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झारखंड में लोकसभा चुनाव 2019 के तहत दूसरे चरण का मतदान सोमवार को समाप्त हो गया। रांची, खूंटी, कोडरमा और हजारीबाग में कुल 61 प्रत्याशियों की राजनीतिक किस्मत इवीएम में कैद हो गयी है। इनमें से कौन चार लोग लोकसभा में अगले पांच साल तक झारखंड के इन चार चुनाव क्षेत्रों की आवाज बनेंगे, इसका फैसला तो 23 मई को होगा, लेकिन सोमवार के मतदान ने एक बात तो साफ कर दी है कि झारखंड के मतदाता आज भी लोकतंत्र में भरोसा करते हैं और ग्रामीण इलाकों में मतदान को लेकर अलग किस्म का उत्साह होता है। आज भी शहरों की अपेक्षा ग्रामीण इलाकों में अधिक मतदान हुआ। इसके साथ ही इस चुनाव ने कम से कम चार राजनीतिक दिग्गजों के पूरे कैरियर को दांव पर रख दिया है।
ये हैं भाजपा के जयंत सिन्हा और अर्जुन मुंडा, कांग्रेस के सुबोधकांत सहाय और झाविमो के बाबूलाल मरांडी। इन चारों राजनीतिक दिग्गजों में से कोई भी यह दावा करने की स्थिति में नहीं है कि जनता ने उनके सिर पर विजय का ताज पहना ही दिया है। इन चारों राजनीतिक दिग्गजों के बारे में यही कहा जा सकता है कि मुकाबला कांटे का हुआ है। इन चारों सीटों पर कौन आगे है और कौन पीछे, इस बारे में कोई भी भविष्यवाणी नहीं की जा सकती। मतदाताओं का मूड और मतदान के पैटर्न से भी नतीजा नहीं निकाला जा सकता। लेकिन एक बात तय है कि इन सीटों पर चुनाव लड़ रहे चार राजनीतिक दिग्गजों का पूरा कैरियर परिणाम पर ही टिक गया है।
यदि ये जीतने में कामयाब होते हैं, तो उनका कैरियर शिखर पर पहुंच जायेगा और यदि कहीं मतदाताओं का समर्थन नहीं मिला, तो इनके राजनीतिक सफर पर विराम भी लग जायेगा। मतदान के बरअक्स इन दिग्गजों के राजनीतिक कैरियर का विश्लेषण करती आजाद सिपाही पॉलिटिकल ब्यूरो की खास रिपोर्ट।

सोमवार को जहां कोल्हान के चुनावी संग्राम में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की सभा है, तो मंगलवार को कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी का दौरा प्रस्तावित है। कोल्हान में दो लोकसभा क्षेत्र हैं चाईबासा और जमशेदपुर। दोनों ही सीटों पर अभी भाजपा का कब्जा है। पिछले चुनाव से इस बार का मुकाबला अलग है। विपक्ष इस बार महागठबंधन कर भाजपा से दो-दो हाथ कर रहा है। चाईबासा में भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष लक्ष्मण गिलुआ के सामने कांग्रेस की गीता कोड़ा हैं। पिछले चुनाव में गीता जय भारत समानता पार्टी से चुनाव लड़ी थीं और उन्होंने लक्ष्मण गिलुआ को जबरदस्त टक्कर दी थी। वह दूसरे स्थान पर रही थीं। इस बार कांग्रेस से वह मैदान में हैं। वहीं जमशेदपुर में भाजपा और झामुमो के बीच मुकाबला है। भाजपा प्रत्याशी विद्युतवरण महतो और झामुमो प्रत्याशी चंपई सोरेन की राजनीति झामुमो से शुरू हुई थी। पिछली बार मोदी लहर में दोनों जगहों पर कमल खिला था। अब सवाल उठ रहा है कि क्या मोदी की सभा के बाद कोल्हान में उनका जादू चलेगा या राहुल महागठबंधन प्रत्याशी का बेड़ा पार लगायेंगे। मोदी की सभा के बाद बदलेगी कोल्हान की फिजां या राहुल को मिलेगा जनता का प्यार, इस पर प्रकाश डाल रहे हैं आजाद सिपाही के राजनीतिक संपादक ज्ञान रंजन। 

