रहा, दल के अंदर भी नेताओं का आरोप एक-दूसरे के खिलाफ लगने लगा। यह सिलसिला यहीं नहीं थमा। समय के साथ उसमें कटुता बढ़ती गयी। अब तो एक-दूसरे के खिलाफ तीखी वाणी के तीर भी चलाने लगे हैं। नेताओं के बोल ने एक साथ चलने पर संशय खड़ा जरूर कर दिया है। कारण महागठबंधन के नेताओं को अपना अस्तित्व बचाने की चिंता भी साल रही है। इसी कारण वह महागठबंधन में रहना तो चाहते हैं, लेकिन खुद का फायदा ज्यादा कैसे हो, सब इसी में लगे हैं। बात चाहे सीट शेयरिंग की हो या फिर विधानसभा में जीत हासिल करने की। नेताओं को बखूबी पता है कि महागठबंधन होने पर भी वोट बैंक दूसरे दल में शिफ्ट नहीं हो पाता है। इसका उदाहरण बीता लोकसभा का चुनाव है।
लोकसभा चुनाव के बाद महागठबंधन के दलों की अलग-अलग हुई बैठकों में यह बात सामने आयी कि उसके कैडरों का वोट ट्रांसफर हुआ, लेकिन अन्य विपक्षी दल उनके उम्मीदवारों को वोट ट्रांसफर नहीं करा पाये। खासकर झामुमो-कांग्रेस के भितरखाने में यह आवाज भी उठी है कि विधानसभा चुनाव अलग होकर लड़ा जाये, हालंकि शीर्ष नेतृत्व इसके फेवर में नहीं दिख रहा है। इसी पर प्रस्तुत है राजीव की विशेष रिपोर्ट।