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लोकसभा चुनाव की गहमा-गहमी खत्म होने के साथ ही अब पार्टियां जीत-हार के विश्लेषण में लग गयी हैं। झारखंड की 14 सीटों के चुनाव परिणामों का गहन विश्लेषण तो अभी कई दिनों तक चलता रहेगा, लेकिन एक बात जो सबसे महत्वपूर्ण है, वह यह है कि इस चुनाव परिणाम ने झारखंड के विपक्षी दलों के लिए एक साथ कई सीख दे दिया है। चुनाव परिणाम से साफ हो गया है कि अब झारखंड का मतदाता, चाहे वह मुसलिम हो या इसाई, पिछड़ा हो या आदिवासी, किसी खास दल का वोट बैंक नहीं रह गया है। अब किसी भी जाति या समुदाय के लोगों को किसी दल से बैर नहीं रह गया है। यह चुनाव परिणाम इस बात को भी साफ करता है कि झारखंड में पैदा हुआ वोटर, जिसने इस बार पहली बार मतदान किया है, अब दल या चेहरा नहीं देखता, बल्कि काम देखता है और तब अपने मताधिकार का इस्तेमाल करता है। इसलिए अब झारखंड में पारंपरिक कार्ड की राजनीति नहीं चलनेवाली है। राजनीतिक दलों के लिए यह रेखांकित करनेवाली बात है। झारखंड में नये किस्म की राजनीति और मतदान के नये ट्रेंड का विश्लेषण करती आजाद सिपाही के स्थानीय संपादक विनोद कुमार की खास रिपोर्ट।

ज्ञानरंजन-राजीव
उलगुलान की धरती खामोश है। खामोशी इस कदर कि मानो तूफान के पहले की खामोशी हो। हो भी क्यों नहीं, झारखंड के इस इलाके में जहां एक ओर झारखंड की राजनीति के द्रोण कहे जानेवाले दिशोम गुरु शिबू सोरेन अपनी आखिरी पारी के लिए जनता से मिन्नतें कर रहे हैं, तो दूसरी ओर कई अन्य दिग्गज अपने राजनीतिक भाग्य को लेकर संजीदा हैं। यह इसलिए हो रहा है कि संथाल की धरती लोकतंत्र के सबसे बड़े महापर्व में खामोश है। कहीं कुछ सामने नहीं आ रहा है। कौन किस पर भारी है, कहना मुश्किल सा लग रहा है। यहां तो ऐसा भी लग रहा है कि कहीं संथाल की ऐतिहासिक धरती पर नयी इबारत न लिखा जाये। जो अपने को सबसे सेफ मान रहे हैं, उनके माथे पर बल है और जो नये खिलाड़ी हैं, उन्हें जीत की आस है। इस सबके बीच सबसे अहम किरदार निभानेवाली जनता चुप्पी तोड़ने का नाम ही नहीं ले रही है। पूरे संथाल में महापर्व के उत्सव का चटक रंग अब तक नहीं दिख रहा है, जबकि चुनावी बिसात के कुछ घंटे बच गये हैं। कहना जरूरी है कि यहां न तो भोंपू का शोर है, न जनता का जोर है, है तो सिर्फ प्रत्याशियों का जोश। प्रत्याशियों का यह जोश 23 मई को किसके माथे सजेगा, यह तो भविष्य की गर्त में है, लेकिन इतना तय है कि संथाल में इस बार की फाइट बहुत ही टाइट है।

संथाल से ज्ञानरंजन-राजीव
गोड में भाजपा के गढ़ पर इस बार सियासी गदर मचा है। चुनावी समर में समय के साथ यह सीट संथाल में हॉट होती जा रही है। यहां राजनीति व्यूह तोड़ने में माहिर माने जाने वाले प्रदीप यादव भी जनता की खामोशी से हलकान हैं। वहीं पहली बार भाजपा प्रत्याशी निशिकांत दुबे भंवर में फंसे हुए दिख रहे हैं। इस बीच चुनावी माहौल कोई स्पष्ट संकेत नहीं दे रहा है, लेकिन इतना तय है कि यहां की फाइट सबसे टाइट लग रही है। भाजपा ने जहां अपने पूरे कुनबे को रण में उतार दिया है, वहीं महागठबंधन मजबूती के साथ मुकाबला कर रहा है। भाजपा के वीरों के तमाम वार की काट भी तैयार कर ली है। मतदाताओं की खामोशी से जहां एक ओर प्रत्याशी परेशान दिख रहे हैं, वहीं दूसरी ओर राजनीति के वीरों के भी पसीने छूट रहे हैं। परिणाम तो 23 मई को आयेगा, लेकिन गोड्डा की जनता राजनीति के दोनों धुरंधरों की किस्मत 19 मई को इवीएम में कैद कर देगी।

