कोरोना के खतरनाक संक्रमण से पूरी दुनिया तबाह है और झारखंड में यह बीमारी खतरनाक ढंग से फैल रही है। 31 मार्च के बाद से अब तक राज्य में संक्रमितों की संख्या साढ़े छह हजार तक पहुंच गयी है, जिसमें से तीन हजार से अधिक लोग स्वस्थ हो चुके हैं। यह सुकून की बात नहीं है, क्योंकि जिस तेजी से यह संक्रमण फैल रहा है, उससे स्थिति की भयावहता का अंदाजा लगाया जा सकता है। स्थिति को काबू में करने के लिए साढ़े तीन महीने का लॉकडाउन थोड़ा कारगर जरू
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कोरोना संक्रमण, लॉकडाउन और आर्थिक मंदी के निराशाजनक दौर में यदि कोई सकारात्मक सूचना आती है, तो आम लोगों को थोड़ी देर के लिए ही सही, खुशी जरूर मिलती है। पिछले 24 घंटे में झारखंड के लिए तीन अच्छी खबरें आयीं और इसने आम लोगों में निराशा की जगह उम्मीद की किरण दिखायी है। इन सकारात्मक खबरों से साबित हो जाता है कि राज्य की हेमंत सोरेन सरकार लॉकडाउन के दौरान कामकाज के प्रति कितनी गंभीर है और योजनाओं को जमीन पर उतारने के लिए कितना काम हो रहा है।
कोरोना के खिलाफ जंग और चार महीने के लॉकडाउन के दौरान कई बातें हुईं, बहसें हुईं, आरोप-प्रत्यारोप भी खूब लगे और काम भी हुए। लेकिन इस तमाम कोलाहल के बीच हमारे समाज का एक तबका चर्चा से गायब रहा, जो सीधे हमारे भविष्य से जुड़ा है। कोरोना संकट के इस दौर में कभी किसी ने बच्चों की बात नहीं की, उनके बारे में नहीं सोचा। लॉकडाउन के शुरुआती दौर में देश के सामने कई ऐसी तस्वीरें आयीं, जिन्हें देख कर लोगों की आंखें भर आ
झारखंड में कोरोना संक्रमण ने खतरनाक रूप अख्तियार कर लिया है। राज्य में संक्रमितों की संख्या लगातार बढ़ रही है। इससे निपटने के लिए कई तरह के उपाय भी किये जा रहे हैं। इन्हीं उपायों के तहत 31 जुलाई तक कुछ रियायतों के साथ लॉकडाउन लागू रखने और बाहर से आनेवाले प्रत्येक व्यक्ति के लिए 14 दिन के होम क्वारेंटाइन समेत
वैश्विक महामारी कोरोना के कारण जारी लॉकडाउन के चार महीने पूरे होने को हैं। कोरोना वायरस का संक्रमण तो झारखंड में फैल ही रहा है, अब इसका साइड इफेक्ट भी सामने आने लगा है। लॉकडाउन के कारण आर्थिक गतिविधियां लगभग बंद हैं। जो थोड़ी-बहुत गतिविधियां चल रही हैं, वे भी मंदी की मार से कराह रही हैं। मॉल और बड़ी दुकानों के बंद रहने से जहां अर्थव्यवस्था को करारा झटका लगा है,
राजस्थान के सियासी ड्रामे ने और किसी को भले ही कुछ सिखाया या नहीं, देश की सबसे पुरानी राजनीतिक पार्टी कांग्रेस को इसने बहुत कुछ सिखा दिया है। कर्नाटक और मध्यप्रदेश में चुनाव जीतने के बावजूद सत्ता गंवानेवाली इस पार्टी ने राजस्थान के घटनाक्रम के बाद अपना पुराना फॉर्म दिखाया है और अपने दो विधायकों को बाहर का रास्ता दिखा दिया है।
झारखंड में कोरोना संकट ने खौफनाक रूप अख्तियार कर लिया है। दो हजार से अधिक सक्रिय संक्रमित और 38 मौतों ने पूरे प्रदेश में दहशत का जो माहौल बनाया है, उससे उबरने में राज्य को लंबा समय लगेगा। आपदा बढ़ने के साथ ही राज्य की स्वास्थ्य सेवाओं की चरमराती स्थिति इस चिंता को और बढ़ा रही है। संक्रमितों के लिए बनाये गये अस्पताल तेजी से भर रहे हैं और राजधानी में अब कोई भी बेड खाली नहीं है। मरीजों को लौटाया जा रहा है।
मध्यप्रदेश में तख्ता पलटे जाने के बाद सतर्क देश की सबसे पुरानी राजनीतिक पार्टी ने राजस्थान की सत्ता तो किसी तरह बचा ली है, लेकिन उसकी अंदरूनी हालत ठीक नहीं है। खास कर झारखंड में इसके अंदरखाने में जो हालात पैदा हो गये हैं, उससे राजनीतिक हलकों में यह आशंका व्यक्त की जाने लगी है कि यदि इस पर तत्काल रोक नहीं लगायी गयी, तो यह बड़ा होकर फूट भी सकता है। पहली बार झारखंड में पूर्ण बहुमत की गैर-भाजपा सरका
वैश्विक महामारी कोरोना का संकट झारखंड में गहराने लगा है। राज्य में संक्रमितों की संख्या तीन हजार के पार पहुंच गयी है और हर तबके के लोग इस खतरनाक संक्रमण की चपेट में आने लगे हैं। यह राज्य के लिए खतरे की घंटी है। इस बीमारी से ठीक होनेवाले लोगों की संख्या काफी है, लेकिन जिस रफ्तार से संक्रमण फैल रहा है, स्थिति भयावह होती चली जा रही है। झारखंड में 31 जुलाई तक लॉकडाउन लागू है, लेकिन लोगों की लापरवाही और कोरोना के खतरे के प्रति असंवेदनशीलता ने इसे निष्प्रभावी बना दिया है। अस्पतालों के बेड भर चुके हैं और राजधानी रांची
देश की सबसे पुरानी राजनीतिक पार्टी कांग्रेस एक बार फिर चर्चा में है, क्योंकि उसका कुनबा लगातार बिखर रहा है। दिसंबर 2018 में जिन तीन राज्यों की सत्ता में कांग्रेस की वापसी हुई थी, उनमें से मध्यप्रदेश उसके हाथ से निकल चुका है और राजस्थान में स्थिति डावांडोल है। आखिर कांग्रेस क्यों अपने कुनबे को संभाल नहीं पा रहा है।
आधुनिक राजनीति को वैसे अवसरवादिता का पर्याय माना जाता है, लेकिन कभी-कभी यह अवसरवादिता इतनी महंगी पड़ जाती है कि लोगों की हस्ती भी इसमें गायब हो जाती है। झारखंड में चुनाव से ठीक पहले पाला बदलने का लंबा इतिहास रहा है और कई लोग ऐसे भी हुए, जिन्हें इसका लाभ मिला, लेकिन दूसरी तरफ कई ऐसे नेता भी हैं, जो चुनाव हारने के साथ ही सार्वजनिक जीवन से गायब ही हो गये। सुखदेव भगत, मनोज यादव और राधाकृष्ण किशोर ऐसे ही नेता हैं।