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पांच महीने पहले सत्ता संभालने के बाद से ही मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन कह रहे हैं कि झारखंड की अर्थव्यवस्था बेहद खराब है। सरकार का खजाना खाली है। वैश्विक महामारी कोरोना ने इस संकट को और गहरा कर दिया है। तमाम आर्थिक गतिविधियों के ठप होने के कारण राज्य को अपने स्रोतों से होनेवाली आमदनी लगभग शून्य हो गयी है। इस खस्ताहाल अर्थव्यवस्था पर बड़ी संख्या में घर लौटे प्रवासी कामगारों ने बड़ा बोझ डाल दिया है और झारखंड

दिसंबर में विधानसभा चुनाव के बाद झारखंड में जब सत्ता परिवर्तन हुआ और पहली बार गैर-भाजपा गठबंधन को स्पष्ट बहुमत हासिल हुआ, राजनीतिक पंडितों ने भविष्यवाणी की थी कि बदलाव का यह दौर कारगर नहीं होगा। लेकिन करीब छह महीने बाद ऐसा लगने लगा है कि हेमंत सोरेन की सरकार व्यवस्थागत खामियों को उजागर करने और उन्हें दूर करने में लग गयी है। इन खामियों ने पिछले 20 साल में झारखंड की कई संस्थाओं को दागदार बना दिया था। राजनीतिक स्थिरता के नाम पर पिछले पांच साल के कालखंड में मुट्ठी भर नौकरशा

संसद के ऊपरी सदन, यानी राज्यसभा के लिए होनेवाले चुनाव को लेकर इस बार राजनीतिक गहमा-गहमी कुछ ज्यादा ही है। गुजरात, राजस्थान और कर्नाटक से लेकर झारखंड तक में इस चुनाव को लेकर सियासी गतिविधियां उफान पर हैं। बाकी राज्यों में विधायकों की खरीद-फरोख्त और पाला बदलने की चर्चाओं के बीच झारखंड में दूसरे कारण से यह चुनाव चर्चा में आ गया है। वैसे तो राज्यसभा का हर चुनाव झारखंड में चर्चित होता है, लेकिन इस बार झारखंड की चर्चा अधिकारों पर पैदा हुई जिच को लेकर है। इस जिच के केंद्र में तीन विधायक हैं, जो विधानसभा

15 नवंबर, 2000 को जब भारत के राजनीतिक मानचित्र पर 29वें राज्य के रूप में झारखंड की स्थापना की गयी थी, तब यहां के लोगों को लगा था कि अब उनके दिन बहुरनेवाले हैं। अपने दो दशक की यात्रा में झारखंड ने बहुत कुछ देखा, झेला और हासिल किया। 14 साल तक तो राज्य हमेशा राजनीतिक अस्थिरता के भंवर में गोते लगाता रहा। लेकिन 2014 से 19

पांच महीने पहले दिसंबर में जब झारखंड विधानसभा का चुनाव हुआ था और झामुमो-कांग्रेस-राजद का गठबंधन ऐतिहासिक जीत हासिल कर सत्तारूढ़ हुआ था, तभी से राजनीतिक हलकों में कहा जाने लगा था कि हेमंत सोरेन के लिए शासन चलाना उतना आसान नहीं होगा, क्योंकि केंद्र में उनके प्रतिद्वंद्वी की सरकार है। हालांकि शपथ ग्रहण के ठी

झारखंड में 19 जून को होनेवाले राज्यसभा चुनाव की तैयारियों के साथ ही अब दुमका और बेरमो सीट के उपचुनाव की सुगबुगाहट भी तेज होने लगी है। दिसंबर में हुए विधानसभा चुनाव के बाद इन दोनों सीटों पर होनेवाला उपचुनाव कितना कांटे का होगा, इस बात का एहसास इसी से हो जाता है कि सत्तारूढ़ झामुमो और कांग्रेस जहां इन दोनों सीटों पर अपना कब्जा बरकरार रखने के लिए कोई कसर नहीं छोड़ेगी, वहीं भाजपा विधानसभा चुनाव में हुई करारी पराजय की पीड़ा को भुलाने की हरसंभव कोशिश करेगी। इसके अलावा इन दोनों सीटों पर होनेवा

राजनीति केवल अवसरवादिता का खेल नहीं है। यदि ऐसा होता, तो राजनीतिक दलों के लिए अवसरों की कमी कभी नहीं रही, लेकिन बहुत से अवसर पर इसका लाभ उठाने की उन्होंने नहीं सोची, क्योंकि इसके दूरगामी परिणाम ठीक नहीं होते। झारखंड में भाजपा शायद राजनीति के इस गूढ़ मंत्र को भूल गयी है। तभी पार्टी ने अपने बाहुबली विधायक ढुल्लू महतो के पक्ष में बयान देकर पूरी पार्टी को नये विवाद में डाल दिया है। राज्यसभा चुनाव में पार्टी के विधायकों का अभी क्या महत्व है, इसे तो आसानी से समझा जा सकता है, लेकिन भाजपा ने एक ऐसा मु