आम चुनाव 2019 अंतिम चरण में पहुंच चुका है। रविवार को झारखंड की उप राजधानी दुमका समेत संथाल परगना की तीन सीटों पर मतदान के साथ ही चुनाव का सिलसिला थम जायेगा और लोग 23 मई के इंतजार में लग जायेंगे। लेकिन झारखंड में संथाल परगना की तीन सीटों पर कब्जे की जो राजनीतिक लड़ाई अभी चल रही है, उसके परिणाम को लेकर न तो भाजपा निश्चिंत है और न ही झामुमो ही अपना गढ़ बचाने के प्रति आश्वस्त है। अब तक यही माना जाता रहा है कि संथाल परगना झामुमो का अभेद्य दुर्ग है और यहां तीर-धनुष के अलावा कुछ नहीं चलता है। पिछले चुनाव के दौरान प्रचंड मोदी लहर के बावजूद यहां की तीन में से दो सीटों, दुमका और राजमहल पर झामुमो ने कब्जा जमाया था, जबकि गोड्डा सीट बेहद कांटे के मुकाबले में भाजपा के खाते में गयी थी। इस बार जहां भाजपा ने इन तीनों सीटों पर कब्जे के लिए अपना सब कुछ झोंक दिया है, वहीं झामुमो भी अपने इस गढ़ को बचाने के लिए अपनी पूरी ताकत लगा चुका है। भाजपा की ओर से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के अलावा अध्यक्ष अमित शाह, गृह मंत्री राजनाथ सिंह, रेल मंत्री पीयूष गोयल और अन्य बड़े केंद्रीय नेता यहां का दौरा कर चुके हैं, जबकि झामुमो के दिशोम गुरु और उनके राजनीतिक उत्तराधिकारी सह कार्यकारी अध्यक्ष हेमंत सोरेन यहां लगातार कैंप कर रहे हैं। सूबे के मुख्यमंत्री रघुवर दास ने 12 मई के बाद से यहां लगातार कैंप कर रहे हैं प्रचार कर रहे हैं। मतदान से तीन दिन पहले इन तीनों सीटों का माहौल बताता है कि मिशन संथाल में जुटी पार्टियां कहीं न कहीं से आश्वस्त नहीं हैं। भाजपा और झामुमो की आशंकाएं अलग-अलग हैं, कारण भी अलग हैं।
आजाद सिपाही की टीम ने पिछले दो दिन में संथाल परगना की तीनों सीटों का दौरा कर लोगों से तो बातचीत की है, राजनीतिक कार्यकर्ताओं का मन भी टटोला है। इस बातचीत का निचोड़ यही निकला है कि संथाल का चुनावी मुद्दा क्या है और परिणाम क्या होगा, यह बताना मुश्किल है। ऐसा पहली बार हो रहा है कि संथाल के चुनाव की भविष्यवाणी इतनी मुश्किल हो गयी है। इस बारे में प्रस्तुत है आजाद सिपाही टीम की खास रिपोर्ट।

इसाई मिशनरियों द्वारा एक खास राजनीतिक दल को विदेशी फंडिंग मुहैया कराये जाने के मामले ने झारखंड में राजनीतिक भूचाल ला दिया है। झारखंड में महागठबंधन के एक-दो प्रमुख राजनीतिक दल अब निशाने पर हैं। मुख्यालय से आदेश मिलते ही पुलिस मामले की जांच में जुट गयी है। रांची, खूंटी और लोहरदगा लोकसभा चुनाव इस जांच के केंद्र बिंदु में है। इसके साथ ही पुलिस के लिए यह भी जांच का विषय है कि 12 मई को लोकसभा चुनाव के दौरान जमशेदपुर में हुए बवाल के पीछे इसी तरह की फंडिंग का खेल तो नहीं था। आखिर वहां पत्थरबाज कहां से आये। पुलिस यह जांच कर रही है कि जमशेदपुर में हुए बवाल में इस तरह की फंडिंग की क्या भूमिका रही। पुलिस सूत्रों की ही मानें, तो कहा जा रहा है कि इस लोकसभा चुनाव के दौरान मिशनरियों की विदेशी फंडिंग के साथ ही दुबई से भी पड़े पैमाने पर राशि मुहैया करायी गयी है, जिसका इस्तेमाल चुनाव के दौरान किया जा रहा है। दुबई से फंडिंग मामले को जमशेदपुर के बवाल से जोड़कर देखा जा रहा है। जबकि रांची, खूंटी और लोहरदगा चुनाव को प्रभावित करने में मिशनरी फंडिग की विशेष भूमिका बतायी जा रही है। फिलहाल तो पुलिस ने जांच शुरू कर दी है। अब जांच रिपोर्ट आने के बाद ही यह खुलासा हो सकता है कि विदेशी धन का इस्तेमाल किस प्रकार, कितना, कैसे और किस लिए किया। पूरे मामले पर नजर डाल रहे हैं हमारे राज्य समन्वय संपादक दीपेश कुमार।