कांग्रेस अध्यक्ष बनने के बाद राहुल गांधी गुरुवार को दूसरी बार झारखंड आये। उन्होंने सिमडेगा में चुनावी रैली की। खूंटी संसदीय क्षेत्र के अधीन आनेवाला सिमडेगा आदिवासी और इसाई बहुल इलाका है। राजनीतिक हलकों में यह सवाल उठना लाजिमी है कि आखिर राहुल गांधी इतनी देर से झारखंड क्यों आये। राज्य में पहले चरण के तहत तीन संसदीय सीटों पर चुनाव खत्म हो चुके हैं। इनमें से चतरा और लोहरदगा में जहां कांग्रेस के प्रत्याशी चुनाव मैदान में थे, वहीं पलामू में राजद का उम्मीदवार था। अब दूसरे चरण के तहत रांची, खूंटी, कोडरमा और हजारीबाग में चुनाव होना है। इनमें से तीन सीटों, रांची, खूंटी और हजारीबाग में कांग्रेस ने प्रत्याशी उतारे हैं, वहीं कोडरमा में झाविमो सुप्रीमो बाबूलाल मरांडी अपनी किस्मत आजमा रहे हैं। सवाल यह भी उठ रहा है कि आखिर कांग्रेस अध्यक्ष पहले चरण की सीटों पर प्रचार के लिए क्यों नहीं आये, जबकि वहां पार्टी को प्रचार की अधिक जरूरत थी। इतना ही नहीं, उन तीन सीटों पर कांगे्रस की पहली पंक्ति का कोई भी नेता प्रचार के लिए नहीं गया। राहुल गांधी इससे पहले लोकसभा चुनाव से ठीक पहले दो मार्च को झारखंड आये थे और रांची के मोरहाबादी मैदान में परिवर्तन उलगुलान रैली को संबोधित किया था। राहुल गांधी की झारखंड में इस पहली चुनावी रैली के राजनीतिक मायनों का विश्लेषण करती आजाद सिपाही पॉलिटिकल ब्यूरो की रिपोर्ट।

हम बात करने जा रहे हैं आदिवासी मतदाताओं में कांग्रेस और भाजपा जैसे राष्टÑीय दलों की पैठ की। आदिवासी वोटरों में किसकी कितनी पैठ है, लंबे समय से इसे लेकर बहस हो रही है। दोनों ही दल आदिवासी मतदाताओं के दिलों में जगह बनाने में वर्षों से पुरजोर कोशिश करते आ रहे हैं। पिछले कुछ वर्षों में कांग्रेस जहां दावा करती आ रही है कि भाजपा के शासन में आदिवासियों के लिए कुछ नहीं किया गया, उलटे अदिवासियों की जमीन लूटने की कोशिश की जा रही है आदि…आदि। वहीं, भाजपा का दावा है कि पिछले साढ़े चार वर्षों में आदिवासियों का जितना विकास हुआ, उतना कभी नहीं हुआ था। इस लोकसभा चुनाव में ही दोनों दल इन्हीं मुद्दों को लेकर आदिवासियों के बीच जा रहे हैं। लोकसभा चुनाव का बिगुल बजने के बाद से ही राज्य की तीन सीटों लोहरदगा, खूंटी और चाईबासा को लेकर चर्चाएं तेज हो गयी हैं। तीनों ही सीटें आदिवासियों के लिए आरक्षित हंै। इन तीनों सीटों पर आदिवासी मतदाताओं की बहुलता है। तीनों ही सीटें फिलहाल भाजपा के कब्जे में हैं। इस बार ये सीटें महागठबंधन के तहत कांग्रेस के खाते में गयी हैं। दरअसल ये तीन सीटें ही आगामी विधानसभा चुनावों में आदिवासियों के लिए आरक्षित 28 सीटों का प्लॉट तैयार करेंगी। ये तय करेंगी कि अगले विधानसभा चुनावों में राज्य में आदिवासियों का रुझान क्या होगा और उनके लिए आरक्षित सीटों पर कौन भारी पडेÞगा। इसलिए इन तीन सीटों पर भाजपा और कांग्रेस दोनों ही राष्टÑीय दलों की प्रतिष्ठा दांव पर लगी है। माना जा रहा है कि ये तीनों सीटें आदिवासी मतदाताओं का रुझान तो स्पष्ट करेंगी ही, साथ ही झारखंड में कांग्रेस की दशा और दिशा भी निर्धारित करेंगी। मजेदार बात है कि इस बार के चुनाव में घोर आदिवासी बहुल क्षेत्र दुमका या राजमहल की बात नहीं हो रही। न ही रांची और हजारीबाग जैसी सामान्य सीटों को लेकर चर्चा हो रही है, बल्कि आश्चर्यजनक रूप से चर्चा के केंद्र में खूंटी, लोहरदगा और चाईबासा की सीटें ही हैं। आदिवासी मतदाता और राष्टÑीय पार्टियों के इस गणित का आकलन कर रहे हैं दीपेश कुमार।

