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पावर, यानी अधिकार ऐसा नशा है, जिसकी लत आसानी से नहीं छूटती। हमारे देश में तो खैर पावर की पूजा होती है और पावरफुल बनना हर किसी का सपना होता है। इसलिए सरकारी सेवा से रिटायर होनेवाले नौकरशाह रिटायरमेंट के बाद भी पावर का सुख भोगने की जुगत भिड़ाते रहते हैं। ऐसा नहीं है कि केवल झारखंड में ऐसा होता है, बल्कि देश के दूसरे राज्यों में भी आम तौर पर पूर्व नौकरशाहों को

सुनहरे वर्तमान के लिए अतीत में संघर्षों से कितना जूझना-लड़ना पड़ा है, यह दिशोम गुरु शिबू सोरेन से बेहतर शायद ही कोई जानता होगा। अपने 77वें जन्मदिन पर शुभचिंतकों की बधाइयां लेते और खुद पर लिखी गयी किताबों के पन्ने पलटते अतीत का स्मरण हो आना स्वाभाविक है और यही सोमवार को झामुमो सुप्रीमो शिबू सोरेन के साथ हुआ। रांची विश्वविद्यालय के आर्यभट्ट सभागार मेें जब उन्होंने महाजनों के खिलाफ संघर्ष की अपनी गाथा सुनानी शुरू की, तो जैसे वे अपने पुराने दिनों में

झारखंड के शहरों को कभी भाजपा का गढ़ कहा जाता था, लेकिन 2019 के विधानसभा चुनाव के बाद बदले सियासी माहौल में भगवा पार्टी के लिए यह प्रदेश बड़ी चुनौती के रूप में उभरा है। विधानसभा चुनाव में कोल्हान से सूपड़ा साफ होने के बावजूद भाजपा के लि

देश की कोयला राजधानी धनबाद की सियासत की सूरत और सीरत बदल रही है। युवाओं और महिलाओं में राजनीतिक महत्वाकांक्षाएं बढ़ गयी हैं। कोयला खदानों एवं आउटसोर्सिंग कंपनियों में वर्चस्व की लड़ाई की परिभाषा

झारखंड की हेमंत सोरेन सरकार ने राज्य के गांवों के विकास की गाड़ी को निर्वाचित जन प्रतिनिधियों के हाथों से वापस नहीं लेने का फैसला कर ऐसा काम किया है, जिसके दूरगामी परिणाम होंगे। राज्य में कोरोना संक

वे बौद्धिक हैं, बिना लाग-लपेट के अपनी बातें रखते हैं और झामुमो के सच्चे सिपाही हैं। अपने राजनीतिक कौशल का पूरा इस्तेमाल वे पार्टी हित में करते हैं। वे झारखंड मुक्ति मोर्चा के महासचिव सुप्रियो भट्टाचार्य हैं। गुरुवार को झामुमो के केंद्रीय कार्यालय में दयानंद राय ने उनसे लंबी बातचीत की। प्रस्तुत है उस बातचीत के संपादित अंश।
सवाल : सीएम के काफिले पर हमला प्रशासनिक चूक है या राजनीतिक साजिश?

मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन के काफिले पर चार जनवरी को रांची के किशोरगंज इलाके में हुए हमले से राज्य की सियासत एकबारगी गरम हो गयी है। सत्तारूढ़ झामुमो और उसके सहयोगी दलों ने जहां इस हमले के लिए भाजपा को जिम्मेदार ठहराया है, वहीं भाजपा इस घटना को राज्य की कानून-व्यवस्था की बिगड़ती स्थिति से जोड़ कर सड़क पर उतर चुकी है। दूसरी तरफ झामुमो ने भी बाकायदा सड़क

दो दिन पहले राजधानी रांची के किशोरगंज इलाके में मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन के काफिले पर हुए हमले ने एक साथ कई सवाल खड़े कर दिये हैं। इस घटना को महज कानून-व्यवस्था का मामला नहीं माना जा सकता है, बल्कि यह राज्य के लिए एक खतरनाक संकेत है। झारखंड के 20 साल के इतिहास में किसी भीड़ के अचानक सामने आने और हमला करने की अपनी तरह की यह पहली वारदात है। इस वारदात ने राज्य के खुफिया तंत्र, जिला पुलिस-प्रशासनिक तंत्र की भूमिका पर तो सवा

मुद्दे उठाओ, संघर्ष करो, तभी सत्ता में वापसी संभव- यह बदलते धनबाद की आवाज है। धनबाद के जनमानस की अब यही वाक्य शैली बन गयी है। बदलते धनबाद की दास्तान और मंजर की तटस्थ रिपोर्ट से आजाद सिपाही आपको लगातार अपडेट कर रहा है। इसी कड़ी में हमने आपको बताया है कि कैसे कभी लालखं

1947 में मिली आजादी के बाद से ही भारत में विकास की अवधारणा को राजनीति से जोड़ दिया गया। तब से लेकर आज तक किसी इलाके के विकास की पूरी जिम्मेवारी राजनीतिक नेताओं के कंधों पर ही है। यह एक हद तक सही भी है, क्योंकि इलाके के विकास के लिए आवाज उठाने की क्षमता और ताकत राजनीतिक लोगों में ही होती है। यदि किसी इलाके के राजनीतिक लोग वहां के विकास के लिए आवाज नहीं उठाते हैं, तो

झारखंड की चौथी विधानसभा के अध्यक्ष रहे प्रो दिनेश उरांव की गिनती साफ-सुथरे राजनीतिज्ञों में होती है, लेकिन 2019 के विधानसभा चुनाव में उनकी हार ने उन्हें गुमला की राजनीति में हाशिये पर लाकर ख