झारखंड समेत पूरे देश में चल रहे आम चुनावों का परिणाम चाहे कुछ भी हो, कोई हारे या कोई जीते, इस बार राजनीतिक हलकों में कई नयी बातें सामने आयी हैं। झारखंड भी इससे अछूता नहीं है। लेकिन एक बात जो सबसे खास तौर पर सामने आयी है, वह यह कि इस चुनाव ने साबित कर दिया है कि झारखंड के सभी दल और काफी हद तक भाजपा की भी प्रदेश में गतिविधियां ‘वन मैन शो’ बन कर रह गयी हैं। चाहे झामुमो हो या झाविमो, आजसू हो या झारखंड पार्टी, किसी भी दल में अब कोई नंबर दो चेहरा नहीं रह गया है, जिसकी पहचान पूरे प्रदेश में हो या जिसे राज्य के हर कोने के लोग स्वीकार करते हों। राज्य गठन के बाद से अधिकांश दिनों तक सत्ता में रही भाजपा की हालत भी कमोबेश ऐसी ही है, जहां आज तक कोई दूसरा सर्वमान्य चेहरा उभर नहीं सका है। झारखंड में कांग्रेस की हालत तो और भी पतली है। यहां तो एक भी सर्वमान्य नेता नहीं है। इस नये राजनीतिक परिदृश्य का परिणाम यह हुआ है कि इन पार्टियों का हर कार्यक्रम केवल एक व्यक्ति पर ही पूरी तरह निर्भर हो गया है। किसी लोकतांत्रिक व्यवस्था के लिए यह पूरी तरह स्वस्थ भी नहीं है, क्योंकि एक व्यक्ति पर निर्भर पार्टी के सामने हमेशा इस बात का खतरा बना रहता है कि यदि वह छतरी क्षतिग्रस्त हुई, तो फिर संभलने का अवसर नहीं मिलेगा। इतना ही नहीं, पूरी पार्टी की जिम्मेदारी अपने कंधों पर उठाये रखनेवाले नेता की मास अपील और लोकप्रियता भी धीरे-धीरे कम होती जाती है। इसका सीधा असर पार्टी संगठन पर पड़ता है। आखिर क्यों झारखंड के राजनीतिक दल ‘वन मैन शो’ बन कर रह गये हैं और इस चुनाव के प्रचार अभियान में इसका क्या असर पड़ा है, इसका विश्लेषण करती आजाद सिपाही पॉलिटिकल ब्यूरो की रिपोर्ट।

