वे बौद्धिक हैं, बिना लाग-लपेट के अपनी बातें रखते हैं और झामुमो के सच्चे सिपाही हैं। अपने राजनीतिक कौशल का पूरा इस्तेमाल वे पार्टी हित में करते हैं। वे झारखंड मुक्ति मोर्चा के महासचिव सुप्रियो भट्टाचार्य हैं। गुरुवार को झामुमो के केंद्रीय कार्यालय में दयानंद राय ने उनसे लंबी बातचीत की। प्रस्तुत है उस बातचीत के संपादित अंश।
सवाल : सीएम के काफिले पर हमला प्रशासनिक चूक है या राजनीतिक साजिश?
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मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन के काफिले पर चार जनवरी को रांची के किशोरगंज इलाके में हुए हमले से राज्य की सियासत एकबारगी गरम हो गयी है। सत्तारूढ़ झामुमो और उसके सहयोगी दलों ने जहां इस हमले के लिए भाजपा को जिम्मेदार ठहराया है, वहीं भाजपा इस घटना को राज्य की कानून-व्यवस्था की बिगड़ती स्थिति से जोड़ कर सड़क पर उतर चुकी है। दूसरी तरफ झामुमो ने भी बाकायदा सड़क
दो दिन पहले राजधानी रांची के किशोरगंज इलाके में मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन के काफिले पर हुए हमले ने एक साथ कई सवाल खड़े कर दिये हैं। इस घटना को महज कानून-व्यवस्था का मामला नहीं माना जा सकता है, बल्कि यह राज्य के लिए एक खतरनाक संकेत है। झारखंड के 20 साल के इतिहास में किसी भीड़ के अचानक सामने आने और हमला करने की अपनी तरह की यह पहली वारदात है। इस वारदात ने राज्य के खुफिया तंत्र, जिला पुलिस-प्रशासनिक तंत्र की भूमिका पर तो सवा
मुद्दे उठाओ, संघर्ष करो, तभी सत्ता में वापसी संभव- यह बदलते धनबाद की आवाज है। धनबाद के जनमानस की अब यही वाक्य शैली बन गयी है। बदलते धनबाद की दास्तान और मंजर की तटस्थ रिपोर्ट से आजाद सिपाही आपको लगातार अपडेट कर रहा है। इसी कड़ी में हमने आपको बताया है कि कैसे कभी लालखं
1947 में मिली आजादी के बाद से ही भारत में विकास की अवधारणा को राजनीति से जोड़ दिया गया। तब से लेकर आज तक किसी इलाके के विकास की पूरी जिम्मेवारी राजनीतिक नेताओं के कंधों पर ही है। यह एक हद तक सही भी है, क्योंकि इलाके के विकास के लिए आवाज उठाने की क्षमता और ताकत राजनीतिक लोगों में ही होती है। यदि किसी इलाके के राजनीतिक लोग वहां के विकास के लिए आवाज नहीं उठाते हैं, तो
झारखंड की चौथी विधानसभा के अध्यक्ष रहे प्रो दिनेश उरांव की गिनती साफ-सुथरे राजनीतिज्ञों में होती है, लेकिन 2019 के विधानसभा चुनाव में उनकी हार ने उन्हें गुमला की राजनीति में हाशिये पर लाकर ख
राजनीति बेहद अनिश्चितता का पर्याय है। यहां कब किसका सितारा बुलंद होगा और कब कौन हाशिये पर चला जायेगा, कहा नहीं जा सकता। झारखंड के दूसरे मुख्यमंत्री अर्जुन मुंडा इसके सबसे अच्छे उदाहरण हैं। वह झारखंड की सियासत में एक धूमकेतु की तरह उभरे और देखते-देखते सत्ता शीर्ष तक जा पहुंचे, लेकिन 2014 के विधानसभा चुनाव में पराजित होने के बाद वह न केवल झारखंड की राजनीति से, बल्कि भाजपा संगठन के भीतर भी हाशिये पर धकेल दिये गये। इन पांच सालों में व
दशकों बाद कोयलांचल धनबाद की आबो-हवा बदली है। झारखंड राज्य में हेमंत सोरेन की सरकार के एक साल और वैश्विक महामारी कोरोना काल के दस महीनों में धनबाद जिला के सभी छह विधानसभा क्षेत्र धनबाद, बाघमारा, झरिया, निरसा, टुंडी, सिंदरी विधानसभा तक बदलाव की बयार चरम पर है।
झारखंड के सबसे शालीन और स्पष्टवादी छवि के राजनेता माने जानेवाले बाबूलाल मरांडी इस समय अपने तीन दशक लंबे राजनीतिक कैरियर के उस दोराहे पर खड़े हैं, जहां एक तरफ खाई है, तो दूसरी तरफ कुआं। 21वीं शताब्दी के तीसरे दशक का पहला साल उनके इस कैरियर को किस तरफ ले जाता है, यह तो भविष्य में
आजसू के समक्ष तीन बड़ी चुनौतियांदेश, काल और परिस्थितियां पार्टी हों या व्यक्ति सबके सामने चुनौतियां पेश करती हैं। 22 जून 1986 को अस्तित्व में आनेवाली आजसू पार्टी के साथ भी यही हो रहा है। वर्ष 2019 के विधानसभा चुनाव में पार्टी 53 सीटों पर चुनाव लड़ी, पर केवल दो सीटों पर ही जीत का स्वाद चख सकी। आजसू सुप्रीमो सुदेश महतो सिल्ली से जीत,े तो डॉ लंबोदर
नये साल 2021 में झारखंड के राजनीतिक दलों खासकर झामुमो-कांग्रेस और भाजपा को नयी चुनौतियों से रू-ब-रू होना पड़ेगा। नये साल में विधानसभा की एक सीट मधुपुर में उपचुनाव भी होना है। इसे लेकर 15 जनवरी को खरमास खत्म होते ही सियासी पारा चढ़ने लगेगा। यह चुनाव इस मायने में भी खास है कि दो उपचुनाव में एनडीए को हार मिली है। इस कारण इस बार एनडीए पूरे दमखम के