झारखंड में लोकसभा चुनाव की गहमा-गहमी के बीच कई पुराने मिथक ध्वस्त हो रहे हैं, तो कई नये समीकरण भी बन रहे हैं। पार्टियां और नेता लगातार अपनी ठोस भूमिका को लेकर सक्रिय हैं। इनमें से कई तो केवल पार्टी आलाकमान को प्रभावित करने के लिए अपनी सक्रियता दिखा रहे हैं। लेकिन इन सभी पार्टियों से अलग आजसू पार्टी राज्य की सभी 14 संसदीय सीटों पर समान रूप से सक्रिय है और भाजपा की सहयोगी के रूप में जमीनी स्तर पर लगातार काम कर रही है। आजसू की इस सक्रियता के पीछे कहीं न कहीं इसके सुप्रीमो सुदेश महतो की रणनीति है। आज की तारीख में यदि यह कहा जाये कि सुदेश महतो झारखंड में भाजपा के लिए ह्यरक्षा कवचह्ण की भूमिका में आ गये हैं, तो गलत नहीं होगा। राजनीतिक हलकों में यह सवाल भी उठने लगा है कि आखिर सुदेश महतो की इस अतिसक्रियता के राजनीतिक संकेत क्या हैं। क्या इसके पीछे केवल सुदेश की रणनीति है या फिर भाजपा की सोची-समझी राजनीतिक पहल। वैसे झारखंड की राजनीति के दलदल भरे परिदृश्य में सुदेश महतो ने न केवल आजसू को मजबूती से खड़ा रखा है, बल्कि कई अवसरों पर अपनी रणनीतिक चतुराई का परिचय भी दिया है। झारखंड के चुनावों में सुदेश महतो की सक्रियता और इसके राजनीतिक मायनों को तलाश करती आजाद सिपाही पॉलिटिकल ब्यूरो की विशेष रिपोर्ट।

आज हम आपको बता रहे हैं कि कैसे झामुमो से दरक रहा है ट्रिपल एम का विश्वास। झारखंड में झामुमो की राजनीति महतो, मुस्लिम और मांझी के बूते चमकी थी। कह सकते हैं कि झामुमो का आधार वोट ही यही था। इन्हीं के बूते झामुमो सुप्रीमो शिबू सोरेन झारखंड की राजनीति में उभरे थे। समय के साथ महतो और मुस्लिम का विश्वास झामुमो से टूटता जा रहा है। गुरुजी की राजनीति के पांच स्तंभ हुआ करते थे। संथाल में सूरज मंडल, कोयलांचल में बिनोद बिहारी महतो, छोटानागपुर में टेकलाल महतो, कोल्हान में निर्मल महतो और शैलेंद्र महतो। इन पांचों में आज की तारीख में इनके साथ कोई नहीं है। कभी झामुमो झारखंड में राजनीति का पाठशाला हुआ करता था, मगर अब इस पाठशाला से नये चेहरे नहीं निकल रहे हंै। अलबत्ता उधार के चेहरे से इनकी गाड़ी चल रही है। आलम यह है कि झामुमो अब क्षेत्र विशेष में सिमटता जा रहा है। क्यों झारखंड में सिमटता जा रहा है झामुमो, इस पर प्रकाश डाल रहे हैं ज्ञान रंजन।