आज हम बात कर रहे हैं सुभाष यादव की। उस सुभाष यादव की नहीं, जो कभी झारखंड आते थे, तो तहलका मच जाता था। सीधे अधिकारियों के पास फरमान जाता था। वे उन्हें बुलाते थे और उनके यहां उनका दरबार सज जाता था। उस सुभाष यादव को झारखंड के लोग लालू यादव के साला के रूप में जानते थे। यानी साधु यादव के वे भाई थे। वे आते थे और अफसरों को आदेश देकर चले जाते थे। उन्होंने एकीकृत बिहार में झारखंड के अफसरों को नाको चना चबवा दिया था। कहते हैं बड़े-बड़े टेंडर मैनेज करते थे वे, खदानों की लीज दिलवाते थे। जिस समय एकीकृत बिहार में लालू और राबड़ी का जलवा था, उस समय सुभाष यादव की चलती के आगे एक समूह विशेष के लोग नत मस्तक थे। उन्होंने खूब नाम बेचा लालू और राबड़ी का। उनकी साख पर आंच पहुंचायी। जब पानी सिर के ऊपर से बहने लगा, तो खुद लालू और राबड़ी यादव ने उन्हें अपने यहां से हटाया। लोग समझने लगे कि चलो सुभाष यादव से मुक्ति तो मिली। उसी क्रम में साधु यादव से भी मुक्ति मिल गयी। लेकिन समय का चक्र देखिये कि लालू परिवार में एक और सुभाष यादव की इंट्री हो गयी है। इस सुभाष यादव ने लालू परिवार को अपना मुरीद बना लिया है। हां, हम इस सुभाष यादव की बात कर रहे हैं जो झारखंड में राजनीतिक जमीन तलाश रहे हैं। हम बात कर रहे हैं उस सुभाष यादव की, जो झारखंड की नदियों में बालू खोजते-खोजते चतरा आये और यहां ठेहा गाड़ दिया। उस सुभाष यादव की, जिन्होंने लालू प्रसाद और उनके परिवार पर ऐसा जादू किया कि उस परिवार ने झारखंड में महागठबंधन की भी परवाह नहीं की और एकतरफा उन्हें चतरा से सिंबल दे दिया। परिणाम तो 23 मई को आयेगा, लेकिन इस सुभाष यादव ने झारखंड में राजद को ऐसा घाव दिया है, जिसे ठीक होने में, स्वस्थ होने में वर्षों लगेंगे।
सुभाष यादव के इस घाव ने झारखंड में जड़ जमाने की कोशिश में लगी लालू प्रसाद की पार्टी और खुद उनकी साख पर बट्टा लगा दिया। सुभाष यादव की राजनीतिक महत्वाकांक्षा के कारण राजद का जो यहां हश्र हुआ सो हुआ, पार्टी के सुप्रीमो लालू प्रसाद भी एकदम अलग-थलग पड़ गये हैं। जिस लालू प्रसाद को देखने के लिए, उनकी राजनीतिक सलाह लेने के लिए रांची के रिम्स में मेला लग जाता था। वहां हेमंत सोरेन, डॉ अजय कुमार से लेकर बाबूलाल मरांडी-सुबोधकांत तक सिर झुकाने जाते थे, वे आज रिम्स में गुमनामी में पड़ गये हैं। झारखंड में जड़ें जमाने की कोशिश में सारे हथकंडे अपना कर सुभाष यादव ने जैसे-तैसे चतरा से राजद का टिकट तो हासिल कर लिया, पर इसके कारण महागठबंधन में होते हुए भी राजद इसका अंग नहीं बन सका। वैसे भी चतरा लोकसभा सीट के सहारे सुभाष यादव के संसद में पहुंचने का सपना चकनाचूर हो चुका है, जनता ने उन पर विश्वास नहीं जताया है, पर अपना धंधा जमाने के लिए उन्होंने चतरा में जमीन जरूर तलाश ली है। भले इसके लिए राजद बलि का बकरा बना हो और उसकी राजनीतिक जड़ें कबड़ गयी हों। चतरा चुनाव के बहाने सुभाष यादव की महत्वाकांक्षा ने कैसे लालू परिवार और राजद का झारखंड में बेड़ा गर्क किया है, इस पर नजर डाल रहे हैं हमारे राज्य समन्वय संपादक दीपेश कुमार।

हम बात कर रहे हैं झारखंड में तीसरे और चौथे चरण के चुनाव की। इस चुनाव को लेकर क्रमश: 12 और 19 मई को मतदान होना है। इसमें अब असली परीक्षा झामुमो की होनेवाली है। कारण सात सीटों पर होनेवाले चुनाव में चार सीटों पर झामुमो ने प्रत्याशी दिये हैं। अब तक झामुमो महागठबंधन के दूसरे साथियों की परीक्षा में बेहतरी के लिए दमखम लगा रहा था, लेकिन अब झामुमो को ही परीक्षा देने की बारी आ गयी है। कारण झामुमो जमशेदपुर, गिरिडीह, राजमहल और दुमका में खुद ही जनता की अदालत में है। शेष बचे दो चरणों के चुनाव में देखना दिलचस्प होगा कि बदली परिस्थितियों में झामुमो की साख कितनी बढ़ी है या बची है। सही मायने में तीर-धनुष की असली परीक्षा राजमहल में होनी है। वहीं दिशोम गुरु में कितना दमखम बचा है, यह दुमका सीट तय कर देगा। साथ ही गिरिडीह सीट यह तय करेगा कि कुरमियों के बीच झामुमो की कितनी पैठ है और समय के साथ शहरी वोटरों के बीच झामुमो कहां तक पहुंच बना पाया है, यह जमशेदपुर सीट से तय हो जायेगा। इस पर प्रकाश डाल रहे हैं आजाद सिपाही के सिटी एडिटर राजीव।