मिशन 2019 में भाजपा ने झारखंड की सभी 14 सीटों को जीतने का लक्ष्य रखा है। इस प्लान में यह भी स्पष्ट किया गया है कि जहां भाजपा के विधायक हैं, वहां से लोकसभा चुनाव में लीड आवश्यक है। पहले यह बात अंदरखाने से चल रही थी, लेकिन चार दिन पहले मुख्यमंत्री रघुवर दास ने यह कह कर भाजपा विधायकों की नींद उड़ा दी है कि जहां से लीड नहीं मिलेगी, वहां विधायकों पर खतरा है। इसके बाद वे सकते में हैं। रेस भी हो गये हैं। हो भी क्यों नहीं, उनके सामने यह स्पष्ट कर दिया गया है कि उनके क्षेत्र से लोकसभा के पार्टी प्रत्याशी को मिलनेवाला वोट ही उनके टिकट मिलने का पैमाना होगा। इसमें कोई दो राय नहीं है कि भाजपा के अधिकांश विधायक पार्टी के टिकट पर ही अपने को सुरक्षित मान रहे हैं। पिछले विधानसभा चुनाव में जीते 75 प्रतिशत से ज्यादा विधायक ऐसे हैं, जो मोदी लहर में वैतरणी पार कर विधानसभा पहुंचे। इस बार लोकसभा चुनाव में ही उन्हें परीक्षा में बैठा दिया गया है। उनकी स्थिति पर प्रकाश डाल रहे हैं ज्ञान रंजन।

हम बात करेंगे चतरा, पलामू और लोहरदगा लोकसभा चुनाव के रोमांच की। देश में चौथे और झारखंड में पहले चरण के चुनाव में 29 अप्रैल को इन लोकसभा सीटों पर मतदान होना है। सभी दलों के नेताओं ने पूरी ताकत झोंक दी है। मगर जनता की खामोशी ने प्रत्याशियों के दिल की धड़कनें बढ़ा दी हैं। चतरा में भाजपा, कांग्रेस और राजद के बीच त्रिकोणीय संघर्ष है। यहां भाजपा के सुनील सिंह, राजद के सुभाष यादव और कांग्रेस के मनोज यादव आमने-सामने हैं। यहां विपक्ष के वोटों में जहां सुभाष यादव और मनोज यादव के बीच बंटवारा है, तो भाजपा को निर्दलीय प्रत्याशी राजेंद्र साहू नुकसान पहुंचा रहे हैं। पलामू और लोहरदगा सीट पर भाजपा और महागठबंधन में सीधा मुकाबला है। पलामू में महागठबंधन से राजद प्रत्याशी घूरन राम भाजपा को टक्कर दे रहे हैं, तो लोहरदगा में कांग्रेस प्रत्याशी सुखदेव भगत चट्टान की तरह भाजपा प्रत्याशी सुदर्शन भगत के समक्ष खड़े हैं। सबसे बड़ी बात यह है कि मतदान में महज कुछ घंटे बचे हैं और मतदाताओं का रुझान खुलकर सामने नहीं आ रहा है। हालांकि प्रचार के मामले में लोहरदगा, चतरा और पलामू में भाजपा का प्रदर्शन दमदार रहा है। लोहरदगा में प्रधानमंत्री तो चतरा और पलामू में गृह मंत्री राजनाथ सिंह ने चुनावी शंखनाद किया है, वहीं पलामू में भाजपा के राष्टÑीय अध्यक्ष अमित शाह भी आज जान फूंकेंगे। चतरा और पलामू में राजद का प्रचार भी दमदार रहा है। खुद तेजस्वी यादव दो-दो बार चुनावी सभाएं कर चुके हैं। लोहरदगा में कांग्रेस के सुखदेव भगत खुद मोर्चा संभाले हुए हैं और दिन रात एक किये हुए हैं। यहां पर झामुमो के कार्यकारी अध्यक्ष हेमंत सोरेन, बाबूलाल मरांडी सहित झाविमो के नेताओं का भी उन्हें भरपूर साथ मिला है। हां, झारखंड के प्रथम चरण के मतदान में महागठबंधन की तरफ से और खासकर कांग्रेस की तरफ से जिन राष्टÑीय नेताओं के प्रचार की बात शुरू में सामने आयी थी, उनमें से कोई नहीं आया। प्रचार की दृष्टि से चतरा में कांग्रेस प्रत्याशी को दल के किसी बड़े नेता का साथ नहीं मिला है। क्या है चतरा, पलामू और लोहरदगा का मिजाज, इस पर प्रकाश डाल रहे हैं ज्ञान रंजन।